नई दिल्ली. अयोध्या विवाद कोसमाधान के लिए मध्यस्थ के पास भेजा जाए या नहीं, सुप्रीम कोर्ट 5 मार्च को इस पर फैसला करेगा। आज हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता के जरिए विवाद का समाधान निकाले जाने पर सहमति जताई। कोर्ट का कहना था किएक फीसदी चांस होने पर भी मध्यस्थता से मामला सुलझाने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन इस बात का पता अगले मंगलवार को ही चलेगा कि क्या अयोध्या विवाद का समाधान कोर्ट की तरफ से नियुक्त मध्यस्थकी देखरेख में किया जाएगा?
सुप्रीम कोर्टमेंइलाहाबाद हाईकोर्ट के सितंबर 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर हो रहीहै। इसके अलावा अदालत ने सुनवाई में केंद्र की उस याचिका को शामिल किया है, जिसमें सरकार ने गैर विवादित जमीन को उनके मालिकों को लौटाने की मांग की है। सोमवार को कोर्ट ने भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी को भी सुनवाई के दौरान मौजूद रहने को कहा था। स्वामी ने सोमवार को याचिका दायर कर कहा था कि अयोध्या में विवादित जमीन पर उन्हें पूजा करने का अधिकार है और यह उन्हें मिलना चाहिए।
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच सुनवाई कर रही है। इसमें चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एसए नजीर शामिल हैं। इससे पहले यह सुनवाई 29 जनवरी को होनी थी। लेकिन उस दिन जस्टिस बोबडे उपलब्ध नहीं थे। इस कारण उस दिन सुनवाई टल गई थी।
सुनवाई से अलग हुए जस्टिस ललित
10 जनवरी को पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने इस मामले पर सुनवाई शुरू की थी। इसमें जस्टिस यूयू ललित के अलावा, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एनवी रमण और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ शामिल थे। लेकिन, कोर्ट में सुनवाई शुरू होते ही सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन ने पांच जजों की बेंच में जस्टिस यूयू ललित के होने पर सवाल उठाया। इसके बाद जस्टिस ललित खुद ही बेंच से अलग हो गए। धवन ने कहा था कि मैं जस्टिस ललित को याद दिलाना चाहता हूं कि आप 1994 में पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के वकील रहे हैं। यह बाबरी केस से जुड़ा अवमानना का मामला था।
25 जनवरी को नई बेंच बनाई गई थी
विवाद के बाद चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने 25 जनवरी को अयोध्या विवाद की सुनवाई के लिए बेंच का पुनर्गठन किया। इसमें जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर को शामिल किया गया। नई बेंच में चीफ जस्टिस ने जस्टिस एनवी रमण को शामिल नहीं किया।
पहले इस मामले की सुनवाई पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली तीन जजों की बेंच कर रही थी। 2 अक्टूबर को उनके रिटायर होने के बाद केस चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई वाली दो सदस्यीय बेंच में सूचीबद्ध किया गया था। बाद में चीफ जस्टिस ने इसके लिए पांच जजों की बेंच तय की थी।
कोर्ट ने सुनवाई में केंद्र की याचिका भी शामिल की
कोर्ट को 14 याचिकाओं पर सुनवाई करना था। इसमें बाद में केंद्र सरकार की उस याचिका को भी शामिल कर लिया गया, जिसमें मांग की गई है कि अयोध्या की गैर-विवादित जमीनें उनके मूल मालिकों को लौटा दी जाएं। 1991 से 1993 के बीच केंद्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने विवादित स्थल और उसके आसपास की करीब 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में इस पर यथास्थिति बरकरार रखने के निर्देश दिए थे।
2.77 एकड़ परिसर के अंदर है विवादित जमीन
अयोध्या में 2.77 एकड़ परिसर में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का विवाद है। इसी परिसर में 0.313 एकड़ का वह हिस्सा है, जिस पर विवादित ढांचा मौजूद था और जिसे 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया गया था। रामलला अभी इसी 0.313 एकड़ जमीन के एक हिस्से में विराजमान हैं। केंद्र की अर्जी पर भाजपा और सरकार का कहना है कि हम विवादित जमीन को छू भी नहीं रहे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नौ साल पहले फैसला सुनाया था
- इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने 30 सितंबर 2010 को 2:1 के बहुमत से 2.77 एकड़ के विवादित परिसर के मालिकाना हक पर फैसला सुनाया था। यह जमीन तीन पक्षों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला में बराबर बांट दी गई थी। हिंदू एक्ट के तहत इस मामले में रामलला भी एक पक्षकार हैं।
- इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि जिस जगह पर रामलला की मूर्ति है, उसे रामलला विराजमान को दे दिया जाए। राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्मोही अखाड़े को दे दी जाए। बचा हुआ एक-तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाए।
- इस फैसले को निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
- शीर्ष अदालत ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट में यह केस तभी से लंबित है।
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