धर्म डेस्क।जानिये आचार्य वीर विक्रम नारायण पांडेय से जातक के दुर्भाग्य का ज्योतिषीय विश्लेषण क्या है।
ज्योतिष ज्ञान
जातक के दुर्भाग्य का ज्योतिषीय विश्लेषण भाग (1)
जाने अनजाने या भूलवश किए गए कर्मों के फल स्वरुप दुर्भाग्य का जन्म होता है। यह दुर्भाग्य चार प्रकार का होता है पहला दुर्भाग्य संतान अवरोध के रूप में प्रकट होता है। दूसरा कुलक्षणों से युक्त एवं कलह प्रिय पति या पत्नी का मिलना है। तीसरा दुर्भाग्य कठोर परिश्रम का फल ना मिलना तथा धन के लिए तरसना है। चौथा दुर्भाग्य शारीरिक हीनता एवं मानसिक दुर्बलता के कारण निराशा की भावना जागृत होना है। दुर्भाग्य के उपरोक्त चारों लक्षण कुंडली में विशिष्ट परिस्थितियों में कालसर्प योग का सर्जन होने पर भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होते हैं।
कभी-कभी सर्वोत्तम ग्रह योग राजयोग गजकेसरी योग कुंडली में होने पर भी जातक अपने अंगीकृत कार्य में यश नहीं पाता। हिंदू मान्यता के अनुसार मनुष्य को वर्तमान जीवन अपने कर्मों के अनुसार ही जीना पड़ता है। इसका प्रमुख कारण मनुष्य द्वारा पूर्व जन्म में किए गए पापों का फल विभिन्न रूपों के रूप में होता है। बृहत पाराशर होरा शास्त्र में 14 प्रकार के सांपों का उल्लेख मिलता है। पितृ श्राप, प्रेत श्राप, ब्राह्मण श्राप, मातृ श्राप, पत्नी श्राप, सहोदर श्राप, सर्प श्राप इत्यादि, श्रापो को भृगु सूत्र में महर्षि भृगु ने भी अनुमोदित किया है। इन श्रपो के कारण व्यक्ति की उन्नति नहीं होती है। उसे पुरुषार्थ का फल नहीं प्राप्त होता, उसकी संतान जीवित नहीं रहती। इत्यादी बुरे प्रभाव का मुख्य कारण श्रापित कुंडलिया ही है। श्रापित कुंडलियों को जन्म देने में राहु केतु की प्रमुख भूमिका होती है। श्रापित कुंडलियों एवं कालसर्प योग की कुंडलियों में काफी हद तक समानता पाई जाती है।
जन्म कुंडली में किसी भी स्थान पर राहु मंगल, राहु बुध, राहु गुरु, राहु शुक्र, राहु शनि, राहु सूर्य, की युति हो अथवा चंद्र केतु, सूर्य केतु, शुक्र केतु, बुध केतु, गुरु केतु, शनि केतु, मंगल केतु, चंद्र शनि राहु, चंद्र मंगल राहु इत्यादि युतियां भी श्रापित कुंडलियों में पाई जाती है। जन्म कुंडली में पंचम भाव संतान का स्थान होता है इस भाव से संतान का विचार किया जाता है। तीसरा भाव भाई का, चतुर्थ भाव माता का, सप्तम भाव पत्नी का तथा दशम भाव पिता का होता है। इन भावों में राहु केतु का प्रभाव हो अथवा इनके स्वामियों की राहु या केतु से युति हो तो ब्राह्मण श्राप, पत्नी श्राप, माता का श्राप, पिता का श्राप, प्रेत श्राप द्वारा संतान हीनता आदि योग होते हैं।
संतान हीनता मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। शास्त्रों में संतान के महत्व को इतने विस्तार से समझाया गया है कि जातक की सद्गति संतान के बिना नहीं हो सकती। ज्योतिष विज्ञान में संतान का कुंडली के पंचम भाव से विचार किया जाता है एवं इसका कारक ग्रह बृहस्पति होता है। आज के लेख में हम संतान हीनता के विभिन्न ज्योतिष योगों के विषय में चर्चा करेंगे।
संतान हीनता के ज्योतिषीय योग
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१ यदि किसी जातक की कुण्डली में पंचमेश लग्न में पाप ग्रह से पीड़ित होकर अशुभ योग करके बैठा है तो जातक संतानहीन होता है।
२ यदि किसी जातक की कुण्डली में पंचमेश चतुर्थ भाव में नीच का हो या शत्रु भाव में स्थित हो या पाप ग्रह से पीड़ित हो तो वह व्यक्ति संतानहीन होता है।
३ यदि किसी जातक की कुण्डली में पंचमेश छठे भाव में नीच राशि का या शत्रु क्षेत्री या पीड़ित हो तो ऐसा जातक संतानहीन होता है।
४ यदि किसी जातक की कुण्डली में लग्न,पंचम,अष्टम,एवं द्वादश भावो में पापी ग्रह हो तो ऐसे व्यक्ति का वंश नष्ट हो जाता है।
५ यदि लग्न में मंगल,अष्टम भाव में शनि हो तथा पंचम भाव में सूर्य स्थित हो,ऐसे योग में जन्मे व्यक्ति का वंश नष्ट हो जाता है।
६ यदि सप्तम भाव में शुक्र हो,दशम भाव में चंद्र हो और चतुर्थ स्थान में पापी ग्रह बैठे हो ऐसे योग में उत्पन्न व्यक्ति का वंश नष्ट हो जाता है।
७ यदि चंद्र से अष्टम भाव में पापी ग्रह हो तो भी ऐसे योग में जन्मे व्यक्ति का वंश नष्ट हो जाता है।
८ यदि लग्न,पंचम,अष्टम,द्वादश भाव में पापी ग्रह हो अथवा लग्न में मंगल हो अष्टम भाव में शनि तथा पंचम भाव में सूर्य हो तो ऐसे योग में जन्मे जातक का वंश नष्ट हो जाता है।
९ पंचमेश,धनेश, सप्तमेश से युक्त भागयेश(नवमेश)का नवांश पापी ग्रह का हो अथवा पाप युक्त हो तो संतान हीनता का योग होता है।
१० लग्नेश से युक्त मंगल अष्टम भाव में हो और पंचमेश क्रूर ग्रह के षष्ठांश में हो तो भी संतानहीनता का योग बनता है।
११ यदि किसी जातक की कुण्डली में गुरु लग्नेश एवं सप्तमेश या पंचमेश क्रूर ग्रह के षष्ठयांश में हो तो संतान हीनता का योग होता है।
१२ लग्नेश एवं पंचमेश छठे,आठवे या बारहवे भाव में हो तथा कारक ग्रह नीच राशि में हो और पंचम भाव में कोई पापी ग्रह बैठा हो तो संतानहीनता का योग होता है।
१३ यदि कुण्डली में गुरु क्रूर ग्रह के षष्ठयांश में हो,पंचम भाव में अष्टमेश भाव का स्वामी हो तथा पंचमेश अष्टम भाव में परस्पर स्थान परिवर्तन कर के बैठे हो तो भी संतानहीनता का योग बनता है।
१४ यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली में सुर्य पंचम भाव में शुभ ग्रहो से दृष्ट ना हो अथवा अष्टम भाव में नीच का या शत्रु क्षेत्री शुक्र या गुरु हो अथवा गुरु,शुक्र साथ साथ युति करके बैठे हो या पंचम भाव में तीन-चार पापी ग्रह हो और अष्टम भाव में मंगल हो तो ऐसे व्यक्ति की कोई संतान जीवित नहीं रहती।
१५ यदि पंचमेश सूर्य,मंगल या शनि हो और वह पंचम छठे या बारहवे भाव में बैठा हो तथा पंचम भाव में शुभ ग्रहो की दृष्टि ना हो तो ऐसे व्यक्ति की संतान नहीं होती।
१६ यदि किसी जातक की कुण्डली में लग्नेश,गुरु, पंचमेश एवं सप्तमेश चारो कमजोर हों तो भी ऐसे जातक के संतान नहीं होती।
१७ यदि किसी जातक की कुण्डली में लग्न से, चंद्र से,एवं गुरु से पंचम भाव में पापी ग्रह हो तथा शुभ ग्रह से युत या दृष्ट ना हो तो ऐसे व्यक्ति के संतान पैदा नहीं होती।
१८ यदि किसी महिला की कुण्डली में सूर्य लग्न में हो और शनि सप्तम भाव में हो अथवा सूर्य शनि युति करके सप्तम भाव में हो और गुरु की दशम भाव में दृष्टि हो तो ऐसी महिला गर्भ धारण के योग्य नहीं होती।
१९ यदि किसी महिला की जन्म कुण्डली में शनि मंगल छठे या चतुर्थ भाव में हो तो भी ऐसी महिला गर्भ धारण के योग्य नहीं होती।
२० यदि किसी महिला की कुण्डली में शनि की षष्ठेश के साथ युति हो अथवा शनि छठे भाव में हो और चंद्र सप्तम भाव में हो तो ऐसी महिला गर्भ धारण नहीं कर सकती।
२१ जिस स्त्री की कुण्डली में अष्टम भाव में बुध हो, नीच राशि ,अस्त शत्रु क्षेत्री बुध पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि ना हो तो ऐसी स्त्री ककवंध्या कहलाती है।केवल एक बार सफल या असफल गर्भ धारण करती है।
२२ जिस स्त्री की कुण्डली के लग्न में राहु,सूर्य,मंगल स्थित हो तो वह अवश्य विधवा होती है।लग्न में सूर्य-मंगल-राहु और दूसरे भाव में शुक्र स्थित हो तो वह स्त्री विधवा होकर दूसरा विवाह कर लेती है।
२३ जिस स्त्री की कुण्डली में शनि मंगल सिंह राशि के ग्रह हो और चंद्र एवं शुक्र लग्न में हो तथा पंचम भाव में पाप ग्रहो की दृष्टि हो तो वह नारी वंध्या होती है।