कोई वित्त मंत्री अर्थव्यवस्था को दिशा दे सकता है, उसे उस दिशा में हांक नहीं सकता। बैंकों को ब्याज दर घटाने और परियोजनाओं के लिए कर्ज देने पर राजी कर करने से सरकार की सक्रियता का अहसास हो सकता है, लेकिन इससे परिस्थित विकट हो सकती है जैसा कि यूपीए सरकार में हुआ था। जेटली ने लालच का ऐसा भाव कभी नहीं दिखाया।
एमसी गोवर्धन रंगन, नई दिल्ली
नरेंद्र मोदी सरकार पर बार-बार आरोप लगता रहा कि उसने आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया। अब जब मोदी सरकार पहले से भी ज्यादा जनाधार हासिल कर दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली विशाल अर्थव्यवस्था का अगले पांच वर्षों तक संचालन करने जा रही है तब आरोप के स्वर और ऊंचे हो गए हैं। ध्यान रहे कि सुधारों के मायने अलग-अलग व्यक्ति अथवा संस्था के लिए अलग-अलग हैं।
★ हर किसी के लिए बदलावों के अलग-अलग मायने
शेयरों में निवेश करने वालों के लिए सुधारों का मतलब ऐसे फैसलों से है जिनसे कंपनियों की कमाई बढ़े ताकि उनके शेयरों के दाम बढ़ते जाएं। अगर निवेश गतिविधि मंद पड़ी तो वे सरकारी खर्च बढ़ाने की मांग करते हैं, भले ही ऐसा करना होशियारी नहीं हो। इस जमात के लोगों को महंगाई से कोई लेनादेना नहीं होता है। दरअसल, इस जमात को उत्पादकता में वृद्धि के बिना भी कीमतें बढ़ने से खुशी होती है। इसे सिर्फ यही दिखता है कि ज्यादा महंगाई मतलब ज्यादा लाभ, ज्यादा लाभांश और शेयरों की ज्यादा कीमत।
वहीं, बॉन्ड में निवेश करने वालों के लिएसुधार का मतलब सरकार के ज्यादा होशियार होने से है। अगर सरकार ज्यादा उधार लेगी तो निजी निवेश में कमी आएगी। बॉन्ड निवेशक बिल्कुल नहीं चाहते कि महंगाई बढ़े क्योंकि महंगाई बढ़ते ही बॉन्ड्स की कीमत घट जाती है। यील्ड्स बढ़ना सरकार के लिए भी बढ़िया नहीं होता क्योंकि उसे अपने कर्ज के लिए ज्यादा भुगतान करना पड़ता है। यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी घातक होता है क्योंकि उन्हें मौजूदा पीढ़ी का संचित कर्ज चुकाना पड़ता है।
कॉर्पोरेट वर्ल्ड के लिए सुधारों का मतलब है कि नियम-कानूनों का बोझ कम हो और नियम जटिल नहीं हों ताकि उनका पालन करना आसान हो। इंडस्ट्री चैंबर्स हमेशा ऑडी क्यू 7 से लेकर ऐटलस साइकल तक, हर चीज पर टैक्स की कम दरें चाहते हैं। मजेदार बात यह है कि वे जीएसटी के अधीन करों की एकरूपता के बहाने अनिवार्य उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर विलासिता की वस्तुओं तक, सभी पर कम टैक्स चाहते हैं। उनकी हमेशा निवेश पर रियायत और कुछ अवधि के लिए टैक्स छूट (टैक्स हॉलिडे) की चाहत रहती है। पहले ईटी ग्लोबल बिजनस समिट में प्रधानमंत्री ने इनकी प्रवृत्ति को अच्छे से स्पष्ट किया था। उन्होंने कहा था, ‘अगर आप गरीब को कुछ देते हैं तो वह सब्सिडी कहलाती है और वह बुरा है। अगर आप उद्योगों को कुछ देते हैं तो वह इंसेंटिव कहलाता है।’
अमीरों के लिए सुधार का मतलब उनके निवेशों पर बिल्कुल कम टैक्स लगे या फिर एकदम नहीं लगे क्योंकि वे राष्ट्र निर्माण में योगदान कर रहे हैं। वह चाहते हैं कि उनके किसी भी निवेश पर कोई टैक्स नहीं लगे, वह चाहे म्यूचुअल फंड्स हो या प्राइवेट इक्विटी या फिर स्टार्टअप्स। ऐसा नहीं होने पर आंट्रप्रन्योरियल इकोसिस्टम को बढ़ावा नहीं मिलेगा।
विशाल कंपनियों के लिए सुधार का मतलब है कि सरकारी नियम ऐसे हों जो किसी क्षेत्र में किसी कंपनी के प्रवेश का पैमाना ऊंचा बना रहे। उनकी दलील होती है कि ग्राहक सेवा इतनी महत्वपूर्ण होती है कि छोटी कंपनियों द्वारा उत्पादन लागत पर नियंत्रण नहीं रख पाने की स्थिति में ग्राहकों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है। हालांकि, हकीकत इससे उलट है। जिन उद्योगों पर मुट्ठीभर कंपनियों का एकाधिकार होता है या जिनमें कम प्रतिस्पर्धी कंपनियां होती हैं, उनसे जुड़ी कंपनियां ग्राहकों से मनमाना वसूली करती है और बाद में अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचता है।
नॉन-बैंकिंग फाइनैंस कंपनियों की नजर में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ऐसी बेरहम संस्था है जो लाखों परिवारों को आजीविका मुहैया कराने की अपनी भूमिका समझने में नाकामयाब रहती है। नॉन-बैंकिंग फाइनैंस कंपनियां अयोग्य लोगों को कर्ज देते हैं जिसके फंसने का डर रहता है। इसीलिए, उन्हें लगता है कि उनके साथ थोड़ा नरम व्यवहार हो। वे बैंकों के लिए बनाए गए नियमों को अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते, लेकिन आरबीआई से अपेक्षा रखते हैं कि वह उन्हें प्राथमिकता से पूंजी मुहैया कराए।
अगर सरकारें इनसभी की मांगें पूरी करने के लिहाज से नीतियां बनाने लगे तो टिकाऊ लाभ के लिए समान अवसर की उपलब्धता की जगह घोर पूंजीवादी राज कायम हो जाएगा।
मोदी सरकार के तीन बड़े सुधार
ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी में सुधार की जो परिभाषा दी गई है, उसके मुताबिक ‘सुधार के मकसद से (किसी में, खासकर किसी संस्थान या रीति-रिवाज) में बदलाव करना।’ इस परिभाषा के मद्देनजर मोदी सरकार के तीन सांस्थानिक बदलाव दिमाग में आते हैं…
1. मौद्रिक नीति की
स्वतंत्रता: मोदी सरकार ने मौद्रिक नीति समिति (मॉनेटरी पॉलिसी कमिटी) का निर्माण किया जो नीतिगत ब्याज दरें तय करती है। समिति का फैसला आरबीआई गवर्नर के दबाव से भी मुक्त होता है। ध्यान रहे कि गवर्नर की नियुक्ति केंद्र सरकार ही करती है।
2. दिवालिया कानून: दशकों तक
कर्जदाता (बैंक, गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थान), कर्जदारों के रहम पर निर्भर थे। लेकिन, अब अगर कर्ज नहीं चुकाया गया तो कर्ज देने वाले उनकी संपत्ति जब्त कर सकते हैं। जो बैंकर पहले खुद की मजबूती के लिए सरकार से नीतिगत समर्थन नहीं मिलने की शिकायत करते थे, वे भी अब इस व्यवस्था का इस्तेमाल दिल से नहीं कर रहे हैं। इसका यही संकेत है कि उनके बिजनस करने का तरीका बदल रहा है।
3. वस्तु एवं सेवा कर
(जीएसटी): यह ऐसा काम था जिसे अरुण जेटली जैसे चतुर व्यक्ति ही अंजाम दे सकते थे। उन्होंने टैक्सेशन अधिकार जीएसटी काउंसिल को सौंपकर खुद ही वित्त मंत्री की शक्ति सीमित कर ली।
★ देर से मिलता है सांगठनिक बदलावों की लाभ
सांगठनिक बदलावों का असर रातोंरात तो नहीं दिख सकता है। इन बदलावों को व्यवस्था का अंग बनने और उनका लाभ मिलने में वर्षों बीत जाते हैं। इसीलिए, प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने 1991 में देश की अर्थव्यवस्था को उदार बनाया जिसका फल अब मिल रहा है। हालांकि, तब उनके लाए आर्थिक उदारवाद पर स्थानीय उद्योगों ने यह कहकर आपत्ति जताई कि वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के सामने टिक नहीं सकेंगे और घरेलू उद्योग चौपट हो जाएगा।