आईपीएल के पहले हफ्ते में ही कुछ बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिले। रोमांचक मैच भी हुए। लेकिन दो विवाद इन सब पर भारी पड़ गए। ऐसे विवाद, जिन्होंने क्रिकेट फैन्स से लेकर गवर्निंग बॉडी तक को डिबेट करने पर मजबूर कर दिया। पहला विवाद- रविचंद्रन अश्विन के जोस बटलर को मांकड़िंग करने से शुरू हुआ। सवाल उठा कि क्या अश्विन, जो टीम के कप्तान भी हैं, को खेल भावना के विपरीत जाकर ऐसा करना चाहिए था?
दूसरा विवाद तब उठा, जब रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) बनाम मुंबई इंडियंस के मैच में अंपायर ने मैच की आखिरी गेंद को नो बॉल करार नहीं दिया। जबकि गेंदबाज लसिथ मलिंगा का पैर लाइन से काफी आगे था। अंपायर इसे देख ही नहीं पाए। आरसीबी को उस आखिरी गेंद पर 7 रन बनाने थे। नो बॉल बड़ा अंतर पैदा कर सकती थी।
यहां ये समझना जरूरी है कि इस तरह के विवाद पैदा क्यों होते हैं? अश्विन-बटलर प्रकरण का उदाहरण लेते हैं। यहां मांकडिंग करना इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) के नियमों के मुताबिक तो सही ही था, लेकिन इसे खेल भावना के विपरीत माना जाता है। जब नियम और खेल भावना के बीच ऐसा पेंच फंसता है, तभी समस्या पैदा होती है। नियम कहता है कि नॉन-स्ट्राइकर एंड का बल्लेबाज भी अगर क्रीज छोड़ता है, तो उसे रनआउट किया जा सकता है। खेल भावना कहती है कि इस तरह से आउट करने से पहले एक चेतावनी तो देनी ही चाहिए।
नॉन-स्ट्राइकर एंड के बल्लेबाजों का लगातार क्रीज छोड़ने का रवैया देखते हुए एमसीसी ने 2017 में नियमों में कुछ संशोधन किया था। पहले नियम था कि गेंदबाज गेंद छोड़ने की पोजिशन में आने से पहले ही बल्लेबाज को रनआउट कर सकता है। संशोधन के बाद तय हुआ कि गेंदबाज गेंद छोड़ने तक किसी भी वक्त पर नॉन-स्ट्राइकर बल्लेबाज को रनआउट कर सकता है।
अब सवाल ये है कि ऐसी स्थिति बनने पर खिलाड़ी नियमों को चुने या खेल भावना को? मेरे ख्याल से खेल भावना को चुनना तो एक बार को खिलाड़ी का ऐच्छिक फैसला हो सकता है। लेकिन नियमों में तो कोई कोताही बरत ही नहीं सकते। इस लिहाज से नियम, खेल भावना से ऊपर हुए। वहीं, नो बॉल विवाद पर सभी लोगों की राय यही है कि अंपायर को अगर जरा सा भी संदेह था तो उन्होंने टीवी अंपायर से मदद क्यों नहीं मांगी?
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