वेद, ज्योतिष और अन्य धर्मग्रंथों में चंद्रमा का सबसे ज्यादा उल्लेख
जीवन मंत्र डेस्क. भारतीय धर्म शास्त्रों में चन्द्रमा के विषय में जितना अधिक वर्णन मिलता है, उतना अन्यत्र किसी भी ज्ञानकोष में नहीं है। चंद्रमा के जिस दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान-2 को उतरना था, हमारे शास्त्रों ने उसे पितरों की भूमि माना है। चंद्रमा के उस छोर पर जो हमें दिखाई नहीं देता, यानी दक्षिणी ध्रुव, वहां 15 दिन अंधेरा, 15 दिन उजाला होता है। हमारा ज्योतिष विज्ञान कितना उन्नत है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान आज भी चंद्रमा पर पानी और बर्फ की खोज कर रहा है लेकिन हमारे ज्योतिष विज्ञान में चंद्रमा को जलतत्व का कारक ग्रह कहा गया है।
महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन के ज्योतिर्विज्ञान के असि. प्रो. उपेंद्र भार्गव के मुताबिक चन्द्रमा को ध्यान में रखकर हमारे धर्मशास्त्रीय विधान, जप, तप, व्रत, उपवास, दान, यात्रा, विवाह एवं उत्सव आदि का निर्णय किया जाता रहा है। चन्द्रमा हमारे सनातन धर्म में वर्णित प्रत्यक्ष देवताओं में प्रधान देवता है। प्राचीन वैदिक काल से ही प्रकृति एवं परमात्मा के प्रतीक के रूप में जिन देवताओं की पूजा की जाती है उनमें सूर्य, अग्नि, वरुण, वायु, पृथ्वी, इन्द्र एवं चन्द्रमा प्रमुख हैं। सौम्य एवं शीतल किरणें होने के कारण चन्द्रमा को सोम, शीतकर, शीतगु तथा रात्रि का स्वामी होने के कारण राकेश, निशाधिपति, निशाकर, आदि भी कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से चन्द्रमा की गति पूर्वाभिमुख है। वह कर्क राशि का स्वामी, गौर वर्ण का, वायव्य दिशा का अधिपति, शुभग्रह, सत्वगुणयुक्त, जलतत्व प्रधान, जलीय ग्रह है तथा मणि उसकी धातु कही गयी है।
क्या कहते हैं चद्रंमा के लिए वेद
चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में वेद में कहा गया है कि ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्ता ने सर्वप्रथम भूमितत्त्व को उत्पन्न किया तदनन्तर मरुद्गण (४९ प्रकार की वायु) को उत्पन्न किया इसके उपरान्त ब्रह्मा ने आदित्य(सूर्य) को उत्पन्न किया तथा सूर्य से ही चन्द्रमा की उत्पत्ति हुयी। माध्यन्दिनी संहिता में कहा गया है- ‘‘ब्रह्मा ने कामना की, भूमि उत्पन्न हो, और भूमि उत्पन्न हो गयी। उन्होंने सूर्य के उत्पन्न होने की कामना की और सूर्य सहित दिशाएं उत्पन्न हो गईं। एक विशालकाय सोने का अण्डा (हिरण्यगर्भ) उत्पन्न हुआ जिसमें विक्षोभ हुआ और वह दो भागों में विभक्त हुआ उसके विभाजन से प्रवाहित हो रहे रेतस् से चन्द्रमा तथा नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए। वायु पुराण में कहा गया है कि नक्षत्र, चन्द्रमा एवं ग्रह आदि सभी की उत्पत्ति सूर्य से हुयी है।“अग्नीषोमात्मकं जगत्” के अनुसार संसार अग्नि और सोम रूप है । अग्नि ही सूर्य रूप में व्याप्त होता है और सोम चन्द्रमा के रूप में । सृष्टि में दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है।
वैदिक साहित्य में चन्द्रमा की गति का भी उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में अमावास्या में उदयकालिक सूर्य की ओर जाते हुए शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्य से आगे निकलते हुए चन्द्रमा को देखकर लिखा गया है- ‘‘चन्द्रमा वा अमावास्यायाम् आदित्यमनुप्रविशति, आदित्याद्वै चन्द्रमा जायते” अर्थात् चन्द्रमा अमावस्या में सूर्य में प्रवेश करता है और पुनः सूर्य से ही प्रकट होता है। चन्द्रमा में स्वयं का प्रकाश नहीं होता इस विषय का ज्ञान भी वैदिक काल में किया जा चुका था कि वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है। इस कारण तैतिरीय संहिता में चन्द्रमा को “सूर्य-रश्मि चन्द्रमा” कहकर संबोधित किया गया है। शुक्लयजुर्वेद के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुयी है अतः चन्द्रमा को मन का कारक कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार चन्द्रमा की किरणें अमृत बिन्दु के समान हैं तथा वह समस्त औषधियों का स्वामी है
“त्वमिमा ओषधी: सोम विश्वास्त्वमपो अजनयंस्त्वं गा:।
त्वमा ततन्योर्वन्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ॥’’
धर्म शास्त्र कहते हैं पितरों का निवास है चंद्रमा
हिन्दू धर्मशास्त्रों की मान्यता अनुसार हमारे पूर्वज जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं वे पितर बन जाते हैं तथा उनका निवास स्थान चन्द्रमा का वही पृष्ठीयभाग है जिसे हम विपरीत दिशा में होने के कारण देख नहीं सकते हैं, जो कि सूर्यग्रहण का भी कारण होता है, हमारे धर्मशास्त्रों में इसे ही पितृलोक कहा गया है। हमारे मन में यह शंका अवश्य होती है कि यदि वहां पितृलोक है तो पितर दृष्टिगोचर क्यूँ नहीं होते ? इस सम्बन्ध में शास्त्र का मत है कि जिस लोक का हम विचार कर रहे हैं उस लोक के अनुरूप ही वहां का जीवन एवं शरीर भी होता है। जिस प्रकार पृथ्वी पर पांचभौतिक पार्थिव शरीर होता है वैसे ही अन्य लोकों में उनसे सम्बन्धी तत्व से युक्त शरीर होते हैं जिन्हें सामान्य दृष्टि से देखना संभव नहीं है। पुराणों के अनुसार एक बार रावण ने चंद्रलोक में जाकर चन्द्रमा पर बाणों का प्रयोग किया था तथा ब्रह्मा की आज्ञा से वह वापस लौट आया था। महिषासुर ने भी चन्द्रमा पर अपना आधिपत्य जमा लिया था जिसे देवी दुर्गा ने मृत्यु प्रदान की थी। धर्मशास्त्र के अनुसार चन्द्रमा या चन्द्रलोक को एक दिव्यधाम माना गया है जहां विविध प्रकार का सुख वैभव माना जाता है और उसे धर्ममार्ग, तप या योगपूर्वक ही प्राप्त किया जा सकता है।
चंद्रमा जलतत्व का कारक है – ज्योतिषीय मत
वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में चन्द्रमा की कलात्मक ह्रास वृद्धि की स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “जिस तरह धूप में स्थित घड़े का सूर्य की तरफ का आधा भाग रोशनी वाला और विरुद्ध दिशा में स्थित दूसरा आधा भाग अपनी छाया से ही काला दिखाई देता है, उसी तरह सदा सूर्य के अधोभाग में स्थित चन्द्रमा का सूर्य की तरफ का आधा भाग शुक्ल और उसके विपरीत का अर्धभाग अपनी ही छाया से कृष्ण दिखाई देता है। ज्योतिष शास्त्र में चन्द्रमा को जलीय ग्रह कहा जाता है, अतः उसके रात्रि में प्रकाशित होने के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “जिस प्रकार दर्पण पर गिरी हुयी सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से घर के अन्दर का अन्धकार नष्ट होता है, उसी तरह जलमय पिण्ड की तरह दिखने वाले चन्द्रमा के ऊपर गिरने वाली सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से पृथ्वी पर रात्रि संबंधी अन्धकार नष्ट होता है। चन्द्रमा पर होने वाले उल्कापातों के विषय में भी भारतीय ज्योतिषियों को ज्ञान हो चुका था।
उन्होंने ग्रहण काल में चन्द्रमा पर होने वाले उल्कापातों के फल का भी विवेचन किया। भारतीय गणितज्ञों ने चन्द्रमा की परिधि का मान सूर्यसिद्धान्त के अनुसार 480 योजन तथा कक्षामान 3,24,000 योजन तथा आर्यभट के अनुसार चन्द्रपरिधि 315 योजन तथा कक्षामान 2,16,000 योजन के बराबर बताया है जो कि लगभग आधुनिक मान के तुल्य ही है। आधुनिक मान में लगभग 12 किलोमीटर का एक योजन माना गया है तदनुसार उक्त गणना का आंकलन किया जा सकता है।
चन्द्रमा एवं पितरों का सम्बन्ध
चन्द्रसापेक्ष घटित होने वाले दिन रात को भारतीय गणितज्ञों ने पैत्रमान (पितरों से सम्बन्धित दिनरात्रि व्यवस्था) कहा है –
त्रिंशता तिथिभिर्मासश्चान्द्रः पित्र्यमहः स्मृतः।
निशा च मासपक्षान्तौ तयोर्मध्ये विभागतः।।
अर्थात – चन्द्रमा की 30 तिथियों का एक चान्द्रमास होता है, तथा वही एक मास पितरों का एक अहोरात्र (दिन-रात) के बराबर होता है। अर्थात् 15 तिथियों के बराबर एक दिन और 15 तिथियों के बराबर एक रात्रि होती है। अमावस्या को पितरों की मध्यरात्रि एवं पूर्णिमा को दिनार्द्ध होता है। कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी से पितरों के दिन का आरंभ तथा शुक्लपक्ष की साढ़े सप्तमी से उनकी रात्रि का आरम्भ होता है।