जातीय गोलबंदी दरकने की आहट !
क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए आ सकता है संकट काल ?
◆ हेमंत तिवारी
देश में आज फैसले का दिन है और पूरी दुनिया की निगाहें सत्ता की सीढ़ी के सबसे बड़े पायदान उत्तर प्रदेश की ओर है । पहली बार ऐसा होने जा रहा है कि देश में लगातार दूसरी बार कोई गैर कांग्रेसी सरकार केंद्र में पदारूढ़ होने जा रही है और प्रधानमंत्री इसी हिंदी हृदय प्रदेश से है । वैसे तो वीपी सिंह और चंद्रशेखर लगातार दो गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री इसी सूबे से रह चुके हैं और स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी लगातार दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं लेकिन उनका पहला कार्यकाल नितांत संक्षिप्त रहा था
दो दिन पहले आए एग्जिट पोल के नतीजों का आकलन करें तो यह उत्तर प्रदेश की सियासत में भूचाल के संकेत हैं । अगर इन्हे सच का संकेतक माना जाए तो वसपा सपा और रालोद की नींद उड़ना और ईवीएम की शामत आना तय है । सोमवार को जेठ की तपती दोपहर में अखिलेश यादव अपने घर से निकले, मायावती के यहां पहुंचकर संभावित स्थितियों पर चर्चा के बाद ट्विटर पर बहनजी के साथ मुलाकात की तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा है…. अब अगले कदम की तैयारी !
इसी बीच अखिलेश यादव ने गठबंधन समर्थकों को एक पत्र जारी करके एग्जिट पोल के नतीजों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने की बात कही है और अपील की है कि मतगणना के समय सभी लोग एकजुट और मुस्तैद रहें, नतीजे उनके पक्ष में आ रहे हैं ।
दरअसल , उत्तर प्रदेश में भाजपा के खाते में साठ पैंसठ सीट का जो अनुमान एग्जिट पोल में सामने आ रहा है , सामान्य तौर पर अतिरंजित प्रतीत होता है । भाजपा और गठबंधन, दोनों पक्षों का अंदरखाने मानना है कि किसी एक के खाते में चालीस बयालीस से ज्यादा सीटें नही आनी हैं । अगर किसी सूरत में भाजपा को पचास से ज्यादा सीटें आती है तो साफ हो जाएगा कि सपा बसपा के पारंपरिक माने जाने वाले यादव और दलित मतों के ट्रांसफर को लेकर जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं , वे सच निकलीं । विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और इस चुनाव में बसपा से हुए गठबन्धन को लेकर यह आशंका अखिलेश यादव के पिता और पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह भी जाहिर कर चुके हैं ।
एक सबसे अहम सवाल यह भी सियासी फिजा में तैरने लगा है कि अगर एग्जिट पोल के संकेत 23 मई को सच के आसपास होते हैं तो क्या जातीय गोलबंदी की बुनियाद पर पिछले तीन दशक से सूबे की सियासत में दबदबा बनाने वाले क्षेत्रीय क्षत्रपों का अवसान काल निकट है ? इस दौरान मायावती चार बार, मुलायम सिंह दो और अखिलेश यादव एक मर्तबा यूपी की सत्ता संभाल चुके हैं ।
देश के कई टीवी चैनलों ने अपने अनुमानों में यूपी में भाजपा को 50 से ज्यादा सीटें दी हैं। अगर ऐसे ही नतीजे आये तो यूपी की राजनीति में सामाजिक समीकरणों का एक भ्रम निश्चित रूप से टूट जाएगा।
लोकसभा चुनावो के पहले जब सपा और बसपा के गठबंधन की घोषणा हुई थी तो अचानक ही लगाने लगा था कि करीब तीन दशको के बाद एक बार फिर वोटो का अपराजेय गणित बन गया है और विश्लेषकों ने भी इस गठबंधन के आधार पर सीटों की भविष्यवाणियां शुरू कर दी। यह अनायास नहीं था, कोई भी विश्लेषण इतिहास के अनुभवों के आधार पर ही होता है और इतिहास में कांसीराम और मुलायम सिंह यादव के एक साथ आने के बाद के नतीजे सामने थे। लेकिन शायद एक बड़ा फर्क भी था। इस बार भाजपा बदली हुई थी और मोदी और अमित शाह की आक्रामक जोड़ी गठबंधन के सामने चुनौती पेश कर रही थी । राष्ट्रवाद के नारे को पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक का एक ठोस आधार भी मिल चुका था। हालांकि भाजपा के लिए चुनौतियां भी कम नहीं थी । पूर्वांचल में बड़े वोट बैंक का दावा करने वाले ओम प्रकाश राजभर की एनडीए से बगावत भी फ़िक्र पैदा करने वाली बात थी।
समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के लिए भी यह एक बड़ा निर्णय रहा. बीते करीब तीन दशको से एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकने वाली इन पार्टियों ने अगर एक साथ खड़े होने का मन बनाया था तो उसके पीछे कहीं न कही अस्तित्व बचने का संघर्ष भी था और उत्तर प्रदेश में खोई हुई जमीन पाने की जद्दोजहद भी थी। पुरे चुनावी अभियान में गठबंधन के नेताओं की आपसी केमेस्ट्री भी शानदार दिखाई दे रही थी. मंच पर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव का मायावती के पैर छूने वाली तस्वीर ने खूब सुर्खियां बटोरी। लेकिन एक सवाल राजनीतिक पंडितो के बीच लगातार बहस का विषय बना रहा – क्या सपा और बसपा के वोट एक दूसरे को ट्रांसफर हो पाएंगे ?
एक्जिट पोल के अनुमान अगर सही निकलते हैं तो इस सवाल का जवाब साफ़ मिल जाएगा – “नहीं” . इस जवाब के साथ ही एक बात और भी तय होगी कि जातीय वोटो की गोलबंदी के सहारे राजनीती करने के दिन भी चले गए। दलित वोटो पर अपना अधिकार रखने वाली मायावती और यादव -मुस्लिम वोटो का ठोस समीकरण बनाने वाले अखिलेश यादव की उनके वोटरों को मनचाहे रूप से घूमाने का दावा भी ख़त्म हो जाएगा। लेकिन इसके साथ ही साथ यह भी साबित हो जाएगा कि चुनावो के बीच इन क्षेत्रीय पार्टियों के स्थानीय नेताओं का रुख भी नतीजों पर प्रभाव डाल रहा था। उदाहारण के रूप में गाजीपुर की सीट देखें तो गठबंधन के फार्मूले में यह सीट बसपा को गई थी। बसपा ने अफ़ज़ल अंसारी के रूप में एक मजबूत उम्मीदवार भी दिया। जातीय वोटों के समीकरणों के हिसाब से ये सीट गठबंधन के पक्ष में जानी चाहिए , लेकिन बसपा के खाते में जाने के बाद सपा का मजबूत गढ़ माने जाने वाले इस इलाके के कई कद्द्वार समाजवादी नेता करीब करीब शांत हो कर बैठ गए। ऐसा ही कुछ जौनपुर की सीट पर भी होता दिखाई दिया। यह इलाका भी समाजवादी पार्टी के मजबूत किले में शुमार होता है , मगर यह सीट भी बसपा के खाते में गई थी , एक रिटायर्ड अधिकारी को अचानक इस सीट पर बसपा ने उतार दिया , चर्चा यह भी रही की इस टिकट के लिए पैसे का लेनदेन भी हुआ। इन इलाकों के स्थानीय समाजवादी नेताओं ने भी यहाँ बहुत रूचि नहीं ली।
दरअसल यह पूरा चुनाव ही मोदी के नाम पर लड़ा गया। कई सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों से बेहद नाराज होने के बावजूद मोदी समर्थक वोटरों ने उनके नाम के आगे का बटन दबाया। मोदी समर्थक वोटरों की संख्या यदि अधिक निकलती है तो इसका साफ़ मतलब होगा कि पिछड़ी और दलित जातियों के बीच भी मोदी की लोकप्रियता बनी हुयी है , और मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के साथ राष्ट्रवाद के तड़के ने भाजपा के लिए एक अच्छा व्यंजन तैयार किया है।
★ राजभर और रामवीर की बर्खास्तगी तो तय ही थी
उत्तर प्रदेश में सातवें और आखिरी चरण का चुनाव समाप्त होते ही उत्तर प्रदेश की सियासत में दो अहम बर्खास्त किया हुई हैं । योगी आदित्यनाथ सरकार में काबीना मंत्री रहे ओमप्रकाश राजभर को बर्खास्त किया गया तो पिछले तीन दशक से बसपा की राजनीति में बड़ा दखल रखने वाले और मायावती की हर सरकार में कद्दावर मंत्री रहे रामवीर उपाध्याय की पार्टी से छुट्टी कर दी गई ।
असल में लोकसभा चुनाव के पहले से ही इन दोनों का बाहर होना तय था लेकिन दोनों दल चुनावी नफा नुकसान को देखते हुए आखिरी मतदान तक चुप रहे। ओमप्रकाश राजभर ने 2017 में विधानसभा चुनाव के वक़्त भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन किया था और उन्हें पूर्वांचल की 8 सीटें सहयोगी दल के तौर पर दी गई जिसमे चार पर जीत भी मिली थी । भाजपा ने ओमप्रकाश राजभर को योगी सरकार में काबीना मंत्री बनाते हुए पिछड़ा वर्ग और दिव्यांग कल्याण विभाग का प्रभार दिया लेकिन अहम जिम्मेदारी मिलने के पखवारे भर बाद से ही वे लगातार भाजपा और योगी सरकार पर हमलावर रहे । सरकार की लगातार हो रही छीछालेदर के बीच कई बार रुठे मनाए गए और सियासी गलियारों में इस बात पर लगातार हैरत जताई जाती रही कि भारतीय जनता पार्टी आखिर किस दबाव में ओमप्रकाश राजभर की गालियां सुनती आ रही है । पिछड़ों की बात पर ओमप्रकाश राजभर कई बार इस्तीफे की घोषणा कर चुके थे और लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी पार्टी के कोटे में सीटों की मांग को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपना इस्तीफा सौंप दिया था । हालांकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह , उत्तर प्रदेश प्रभारी जेपी नड्डा और पार्टी के प्रदेश नेतृत्व से उनकी कई बार बातचीत हुई लेकिन मामला सुलझा नहीं । चुनाव सिर पर थे और ओमप्रकाश राजभर लगातार टिकटों के लिए दबाव बना रहे थे तो भाजपा नेतृत्व ने उन्हें दिल्ली बुलाया और आदर्श आचार संहिता लागू होने के 24 घंटे पहले उनकी पार्टी के दो नेताओं को निगमों का अध्यक्ष बनाया तथा च चार अन्य को विभिन्न निगम और आयोग में सदस्य बनाकर यह समझ लिया कि शायद राजभर अब चुप हो जाएं । लेकिन राजभर थे कि कम से कम 2 सीटों पर अड़े रहे और जब भाजपा ने उनकी बात नहीं मानी तो 39 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान किया और चुनाव भी लड़े ।
ओमप्रकाश राजभर को इस बात का पक्का यकीन हो गया था कि चुनाव खत्म होते ही उन्हें भाजपा से अलग होना ही पड़ेगा । राजभर वैसे तो लम्बे समय से भाजपा और योगी सरकार पर कटाक्ष , ताने और इल्जाम लगाते रहे थे लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान मऊ जिले में उन्होंने अति कर दी । एक चुनावी जनसभा में राजभर ने भाजपा वालों को मां की गंदी गाली दी और कहा कि जहां भाजपाई दिखे उनको जूते मारो । वास्तव में ओमप्रकाश राजभर भाजपा को लगातार गरियाते रहे और इधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उनका मन बढ़ता चला गया । हालांकि ओमप्रकाश राजभर की काट के लिए भारतीय जनता पार्टी ने काफी पहले से ही इंतजाम शुरू कर दिए थे । भाजपा नेतृत्व को पता था कि लोकसभा चुनाव में पूर्वांचल की कम से कम 6 या 7 सीटें ऐसी हैं जहां अच्छी संख्या में राजभर मतदाता हैं और उनका अच्छा खासा प्रभाव है ।
भाजपा के पास पहले से ही घोसी से राजभर बिरादरी के सांसद हरिनारायण थे । वाराणसी के विधायक अनिल राजभर को योगी सरकार में स्वतंत्र प्रभार का राज्य मंत्री बनाया गया और जब राज सभा के चुनाव हुए तो भाजपा ने बलिया के सकलदीप राजभर को संसद भेजा । ओमप्रकाश राजभर असल में भाजपा की राजनीति को समझ नहीं पाए । अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत उन्होंने बसपा से की थी और पार्टी में तवज्जो न मिलने के नाते अलग होकर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया था।
उधर हाथरस के मूलनिवासी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बसपा की राजनीति में कद्दावर चेहरे के रूप में स्थापित रामवीर उपाध्याय को सतीश मिश्रा के बाद पार्टी का सबसे बड़ा ब्राह्मण चेहरा भी माना जाता रहा है । एक जमाने में रामवीर की बसपा में तूती बोलती थी और सिर्फ ब्राह्मण समाज ही नहीं बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनसे पूछ कर पार्टी टिकट दिए जाते थे । मायावती के सभी सरकारों में रामवीर उपाध्याय काबीना मंत्री रहे और उनके पास दो-दो बार ऊर्जा जैसे अहम महकमें का प्रभार रहा । रामवीर उपाध्याय की पत्नी सीमा उपाध्याय फतेहपुर सीकरी से पार्टी की सांसद रहीं तो छोटे भाई मुकुल उपाध्याय विधायक । रामवीर करीब तीन दशक पहले से बसपा से जुड़े हुए थे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी हार के बाद उनको मायावती ने थोड़ा किनारे कर दिया था । 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पत्नी सीमा उपाध्याय एक बार फिर पार्टी की संभावित प्रत्याशी थी क्योंकि 2009 में फतेहपुर सीकरी से जीतने के बाद 2014 में वे इसी सीट से भाजपा के चौधरी बाबूलाल के मुकाबले दूसरे स्थान पर थी । लेकिन इस बार बहनजी ने रामवीर की पत्नी का टिकट काटकर वहां से गुड्डू पंडित को उम्मीदवार बना दिया । चुनाव के पहले ही इस बात के आसार थे कि रामवीर उपाध्याय पार्टी छोड़ सकते हैं । वैसे तो प्रत्यक्ष रूप से रामवीर ने भाजपा का प्रचार चुनाव में नहीं किया लेकिन बसपा नेतृत्व का मानना था कि उन्होंने पार्टी प्रत्याशी की खिलाफत की है । इधर चुनाव खत्म हुए और उधर रामवीर को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से बर्खास्त कर दिया गया । फिलहाल इस बात के आसार हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनकी अहमियत को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी जल्दी उन्हें औपचारिक रूप से अपने यहां लेनेपर विचार कर सकती हैं । वैसे चुनाव पूर्व उनकी भाजपा में प्रवेश के प्रयास असफल हो चुके हैं ।