जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से वरदविनायक (अंगारकी) तिलचतुर्थी महात्म्य, विधि एवं कथा…
प्रत्येक चंद्र माह में दो चतीर्थीयां पड़ती हैं। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार चतुर्थी भगवान गणेश की तिथि है। शुक्ल पक्ष के दौरान अमावस्या या अमावस्या के बाद की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी के रूप में जाना जाता है और कृष्ण पक्ष के दौरान पूर्णिमा या पूर्णिमा के बाद पड़ने वाले चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी के रूप में जाना जाता है। इस वर्ष विनायक अंगारकी चतुर्थी 28 जनवरी मंगलवार के दिन पड़ रही है।
भगवान श्री गणेश जी को चतुर्थी तिथि का अधिष्ठाता माना जाता है तथा ज्योतिष शात्र के अनुसार इसी दिन भगवान गणेश जी का अवतरण हुआ था इसी कारण चतुर्थी भगवान गणेश जी को अत्यंत प्रिय रही है. इस वर्ष अंगारकी संकष्टी चतुर्थी व्रत कृष्णपक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को भगवान गणेश जी की पूजा का विशेष नियम बताया गया है. विघ्नहर्ता भगवान गणेश समस्त संकटों का हरण करने वाले होते हैं. इनकी पूजा और व्रत करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
गणेश तिल चतुर्थी का व्रत भारतीय पञ्चाङ्ग के अनुसार माघ मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रखा जाता है. इस दिन तिल दान करने का अधिक महत्व होता है. इस दिन गणेश भगवान को तिल के लड्डुओं का भोग लगाया जाता है. भगवान गणेश का स्थान सभी देवी-देवताओं में सर्वोपरि है. गणेश जी को सभी संकटों को दूर करने वाला तथा विघ्नहर्ता माना जाता है. जो भगवान गणेश की पूजा-अर्चना नियमित रूप से करते हैं उनके घर में सुख व समृद्धि बढ़ती है.
गणेश तिल चतुर्थी व्रत विधि
सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. उसके उपरान्त एक स्वच्छ आसन पर बैठकर भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए. पूजा के दौरान भगवान गणेश की धूप-दीप आदि से आराधना करनी चाहिए. विधिवत तरीके से भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए. फल,फूल, अक्षत, रौली,मौली, पंचामृत से स्नान आदि कराने के पश्चात भगवान गणेश को तिल से बनी वस्तुओं या तिल तथा गुड़ से बने लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए.
इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को लाल वस्त्र धारण करने चाहिए. पूजा करते समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए. विधिवत तरीके से भगवान गणेश की पूजा करने के बाद उसी समय गणेश जी के मंत्र
“उँ गणेशाय नम:”
का 1008 बार जाप करना चाहिए. इसी के साथ गणेश गायत्री मंत्र –
एकदंताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
गजाननाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
का जाप करते हुए पूजन करना चाहिए। संध्या समय में कथा सुनने के पश्चात गणेश जी की आरती करनी चाहिए. इससे आपको मानसिक शान्ति मिलने के साथ आपके घर-परिवार के सुख व समृद्धि में वृद्धि होगी.
गणेश तिल चतुर्थी व्रत दान
इस दिन जो व्यक्ति भगवान गणेश का तिल चतुर्थी का व्रत रखते हैं और जो व्यक्ति व्रत नहीं रखते हैं वह सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार गरीब लोगों को दान कर सकते हैं. इस दिन गरीब लोगों को गर्म वस्त्र, कम्बल, कपडे़ आदि दान कर सकते हैं. भगवान गणेश को तिल तथा गुड़ के लड्डुओं का भोग लगाने के बाद प्रसाद को गरीब लोगों में बांटना चाहिए. लड्डुओं के अतिरिक्त अन्य खाद्य वस्तुओं को भी गरीब लोगों में बांटा जा सकता है।
इस दिन दान का भी विशेष महत्व धर्म ग्रंथों में दिया गया है जिसके अनुसार जो व्यक्ति व्रत के साथ-साथ दान भी करता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती है. माघ मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रखा जाने वाला व्रत गणेश तिल चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इस दिन संध्या समय में गणेश चतुर्थी की व्रत कथा को सुना जाता है कथा अनुसार भगवान शिव ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चन्द्रमा को अर्ध्य देगा उसके तीनों ताप – दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर होगें. व्यक्ति को सभी प्रकार के दु:खों से मुक्ति मिलेगी व सभी प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी.
अंगारक चतुर्थी’ महात्म्य कथा
‘अंगारक चतुर्थी’ की महात्म्य कथा गणेश पुराण के उपासना खंड के 60वें अध्याय में वर्णित है। वह कथा अत्यंत संक्षेप में इस प्रकार है।
पृथ्वीदेवी ने महामुनि भरद्वाज के जपापुष्प तुल्य अरुण पुत्र का पालन किया। 7 वर्ष के बाद उन्होंने उसे महर्षि के पास पहुंचा दिया। महर्षि ने अत्यंत प्रसन्न होकर अपने पुत्र का आलिंगन किया और उसका सविधि उपनयन कराकर उसे वेद-शास्त्रादि का अध्ययन कराया। फिर उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को गणपति मंत्र देकर उसे गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए आराधना करने की आज्ञा दी।
मुनि पुत्र ने अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया और फिर पुण्यसलिला गंगा जी के तट पर जाकर वह परम प्रभु श्री गणेश जी का ध्यान करते हुए भक्तिपूर्वक उनके मंत्र का जप करने लगा। वह बालक निराहार रहकर एक सहस्र वर्ष तक गणेश जी के ध्यान के साथ उनका मंत्र जपता रहा।
माघ कृष्ण चतुर्थी को चंद्ररोदय होने पर दिव्य वस्त्रधारी अष्टभुज चंद्ररभाल प्रसन्न होकर प्रकट हुए। उन्होंने अनेक शस्त्र धारण कर रखे थे। वे विविध अलंकारों से विभूषित अनेक सूर्यों से भी अधिक दीप्तिमान थे। भगवान गणेश के मंगलमय अद्भुत स्वरूप का दर्शन कर तपस्वी मुनि पुत्र ने प्रेम गद्गद कंठ से उनका स्तवन किया।
वरद प्रभु बोले- ‘मुनिकुमार! मैं तुम्हारे धैर्यपूर्ण कठोर तप एवं स्तवन से पूर्ण प्रसन्न हूं। तुम इच्छित वर मांगो। मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।’
प्रसन्न पृथ्वीपुत्र ने अत्यंत विनयपूर्वक निवेदन किया- ‘प्रभो! आज आपके दुर्लभ दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया। मेरी माता पर्वतमालिनी पृथ्वी, मेरे पिता, मेरा तप, मेरे नेत्र, मेरी वाणी, मेरा जीवन और जन्म सभी सफल हुए। दयामय! मैं स्वर्ग में निवास कर देवताओं के साथ अमृतपान करना चाहता हूं। मेरा नाम तीनों लोकों में कल्याण करने वाला ‘मंगल’ प्रख्यात हो।’
पृथ्वीनंदन ने आगे कहा- ‘करुणामूर्ति प्रभो! मुझे आपका भुवनपावन दर्शन आज माघ कृष्ण चतुर्थी को हुआ है अतएव यह चतुर्थी नित्य पुण्य देने वाली एवं संकटहारिणी हो। सुरेश्वर! इस दिन जो भी व्रत करे, आपकी कृपा से उसकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाया करें।’
सद्य:सिद्धिप्रदाता देव-देव गजमुख ने वर प्रदान कर दिया- ‘मेदिनीनंदन! तुम देवताओं के साथ सुधापान करोगे। तुम्हारा ‘मंगल’ नाम सर्वत्र विख्यात होगा। तुम धरणी के पुत्र हो और तुम्हारा रंग लाल है, अत: तुम्हारा एक नाम ‘अंगारक’ भी प्रसिद्ध होगा और यह तिथि ‘अंगारक चतुर्थी’ के नाम से प्रख्यात होगी। पृथ्वी पर जो मनुष्य इस दिन मेरा व्रत करेंगे, उन्हें एक वर्षपर्यंत चतुर्थी व्रत करने का फल प्राप्त होगा। निश्चय ही उनके किसी कार्य में कभी विघ्न उपस्थित नहीं होगा।’
परम प्रभु गणेश ने मंगल को वर देते हुए आगे कहा- ‘तुमने सर्वोत्तम व्रत किया है, इस कारण तुम अवंती नगर में परंतप नामक नरपाल होकर सुख प्राप्त करोगे। इस व्रत की अद्भुत महिमा है। इसके कीर्तन मात्र से मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति होगी।’ ऐसा कहकर गजमुख अंतर्ध्यान हो गए।
मंगल ने एक भव्य मंदिर बनवाकर उसमें दशभुज गणेश की प्रतिमा स्थापित कराई। उसका नामकरण किया ‘मंगलमूर्ति’। वह श्री गणेश विग्रह समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला, अनुष्ठान, पूजन और दर्शन करने से सबके लिए मोक्षप्रद होगा।
पृथ्वी पुत्र ने मंगलवारी चतुर्थी के दिन व्रत करके श्री गणेश जी की आराधना की। उसका एक अत्यंत आश्चर्यजनक फल यह हुआ कि वे सशरीर स्वर्ग चले गए। उन्होंने सुर समुदाय के साथ अमृतपान किया और वह परम पावनी तिथि ‘अंगारक चतुर्थी’ के नाम से प्रख्यात हुई। यह पुत्र-पौत्रादि एवं समृद्धि प्रदान कर समस्त कामनाओं को पूर्ण करती है।
परम कारुणिक गणेश जी को अंतरहृदय की विशुद्ध प्रीति अभीष्ट है। श्रद्धा और भक्तिपूर्वक त्रयतापनिवारक दयानिधान मोदकप्रिय सर्वेश्वर गजमुख कपित्थ, जम्बू और वन्य फलों से ही नहीं, दूर्वा के 2 दलों से भी प्रसन्न हो जाते हैं और मुदित होकर समस्त कामनाओं की पूर्ति तो करते हैं।
वरद विनायक चतुर्थी व्रत कथा
गणेश चतुर्थी के संबंध में एक कथा जग प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती के मन में ख्याल आता है कि उनका कोई पुत्र नहीं है। ऐसे में वे अपने मैल से एक बालक की मूर्ति बनाकर उसमें जीव भरती हैं। इसके बाद वे कंदरा में स्थित कुंड में स्नान करने के लिए चली जाती हैं। परंतु जाने से पहले माता बालक को आदेश देती हैं कि किसी परिस्थिति में किसी को भी कंदरा में प्रवेश न करने देना। बालक अपनी माता के आदेश का पालन करने के लिए कंदरा के द्वार पर पहरा देने लगता है। कुछ समय बीत जाने के बाद वहां भगवान शिव पहुंचते हैं। शिव जैसे ही कंदरा के भीतर जाने के लिए आगे बढ़ते हैं बालक उन्हें रोक देता है। शिव बालक को समझाने का प्रयास करते हैं लेकिन वह उनकी एक न सुना, जिससे क्रोधित हो कर भगवान शिव अपनी त्रिशूल से बालक का शीश धड़ से अलग कर देते हैं।
इस अनिष्ट घटना का आभास माता पार्वती को हो जाता है। वे स्नान कर कंदरा से बाहर आती हैं और देखती है कि उनका पुत्र धरती पर प्राण हीन पड़ा है और उसका शीश कटा है। यह दृष्य देख माता क्रोधित हो जाती हैं जिसे देख सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं। तब भगवान शिव गणों को आदेश देते हैं कि ऐसे बालक का शीश ले आओ जिसकी माता का पीठ उस बालक की ओर हो। गण एक हथनी के बालक का शीश लेकर आते हैं शिव गज के शीश को बाल के धड़ जोड़कर उसे जीवित करते हैं। इसके बाद माता पार्वती शिव से कहती हैं कि यह शीश गज का है जिसके कारण सब मेरे पुत्र का उपहास करेंगे। तब भगवान शिव बालक को वरदान देते हैं कि आज से संसार इन्हें गणपति के नाम से जानेगा। इसके साथ ही सभी देव भी उन्हें वरदान देते हैं कि कोई भी मांगलिक कार्य करने से पूर्व गणेश की पूजा करना अनिवार्य होगा। यदि ऐसा कोई नहीं करता है तो उसे उसके अनुष्ठान का फल नहीं मिलेगा।
गणेश जी की आरती
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
एकदंत, दयावन्त, चार भुजाधारी,
माथे सिन्दूर सोहे, मूस की सवारी।
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा,
लड्डुअन का भोग लगे, सन्त करें सेवा।। ..
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश, देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया,
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया।
‘सूर’ श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ..
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।
दीनन की लाज रखो, शंभु सुतकारी।
कामना को पूर्ण करो जय बलिहारी।