मैं बाजार के दबाव में काम नहीं कर सका – मुकेश बिजौले

विभा दुबे की रिपोर्ट

कला में खोज हो रही है, नवाचार हो रहा है

इंदौर।जो मुझे जो दिख रहा है, उससे मुठभेड़ करते हुए मैं कला में प्रविष्ठ हुआ। मेरी पेंटिंग लोक रंग से आती है। इसलिए मैं बाजार के दबावों में काम नहीं कर सका।

शासकीय अहिल्या केन्द्रिय पुस्तकालय में जनवादी लेखक संघ, इन्दौर के मासिक रचना पाठ-72 में चित्रकार मुकेश बिजौले ने अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा करते हुए बताया कि पहले मैं श्वेत-श्याम चित्र ही बनाता था। बाद में 2008 में मेरे चित्रों में रंगों ने प्रवेश किया। झाबुआ के आदिवासी जीवन से मेरे चित्रों के प्रमुख बिम्ब आए हैं। विषम परिस्थितियों में भी जो जीवन का सुख है वह उनके पास है। मेरे चटक रंगों में उल्लास और प्रतिरोध दोनों आते हैं। कला आभावों की मोहताज नहीं होती। जिस कला का समाज से सरोकार नहीं वह कला हो ही नहीं सकती।

कला सवांद में देवेन्द्र रिणवा, सारिका श्रीवास्तव, डॉ.पदमा सिंह, लक्ष्मीकांत जोशी, संदीप, नाइक आदि के प्रश्नों के जवाब में मुकेश बिजौले ने कहा कि आज का समय प्रयोगधर्मी है। कला में खोज हो रही है, नवाचार हो रहा है। इस क्षेत्र में भी चित्रकार को आत्मावलोकन करना चाहिए। मैं खुद भी अपने बनाए चित्रों को खारिज कर देता हूँ। सत्रसंचालन प्रदीप मिश्र ने किया।

दूसरे सत्र में कवि पवन वर्मा की किताब होना अपने समय में का विमोचन हुआ। पवन वर्मा ने रोज की तरह, चीजें, यह इतना आसान नहीं, चिड़िया और बच्चे, शुन्य से आगे, फैल रही है स्याही कागज पर, पुरस्कृत कविता, कब तक और यात्रा में कविताएं पढ़ीं।

कवि-समीक्षक राजेश सक्सेना ने कविता पर लिखित पर्चा पढ़ते हुए कहा कि जब कवि भयानक चीखों और खतरनाक आवाजों के बीच अपने समय में सन्नाटे को सुनने की कोशिश कर रहा हो तो कवि की चेतना के बारे में सोचा जाना चाहिए। इन कविताओं में समय की ऐसी परतें हैं जो अमूर्त, अलक्षित और अलभ्य है।

उज्जैन के साहित्यकार श्रीराम दवे ने कविताओं को विराट फलक की तरफ ले जानीवाली कहा। रजनीरमण का मानना था कि कविताओं में कवि का समय पूर्ण सत्य के साथ मौजूद है। इन्हें संवेदनशीलता के दस्तावेज की तरह देखना चाहिए। देवास के कवि बहादुर पटेल ने कहा कवि ने जैसा देखा उसे उसी बेचैनी के साथ लिखा। डॉ. विभा दुबे, केतकी शर्मा, सुरेश उपाध्याय ने कविताओं के सहज, सरल होने और उनकी गहराई तथा प्रभाव को रेखांकित किया। प्रदीप मिश्र ने इन कविताओं को एक मनुष्य की अपने समय के प्रति प्रतिक्रिया बताते हुए कहा कि कविताएं भाषा में अस्तीत्व की तलाश में हैं। कथाकार राजनारायण बोहरे, रमेश कुमार दुबे, कवियत्री ज्योति देशमुख, राजेन्द्र राठौर ने कविताओं की सराहना की। संचालन रजनी रमण शर्मा ने किया।

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