जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से संन्त सूरदास जी ने क्यों किया अपनी आँखों का त्याग……..

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से संन्त सूरदास जी ने क्यों किया अपनी आँखों का त्याग……..


आपका जन्म से असली नाम मदन मोहन था जन्म से सूरदास अन्धे नहीं थे।

जवानी तक आपकी आंखें ठीक रहीं तथा विद्या ग्रहण की। विद्या के साथ-साथ राग सीखा।

हे भक्त जनो! जब किसी पुरुष के पास गुण तथा ज्ञान आ जाए, फिर उसको किसी बात की कमी नहीं रहती। गुण भी तो प्रभु की एक देन है, जिस पर प्रभु दयाल हुए उसी को ही ऐसी मेहर वरदान होती है।

मदन मोहन कविताएं गाकर सुनाता तो लोग प्रेम से सुनते तथा उसको धन, वस्त्र तथा उत्तम वस्तुएं भी दे देते। इस तरह मदन मोहन की चर्चा तथा यश होने लगा, दिन बीतते गए। मदन मोहन कवि के नाम से पहचाना जाने लगा।

सूरदास बनना

मदन मोहन एक सुंदर नवयुवक था तथा हर रोज़ सरोवर के किनारे जा बैठता तथा गीत लिखता रहता एक दिन ऐसा कौतुक हुआ, जिस ने उसके मन को मोह लिया।

वह कौतुक यह था कि सरोवर के किनारे, एक सुन्दर नवयुवती, गुलाब की पत्तियों जैसा उसका तन था। पतली धोती बांध कर वह सरोवर पर कपड़े धो रही थी। उस समय मदन मोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया, जैसे कि आंखों का कर्म होता है, सुन्दर वस्तुओं को देखना। सुन्दरता हरेक को आकर्षित करती है।

उस सुन्दर युवती की सुन्दरता ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया कि वह कविता लिखने से रुक गया तथा मनोवृति एकाग्र करके उसकी तरफ देखने लगा।

उसको इस तरह लगता था जैसे यमुना किनारे राधिका स्नान करके बैठी हुई वस्त्र साफ करने के बहाने मोहन मुरली वाले का इंतजार कर रही थी, वह देखता गया।

उस भाग्यशाली रूपवती ने भी मदन मोहन की तरफ देखा। कुछ लज्जा की, पर उठी तथा निकट हो कर कहने लगी – ‘आप मदन मोहन हैं?

हां, मैं मदन मोहन कवि हूं गीत लिखता हूं,
गीत गाता हूं।

यहां गीत लिखने आया था तो आप की तरफदेखा
‘क्यों?’

‘क्योंकि आपका सूप सुन्दर लगा आप!’

‘सुन्दर, बहुत सुन्दर-राधा प्रतीत हो रही हो यमुना किनारे-मान सरोवर किनारे अप्सरा-जो जीवन दे मेरी आंखों की तरफ देख सकोगे।

‘हां, देख रही हूं ‘क्या दिखाई दे रहा है’

‘मुझे अपना चेहरा आपकी आंखों में दिखाई दे रहा है। मदन मोहन ने कहा, कल भी आओगी?’ ‘आ जाउंगी! जरूर आ जाउंगी! ऐसा कह कर वह पीछे मुड़ी तथा सरोवर में स्नान करके घर को चली गई।
अगले दिन वह फिर आई। मदन मोहन ने उसके सौंदर्य पर कविता लिखी, गाई तथा सुनाई। वह भी प्यार करने लग पड़ी। प्यार का सिलसिला इतना बढ़ा कि बदनामी का कारण बन गया। मदन मोहन का पिता नाराज हुआ तो वह घर से निकल गया और बाहर मंदिर में आया, फिर भी मन संतुष्ट न हुआ। वह चलता-चलता मथुरा आ गया। वृंदावन में इस तरह घूमता रहा। मन में बेचैनी रही। वह नारी सौंदर्य को न भूला एक दिन वह मंदिर में गया। मंदिर में वही सुन्दर स्त्री जो शादीशुदा थी उसके चेहरे की पद्मनी सूरत देख कर मदन मोहन का मन मोहित हो गया। वह मंदिर में से निकल कर घर को गई तो मदन मोहन भी उसके पीछे-पीछे चल दिया।
वह चलते-चलते-चलते उसके घर के आगे जा खड़ा हुआ। जब वह घर के अंदर गई तो मदन मोहन ने घर का दरवाज़ा खट-खटाया। उसका पति बाहर आया उसने मदन मोहन को देखा और उसकी संतों वाली सूरत पर वह बोला बताओ महात्मा जी?

*मदन मोहन अभी जो आई है वह आप की भी कुछ लगती होगी पति-‘हां, महात्मा जी!

हुक्म करो क्या बात हुई? मदन मोहन-‘हुआ कुछ नहीं बात यह है कि मैं विनती करना चाहता हूं पति-‘आओ! अंदर आओ बैठो,सेवा बताओ, जो कहोगे किया जाएगा सब आप महात्मा पुरुषों की तो माया है। मदन मोहन घर के अंदर चला गया।
अंदर जा कर बैठा तो उसकी पत्नी को बुलाया।

वह आ कर बैठ गई तो मदन मोहन ने कहा-हे भक्त जनो! दो सिलाईयां गर्म करके ले आओ भगवान आप का भला करेगा वे दम्पति समझ न सके कि
किया मामला है। स्त्री सलाईयां गर्म करके ले आई।
मदन मोहन ने सलाईयां पकड़ ली तथा मन को कहता गया देख लो जी भर कर देख लो फिर नहीं देखना यह कह कर सलाईयों को आंखों में चुभो लिया तथा सूरदास बन गया वह स्त्री-पुरुष स्तब्ध तथा दुखी हुए उन्होंने महीना भर मदन मोहन को घर रख कर सेवा की आंखों के जख्म ठीक किये तथा फिर सूरदास बन कर मदन मोहन वहां से चल पड़ा।

बादशाही कोप

सूरदास गीत गाने लगा वह इतना विख्यात हो गया कि दिल्ली के बादशाह के पास भी उसकी शोभा जा पहुंची।

अपने अहलकारों द्वारा बादशाह ने सूरदास को अपने दरबार में बुला लिया।

उसके गीत सुन कर वह इतना खुश हुआ कि सूरदास को एक कस्बे का हाकिम बना दिया,

पर ईर्ष्या करने वालों ने बादशाह के पास चुगली करके फिर उसे बुला लिया और जेल में नज़रबंद कर दिया।

सूरदास जेल में रहता था उसने जब जेल के दरोगा से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है?

तो उसने कहा -‘तिमर’यह सुन कर सूरदास बहुत हैरान हुआ। कवि था, ख्यालों की उड़ान में सोचा,

‘तिमर…..मेरी आंखें नहीं मेरा जीवन तिमर (अन्धेर) में, बंदीखाना तिमर (अन्धेरा) तथा रक्षक भी तिमर (अन्धेर)!’

उसने एक गीत की रचना की तथा उस गीत को बार-बार गाने लगा।

वह गीत जब बादशाह ने सुना तो खुश होकर सूरदास को आज़ाद कर दिया

तथा सूरदास दिल्ली जेल में से निकल कर मथुरा की तरफ चला गया।

रास्ते में कुआं था, उसमें गिरा, पर बच गया तथा मथुरा-वृंदावन पहुंच गया। वहां भगवान कृष्ण का यश गाने लगा।

सूर-सागर की रचना सूरदास भगवान श्री कृष्ण जी की नगरी में पहुंचा। अनुभवी प्रकाश से उसकी आंखों के आगे श्री कृष्ण लीला आई।

उसने स्वामी ‘वल्लभाचार्य’ जी को गुरु माना तथा कहना मान कर ‘गऊ घाट’ बैठ कर ‘श्री मद् भागवत’ को भाषा कविता में उच्चारण करना शुरू किया एक आदमी लिखने के लिए रखा।

सूरदास बोलते जाते तथा लिखने वाला लिखते रहा

सूरदास जी ने 75000 चरण लिखे थे कि आप का देहांत हो गया ‘सूर-सागर’ आप की एक अटल स्मृति है। आपकी बाणी का एक शब्द है –

हरि के संग बसे हरि लोक||
तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक||१|| रहाउ ||
दरसनु पेखिभए निरबिखई पाए है सगले थोक||
आन बसतु सिउ काजुन कछुऐ सुंदर बदन अलोक ||१||
सिआम सुंदर तजि आन जुचाहत जिउ कुसटी तनि जोक ||
सूरदास मनु प्रभि हथि लीनोदीनो इहु परलोक ||२||

परमार्थ-परमात्मा के भक्त परमात्मा के साथ ही रहते हैं।

उन्होंने तो अपना सब कुछ हरि को अर्पण कर दिया है।

वह सदा सहज प्यार तथा खुशी को अनुभव करते रहते हैं। भगवान के दर्शनों ने उनको ऐसा संयम वाला बना दिया है कि उन्होंने इन्द्रियों पर काबू पा लिया है।

जिसका फल यह हुआ कि भगवान ने उनको सब पदार्थ दिए हैं।

जब प्रभु का खिलता मुख देखते हैं,

तो किसी के दीदार की आवश्यकता नहीं रहती|
परमात्मा को छोड़ कर जो लोग अन्य तरफ घूमते हैं, वे अपने तन-मन को नष्ट करते हैं।

सूरदास जी कहते हैं, मैं तो उनका हूं,
वह मेरे हैं भक्त प्रभु के हैं।

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