सोनभद्र(सर्वेश श्रीवास्तव)- भारतीय संस्कृति के उपासक, सरल, सहज और सहयोगी विचारधारा के पोषक एक ऐसे व्यक्ति की चर्चा हम करने जा रहे हैं जिसे प्रायः सभी लोग ‘गुरुजी’ के नाम से ही पुकारा करते थे। जी हां, वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि अविभाजित मिर्जापुर जनपद के रॉबर्ट्सगंज तहसील मुख्यालय स्थित लोक निर्माण विभाग में बड़े बाबू के पद पर कार्यरत पंडित महिम्न शरण मिश्र थे जिन्हें लोग ‘गुरुजी’के नाम से स -सम्मान पुकारा करते थे।
उनके व्यक्तित्व कृतित्व से बेहद प्रभावित समाजवादी चिंतक एवं मधुरिमा साहित्य गोष्ठी के निदेशक अजय शेखर जी कहते हैं कि ‘गुरुजी’अपने समय के अकेले ऐसे निश्चल और विराट हृदय के व्यक्ति थे की जो कोई भी उनसे एक बार मिलता वह उनके आचार, विचार और व्यवहार से उनका हो जाता था। वही नगर के सुविख्यात चिकित्सक एवं समाजसेवी डॉ केएन उपाध्याय ने कहा कि ‘गुरुजी’ का सही नाम बहुत कम लोग जानते थे क्योंकि उनके सरल और मृदुभाषी स्वभाव के कारण कोइ भी नाम पूछने की हिमाकत नहीं कर पाता था। डॉ उपाध्याय ने यह भी कहा कि उनके पास जो भी जिस कार्य के लिए गया उसकी सहायता वे जरूर करते थे चाहे इसके लिए उन्हें थोड़ा अनुशासन ही क्यों ना तोड़ना पड़ा हो। इसी कड़ी में गुरु जी के जेष्ठ पुत्र इंजीनियर अनिल कुमार मिश्र की माने तो सन 1983 की बात है एक दिन रात में 11 बजे एक व्यक्ति कुछ काम के लिए आया और उन्होंने उस व्यक्ति की बिना देर किए सहायता कर दी, जिस पर पुत्र होने के नाते उन्होंने आपत्ति जताई, इस पर उन्होंने कहा कि ”बेटा किसी के काम आने का अवसर हमेशा नहीं मिलता, यदि तुम्हें भी भविष्य में इस तरह का अवसर मिले तो चूकना नहीं तत्क्षण उसकी सहायता करना हो सकता है तुम्हारे देर करने से उसका काम खत्म हो जाए”। ‘गुरुजी’ वास्तव में गुरुजी थे। लोक निर्माण विभाग से डेपुटेशन पर कुछ दिनों के लिए उत्तर प्रदेश राज्य सीमेंट निगम की डाला और चुनार की यूनिटों में भी उन्हें कार्य करने का अवसर मिला जहां उनके कार्य संस्कृति से प्रभावित होकर जेपी वर्मा, चंद्रकांत द्विवेदी, मिथिलेश द्विवेदी, सुरेंद्र मिश्र, दिवाकर द्विवेदी, राजबली कुअँर, सकल नारायण पांडेय, केके पांडेय ,सीडी सिंह आदि कर्मचारी उनकी आज भी प्रशंसा करते नहीं थक रहे हैं। गुरु जी की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों में भी काफी दिलचस्पी रहा करती थी और वह श्रीमद्भभागवतगीता व श्रीरामचरितमानस के नियमित पाठक थे। अपने कार्य को ही पूजा समझ कर पूरे सेवाकाल में अनुशासित कर्मचारी के रूप में सेवारत रहने वाले महिम्न शरण मिश्र ‘गुरुजी’ अपने नाम के मोहताज नहीं थे उन्हें हर कोई आदर और सम्मान के साथ आज भी याद करता है और उनके कृतित्व व्यक्तित्व को अपने अंदर आत्मसात करने का हर संभव प्रयास करता है। ऐसे सरल, मृदुभाषी एवं सहयोगी विचारधारा के व्यक्तित्व को बारंबार शत शत नमन है।