बेहद प्रेम एवं दुश्मनी जीवन मे मुशीबत ही लाती है

धर्म डेस्क।वाल्मीकि रामायण में किष्किंधा कांड और युद्धकांड में ऐसी बातें बताई गई हैं जिनसे तरक्की और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। वहीं इन बातों को समझकर अपने जीवन में उतारा जाए तो बुरे समय में परिस्थितियों से भी लड़ने की भी ताकत मिलती है। ये बातें रामायण काल में ही नहीं आज भी महत्वपूर्ण हैं। रामायण की इन बातों में बताया है कि बुरे समय में कैसे व्यवहार करना चाहिए और किन लोगाें के साथ रहना चाहिए।

वाल्मीकि रामायण के श्लोक और उनका अर्थ

1.उत्साहो बलवान् आर्य नास्ति उत्साहात् परम् बलम् ।

सः उत्साहस्य हि लोकेषु न किंचित् अपि दुर्लभम् ॥ ४-१-१२१॥

अर्थ –उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

2.निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।

सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनम् चाधिगच्छति ॥६-२-६॥

अर्थ –उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं, वह घोर विपत्ति में फंस जाता है।

3.गुणवान् वा परजनः स्वजनो निर्गुणो ऽपि वा ।

निर्गुणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ।। ६.८७.१५ ।।

अर्थ –पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणवान परायों से गुणहीन स्वजन (अपने) ही भले होते हैं। अपना तो अपना है और पराया, पराया ही रहता है।

4.स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्यवपद्यते ।

स बन्धुर्यो ऽपनीतेषु साहाय्यायोपकल्पते ।। ६.६३.२७ ।।

अर्थ –अच्छा मित्र वही है जो विपत्ति से घिरे मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु (बुरे रास्ते पर चलने वाले भाई) की भी सहायता करे।

5.आढ्यो वा अपि दरिद्रो वा दुःखितः सुखितोऽपि वा ।

निर्दोषः च सदोषः च वयस्यः परमा गतिः ॥४-८-८॥

अर्थ –चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष, मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।

6.वसेत् सह सपत्नेन क्रुद्धेन आशी विषेण च ।

न तु मित्र प्रवादेन सम्वस्च्चत्रुणा सह ॥६-१६-२॥

अर्थ –शत्रु और महाविषधर सर्प के साथ भले ही रह लें, लेकिन ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहें, जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हित साधक हो।

7.न च अतिप्रणयः कार्यः कर्तव्यो अप्रणयः च ते ।

उभयम् हि महादोषम् तस्मात् अंतर दृक् भव ॥ ४-२२-२३॥

अर्थ –किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना श्रेष्ठ है।

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