विजय शंकर चतुर्वेदी का विशेष लेख

दीपक : साहित्यकारों की दृष्टि में
सोनभद्र।दीपक सिर्फ रोशनी का साधन नहीं बल्कि पूरा जीवन दर्शन है ।
निराला के लिए यह दीप व्यक्ति की सात्विक उपलब्धि है, उसकी निजता, वैयक्तिकता और अस्मिता की प्रखर अभिव्यक्ति, आभा की प्रखर लालिमा, प्रकृति के विपरीत भाव में भी राम की मशाल के साथ निराला का दीप जलता रहा है। बच्चन की होली दीवाली की पूरक कल्पना और मधुशाला के वैभव में इस दीप की नई पहचान है। दिनकर संस्कृति के चार अध्याय में रोते मनुष्य के हाथ में ‘ धर्म का दीपक’ और दया का दीप थमा देते हैं।
सिहलद्वीप धन्य हो उठता है जब वहां पद्मावती का दीया जलता है। यही दीपक तुलसीदास के छविगृह में दीपशिखा की तरह जलता है, सुंदरता इसके सामने प्रणय है जो इस दिए से और भी लावण्य पाती है। कबीर में यह अनंत का तेज है।
प्रसाद तक आते आते यही दीपक कहीं ‘ आकाशदीप’ तो कहीं ‘ आँचलदीप’ और कहीं ‘ प्रणयदीप’ बन जाता है।
महादेवी इस दीप को केवल जलते देखना चाहती हैं।
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