जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से रोग……
रोग कारक ग्रह जब गोचर में जन्मकालीन स्थिति में आते हैं और अंतर-प्रत्यंतर दशा में इनका समय चलता है तो उसी समय रोग उत्पन्न होता है। यदि षष्ठेश, अष्टमेश एवं द्वादशेश तथा रोग कारक ग्रह अशुभ तारा नक्षत्रों में स्थित होते हैं तो रोग की चिकित्सा निष्फल रहती है। यदि षष्ठेश चर राशि में तथा चर नवांश में स्थित होते हैं तो रोग की अवधि छोटी होती है। द्विस्वभाव में स्थित होने पर सामान्य अवधि होती है। स्थिर राशि में होने पर रोग दीर्घकालीन होते हैं। आइए रोगों के ग्रहों के ज्योतिषीय उपचारों पर एक दृष्टि डालें। सूर्य नेत्र भाव में सूर्य, चंद्र या शुक्र अकेले या युत हो तो नेत्र विकार उत्पन्न करता है। शुक्र की युति चंद्र या सूर्य के साथ हो तो वह स्थायी नेत्र विकार उत्पन्न करता है जैसे- वर्णांधता, निशांधता। सूर्य और शनि की युति समलबाई, सूर्य और राहु की युति आंखों में अल्सर उत्पन्न करती है। शुक्र और चंद्रमा की युति से मोतियाबिंद होता है। सूर्य या चंद्र के साथ नीच या वक्री मंगल नेत्र भाव में स्थित होने पर नेत्र की हानि करता है। दाहिने और बायें नेत्र में रोगकारक शुक्र की स्थिति यदि चंद्रमा से दृष्ट है तो मायोपिया नामक रोग होता है। उपचार: Û हृदय रोग से रक्षा हेतु सूर्य और चंद्र को अघ्र्य दें एवं आदित्य स्तोत्र का पाठ 40 दिन तक करें। Û नेत्र रोग से बचाव हेतु सूर्य और चंद्र को अघ्र्य दें एवं चाक्षुषी विद्या का पाठ 40 दिन तक करें। नोट: सूर्याघ्र्य सामग्री – तांबे का लोटा, रोली, लाल फूल एवं दूर्वा। चंद्राघ्र्य सामग्री – चांदी का बर्तन, सफेद फूल एवं चावल। सूर्य से संबंधित सभी रोगों के निवारण हेतु तुलादान – शरीर के भार के बराबर गेहूं तौलकर रविवार को दिन के 12 बजे ब्राह्मण को दान करें। चंद्रमा चंद्रमा से शीत प्रकोप, स्नोफीलिया आदि हो सकते हैं। चंद्र और बुध की युति षष्ठ या द्वितीय भाव में होने पर नजला या नासूर तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता में विकार उत्पन्न हो जाता है। यदि चंद्र छठे, सातवें और आठवें भाव में षष्ठेश से दृष्ट हो तो प्रमेह, मधुमेह, अतिमूत्र आदि रोग उत्पन्न होते हैं। उपाय: चंद्राघ्र्य, रजतदान स्नोफीलिया, खांसी में एवं शर्करा कुंभ दान शुगर में करें। बहुमूत्र में एक लीटर (मौसम के अनुसार ठंडा या गर्म) जल पांच मिनट तक अनवरत धारा में प्यूबिक ग्लैंड और जननांग के मध्य स्थान में गिराएं। इससे शुक्र पर नियंत्रण तथा अनेक प्रकार के जननांगीय रोग जैसे ल्यूकोरिया, यूरीनरी ट्रैक इनफेक्शन (यू. टी. आइ.) दूर होंगे। (यह प्रयोग स्नान के पूर्व करें।) मंगल उच्च का मंगल छठे, आठवें और बारहवें भावों में उच्च रक्तचाप उत्पन्न करता है। नीच, अस्त एवं शत्रुक्षेत्री मंगल निम्न रक्तचाप उत्पन्न करता है। मंगल राहु की युति छठे भाव में होने पर लाल कुष्ठ रोग तथा चंद्र राहु की युति छठे भाव में होने पर श्वेत कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है। केतु की षष्ठेश से युत होकर छठे भाव में स्थिति या छठे भाव पर उसकी दृष्टि हो तो अपरस और एक्जिमा रोग उत्पन्न होते हैं। यदि चतुर्थ भाव के प्रथम दे्रष्काण पर दृष्टि हो तो दहेड़ी रोग होता है। उपाय: 1. भोजन का प्रथम ग्रास श्वान बलि के लिए निकालें। 2. चंद्र, राहु की युति मंगल से होने पर श्वान को दूध पिलाएं। 3. कुष्ठ रोग होने पर खैर की लकड़ी से 40 दिन तक समिधा हवन करें। लटजीरा एवं तुलसी की पत्तियां बराबर मात्रा में गंगाजल में पीस कर पलाश के पत्ते पर रखें और पीड़ित स्थान पर लेप करें। 4. हीमोग्लोबिन में उतार चढ़ाव, एनीमिया से रक्षा के लिए मंगलवार को प्रातः लाल कपड़ा ओढ़कर बहते जल (नदी) में मसूर की दाल प्रवाहित करें। बुध बुध मुख्य रूप से माइग्रेन रोग देता है। बुध यदि द्वादश भाव या लग्न में सूर्य से युति करे या सूर्य से दृष्टि संबंध बनाए तो मुख्य रूप से तीव्र माइग्रेन होता है। उपाय: कांसे के पात्र में घी भर कर उसके ऊपर साबुत मूंग की दाल ढक कर बुधवार को सिर के चारों ओर छः बार घुमाकर ब्राह्मण को दान दें। माइग्रेन एवं आंतों के रोग में प्रत्येक बुधवार को जल में गंगाजल मिला लें और उसमें कुशा डालकर ‘ओम बुधाय नमः’ का 108 बार जप करें। जप करते समय कुशा को हाथ से पकड़े रहें। जप के बाद उसी जल को पी लें। इससे माइग्रेन, तनाव, अनिद्रा, बेचैनी, घबराहट तथा मृत्यु भय दूर होते हंै। गुरु गुरु से शरीर का भार, गुर्दे, पित्त तथा पिंडलियां और दोनों कान नियंत्रित होते हैं। यदि बृहस्पति और शनि परस्पर छठे और आठवें भावों में स्थित हों तो शरीर का भार अधिक बढ़ जाता है और शारीरिक स्फूर्ति क्षीण हो जाती है। गुरु तीसरे और एकादश भाव में स्थित होकर कान के रोग उत्पन्न करता है। राहु के अतिरिक्त अन्य ग्रहों से युति होने पर यह दोष नहीं होगा। चतुर्थेश और दशमेश का स्थान परिवर्तन, चतुर्थ या दशम भाव में गुरु की स्थिति अथवा सप्तम के प्रथम तथा अंतिम द्रेष्काण में गुरु की स्थिति गुर्दे के रोग उत्पन्न करती है। लग्न में सूर्य तथा द्वादश में गुरु पीलिया रोग देेते हैं। उपाय: हल्दी की माला पर ‘¬ बृहस्पतये नमः’’ का एक माला जप नित्य प्रातः काल करें। Û वाणी दोष में ग्रीष्म ऋतु में दूध में हल्दी मिलाकर तथा शीत ऋतु में केसर मिलाकर ‘‘ओम् चंद्राय नमः, ओम् बृहस्पतये नमः’’ मंत्र का जप करके पान करें। मूक दोष और किडनी दोष से बचाव के लिये हल्दी की गांठ और स्वर्ण पीले धागे में बांध कर गंगाजल मिले जल में डुबोते हुए छः बार ‘¬ बृहस्पतये नमः’ का जप करके वह जल पी लें। ऐसा 41 दिन तक करें। रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने पर (चंद्र एवं गुरु की स्थिति अरिष्ट होने पर) हल्दी की गांठ पीले कपड़े में इस प्रकार बांधें कि हल्दी का स्पर्श शरीर में होता रहे और ‘¬ बृहस्पतये नमः’ मंत्र से धूप दीप आदि से पूजन करके गुरुवार को प्रातः काल दाहिनी भुजा में बांध लें। (प्रत्येक 27 दिन में इसे बदलते रहें)। शुक्र द्वितीय और द्वादश स्थान में शुक्र चंद्र या सूर्य के साथ युति करने पर नेत्र दोष उत्पन्न करता है। राहु के अतिरिक्त अन्य ग्रहों से युति होने पर भी दोष बना रहता है। छठे, सातवें और आठवें भावों में शुक्र की स्थिति या उन पर दृष्टि होने पर शर्करा रोग और गुप्त रोग उत्पन्न होते हैं। चंद्रमा और शुक्र की युति इन्हीं भावों में हो तो रोग की गंभीरता बढ़ जाती है। शुक्र और गुरु की युति से यह दोष भंग हो जाता है तथा यह शर्करा रोग और नेत्र रोग में परिवर्तित हो जाता है। उपाय: यौन रोग के लिए शुक्र का समिधा हवन रात्रि में गूलर की लकड़ी से करें। शुगर के लिये शर्करा कुंभ दान करें। शनि: द्वितीय स्थान में शनि दंत रोग, चतुर्थ स्थान में वायु रोग (गैस्टिक, एसीडिटी) छठे, सातवें, आठवें भावों में घुटनों एवं पिंडलियों में दर्द और दसवें स्थान में तीव्र वायु रोग (उच्च गैस्टिक) उत्पन्न करता है। उपाय: शनिवार की रात्रि में छाया दान 19 शनिवार तक करें। जोड़ों में दर्द से बचाव के लिए शनि की लकड़ी काले कपड़े में बांध कर ‘¬ शनैश्चराय नमः मंत्र से पूजन करके दाहिनी भुजा में बांधें। राहु राहु एवं बुध बड़ी तथा छोटी आंत तथा शरीर में बनने वाले सभी हार्मोन नियंत्रित करते हैं। शरीर के नख तथा बाल रोग राहु के के द्वारा नियंत्रित होते हैं और इनका पोषण बुध के द्वारा होता है। राहु और बुध की अरिष्ट स्थिति (लाभेश से चैथे, छठे, आठवें और बारहवें) से नख तथा बालों के रोग होते हैं। इस दोष में दही का प्रयोग उत्तम रहता है। चैथे, पांचवें या छठे स्थान में राहु हो तो उदर रोग (आंत्रशोथ, यकृत वृद्धि, बवासीर) होते हैं और इन्हीं स्थानों पर केतु की स्थिति से अल्सर उत्पन्न होता है। सप्तम में राहु और शुक्र की युति से शीघ्रपतन की बीमारी होती है। चतुर्थ में क्रूर ग्रह के साथ राहु की युति भी शीघ्रपतन रोग देती है।