युग प्रवर्तक महायोगी गोरखनाथ पर केन्द्रित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी


भारतीय संस्कृति गंगा की भांति सम्मिश्रित संस्कृति मानी जा सकती है- डाॅ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त
लखनऊ: दिनांक: 28 सितम्बर, 2019
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। दिनांक 28 सितम्बर, 2019 को हिन्दी भवन में तृतीय दिवस शनिवार को पंचम सत्र में डाॅ0 रामदेव शुक्ल, गोरखपुर की अध्यक्षता एवं डाॅ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त, मा0 कार्यकारी अध्यक्ष, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान की सहभागिता में किया गया।
मीरजापुर से पधारे डाॅ0 अनुज प्रताप सिंह ने ‘गोरखनाथ का भाषिक संदर्भ‘ विषय पर बोलते हुए कहा – गोरखनाथ के समय संस्कृत भाषा का प्रचलन अधिक रहा है। उन्होंने प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा। हेरण्ड संहिता में प्राकृत भाषा का प्रभाव है। गोरखवानी में अवधी भाषा का प्रभाव है। गोरखवानियों पर पश्चिमी बोलियों का प्रभाव है। गोरखवानी में वैकल्पिक ध्वनियों का प्रयोग भी किया है। उनके साहित्य में मिश्रित भाषा का प्रयोग अधिक हुआ है। उन्होेने विभिन्न भाषाओं को अपने साहित्य मंें सम्मिलित किया। किसी भाषा से परहेज नहीं किया। जायसी की सिंहलगढ़ रचना में गोरखवानी का प्रभाव दिखायी पड़ता है।
वाराणसी से पधारे डाॅ0 राधेश्याम दुबे ने ‘गोरखवाणी का काव्यगत सौन्दर्य‘ विषय पर बोलते हुए कहा -योगबल से युग परिवर्तन हो सकता है। गोरखनाथ महायोगी ने समाज की विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया। गोरखनाथ जी का अधिकांश साहित्य संस्कृत में हैं। गोरखनाथ जी योग साधना को महत्व देते है। हमें अपनी काया को ब्रज के समान बनाना होगा। गोरखनाथ स्वयं बाल रूप में शिव स्वरूप हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने का प्रयास किया। गोरखनाथ जी का यह आध्यात्मिक प्रभाव था कि बौद्ध धर्म धीरे-धीरे अप्रभावी होता चला गया। कबीरदास की उलटवासियाँ जनमानस में भक्ति का संदेश देती हैं।
गोरखपुर से पधारे डाॅ0 प्रदीप कुमार राव ने ‘सामाजिक समरसता और नाथपंथ‘ विषय पर बोलते हुए कहा – गोरखनाथ जी ने समाज को नई परम्परा दी। आध्यात्मिक जगत में गोरखनाथ जी का प्रमुख स्थान है। समाज में ऊँच-नीच व अस्पृश्यता हमें गौरव से दूर रखती है। भारत ने पूरे विश्व को जीवन दर्शन दिया है। बुद्ध तथा गोरखनाथ ने समाज की कुरीतियों व विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया। गोरखनाथ जी सामाजिक परिवर्तन के लिए अपने जीवन को समर्पित किया।
अध्यक्षीय सम्बोधन में डाॅ0 रामदेव शुक्ल ने कहा- योग के क्षेत्र में तीन नाम-कृष्ण, श्री कृष्ण योगेश्वर ने योग की अमृत ज्ञान सूर्य को दिया। हमारी श्रेष्ठ परम्परा में लिपियों से पहले रहीं हैं। भारत मंे एक योगी महायोगी गोरखनाथ जी ही हैं। विवेकानन्द बौद्ध धर्म के प्रसंशक थे। बुद्ध ने मूर्ति पूजा को निषेध मानते थे जबकि उनकी मूर्तियाँ सबसे अधिक लगायी गयीं हैं। योगियों की आध्यात्मिक शक्तियों से राजवंशों को काफी खतरा पैदा हो गया था। महायोगियों ने आचरण से समाज में यह संदेश प्रस्तुत कियां माँस खाने से दया व धर्म का नाश हो जाता है।
डाॅ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त, मा0 कार्यकारी अध्यक्ष, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने समारोप वक्तव्य में कहा – भारतीय संस्कृति गंगा की भांति सम्मिश्रित संस्कृति मानी जा सकती है। भारतीय संस्कृति विविधता में एकता में एकता पर विशेष बल दिया गया। भारतीय संस्कृति समन्वय पर बल देती है। नाथपंथ के साथ अनुश्रुतियाँ जुड़ी हुई हैं। नाथपंथ के एतिहासिक सांस्कृतिक परिपे्रक्ष्य के आधार पर अध्ययन एवं खोज करने की आवश्यकता है। नाथपंथ सामाजिक निहितार्थ का आकलन करना होगा। संन्यासियों ने समाज में जनजागरण का कार्य किया। नाथपंथ में राष्ट्रीय चेतना की भूमिका के पक्ष को भी चर्चा एवं खोज की आवश्यकता है। आज शब्द और कर्म में विशाल अन्तराल आ गया है। साहित्य मानसिक चेतना को परिष्कृत करता है। भारत त्याग की ओर उन्मुख देश है।
पंचम सत्र का संचालन डाॅ0 विनम्रसेन सिंह ने किया।

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