जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से पर्व और त्योहारों का महत्त्व क्यों?

पर्व और त्योहारों का महत्त्व क्यों?
पर्व और त्योहार देश की सभ्यता और संस्कृति के दर्पण कहे जाते हैं। वे हमारी संस्कृति की इन्द्रधनुषी आभा में एकरूपता, राष्ट्रीय एकता, अखंडता के प्रतीक होने के साथ-साथ जीवन के श्रृंगार उमंग और उत्साह के प्राण भी कहलाते हैं। इसलिए पर्व और त्योहार सामूहिक चेतना को उजागर करने वाला जीवन्त तत्त्व के रूप में प्रकट हुआ है। हमारे तत्त्ववेत्ता, ऋषि-महर्षियों ने पर्वो, त्योहारों की व्यवस्था इसी दृष्टि से की कि महान व्यक्तियों के चरित्र और घटनाओं का प्रकाश जनमानस में पहुंचे और उनमें धर्मधारण, कर्तव्यनिष्ठा, परमार्थ, लोक मंगल, देशभक्ति की भावनाएं विकसित हों। महान लोगों के मार्ग निर्देशन से समाज समुन्नत और सुविकसित बने। दशहरा, दीवाली, होली, राष्ट्रीय त्योहार, महापुरुषों या अवतारों की जयंतियां इसीलिए मनाई जाती हैं।
पर्व और त्योहारों में मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है, यहां तक कि उसे पूरे ब्रह्मांड के कल्याण से जोड़ दिया है। इनमें लौकिक कार्यों के साथ ही धार्मिक तत्त्वों का ऐसा समावेश किया गया है, जिससे हमें न केवल अपने जीवन निर्माण में सहायता मिले, बल्कि समाज की भी उन्नति होती रहे ।
पर्व और त्योहार धर्म एवं आध्यात्मिक भावों को उजागर कर लोक के साथ परलोक सुधार की प्रेरणा भी देते हैं। इस प्रकार मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति में भी ये सहायक होते हैं। इसके अलावा ये घर परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों को समीप लाने, मिल-बैठने, एक-दूसरे के सुख-आनंद में सहभागी बनने को शुभ अवसर प्रदान करते हैं और मानवीय उदारता, समग्रता, प्रेम तथा भाईचारे का संदेश पहुंचाते हैं।
महर्षि कणाद से एक शिष्य ने पूछा-‘गुरुदेव ! भारतीय धर्म में व्रतों-जयतियों की भरमार है। कदाचित्
ही कोई दिन ऐसा छूटा हो, जिसमें ये न पड़ते हों। इसका क्या कारण है ? कृपया समझाकर बताइए। महर्षि बोले-तात ! व्रत व्यक्तिगत जीवन को अधिक पवित्र बनाने के लिए हैं, जयंतियां महामानवों से प्रेरणा ग्रहण करने के लिए। उस दिन उपवास, ब्रह्मचर्य, एकांत सेवन, मौन, आत्म-निरीक्षण आदि की विधा संपन्न की जाती है। दुर्गुण छोड़ने और सद्गुण अपनाने के लिए देव पूजन करते हुए संकल्प किए जाते हैं। अब उतने व्रतों का निर्वाह संभव नहीं। इसलिए पाक्षिक व्रत करना हो, तो दोनों एकादशी, मासिक करना हो, तो पूर्णिमा और साप्ताहिक करना हो, तो रविवार या गुरुवार में से कोई एक रखा जा सकता है।”
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