धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से सृष्टि-तत्त्व और शरीर-संरचना……
मूल प्रकृति सबसे पहले बुद्धि, फिर अहङ्कार, फिर 5 तन्मात्राओं (सूक्ष्मभूतों), 5 ज्ञानेन्द्रियों, 5 कर्मेन्द्रियों और मन, फिर तन्मात्राओं से 5 स्थूलभूतों (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी) में परिवर्तित होती है। अब इन तत्त्वों से हम शरीर की रचना को समझते हैं।
शरीर के प्रकार
प्रत्येक जीव के 4 प्रकार के शरीर होते हैं । वे इस प्रकार हैं
1👉 स्थूल शरीर👉 जो हमें साक्षात् दिखता है। आंखों से दिखता, कानों से सुनाई पड़ता (वाणी, ताली, आदि), नाक से सूंघने में आता, जिह्वा से स्वाद लेने में आता और त्वचा से छूने में आता है । इसी शरीर को सर्जन काटकर देख सकता है ।
2👉 सूक्ष्म शरीर👉 यह शरीर सूक्ष्म-तत्त्वों से बना होता है । इसलिए इन्द्रियगोचर नहीं होता। इसके दो विभाग होते हैं-
स्थूल देह हड्डी और मांस का बना है.
उसके भीतर सूक्ष्म देह है, जो अन्तःकारण चतुष्टय (मन, बुद्धि,चित, अहंकार) से बना है. इसी में हमारे प्रारब्ध कर्म का भी वास है. पूर्व जन्म के कर्मों में जिन कर्मों का फल इस जन्म में भोगना पड़ता है वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं।
इसके दो विभाग
👉 भौतिक👉 यह शरीर पञ्च सूक्ष्मभूतों और पञ्च प्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) का बना होता है।
👉 स्वाभाविक👉 यह शरीर पञ्च ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि का बना होता है। इनकी चेष्टा जीव की प्रवृत्ति के अनुसार होती है। इसलिए यह शरीर वस्तुतः जीव के स्वभाव को कार्यान्वित करता है । इसी के कारण, स्थूल शरीर-रचना एक समान होने पर भी, जीव स्वभाव से भिन्न होते हैं । इस स्वभाव-भेद से ही इस शरीर का अनुमान भी होता है।
3👉 कारण शरीर👉 यह शरीर मूल प्रकृति का बना होता है । वस्तुतः, यह आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक है । और आकाश के ही समान, जितने भाग में हमारा शरीर स्थित है, उतने भाग को हम अपने शरीर का अंश मान सकते हैं । विकार-रहित प्रकृति का बना होने के कारण, इसमें पूर्णतया ज्ञान का अभाव होता है। इस अवस्था को गाढ़ निद्रा भी कहा गया है। सरल शब्दो में कारण देह वह है, जिसमे अतृप्त वासना तथा संचित कर्मों का निवास है. पूर्व जन्म में किये गये कर्म संचित कर्म कहे जाते हैं। इसी कारण देह के चलते जीव का जन्मा होता है (इसीलिए नाम है “कारण” देह, जो जन्मा तथा मृत्यु का कारण हो)।
4👉 तुरीय शरीर👉 यह चौथा शरीर समाधि अवस्था में जीव को उपलब्ध होता है । इस चोगे से वह परमात्मा की अनुभूति कर पाता है । जिस प्रकार भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना रूप दिखाने के लिए दिव्य चक्षु देते हैं (न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्व चक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमीश्वरम् ॥ गीता 11।8॥ ), कुछ उसी प्रकार का यह शरीर होता है । यह प्रकृति का बना नहीं मानना चाहिए।
सरलशब्दो में इसका अर्थ👉 कारण शरीर के परे जो है वह तुरीय शरीर यानी
महाकारण देह है. यह सर्वव्यापी, चैतान्यमय है. इन सबमे से यदि हम स्थूल देह को निकाल दे, तो जो बचता है वह जीवात्मा है।
उस जीवात्मा से यदि सूक्ष्म देह मुक्त हो गया (योग साधना से जब साधक उन्मनी अवस्था तक पहुंचता है, तब उसका मन नाश हो जाता है और कैवल्य समाधी में केवल महाकारण देह का अस्तित्व होता है, जिसे ब्रह्मा-साक्षात्कार कहते हैं) तो जो महाकारण देह बचेगा वह ब्रह्मण है. ज्यों की इस महाकारण देह से अविद्या का आवरण अब मिट चूका है, वोह परब्रह्म स्वरुप है. येही इश्वर भी है।
ध्यान रहे, यह महाकारण देह हम सभी में एक ही है, क्यूँ की यह इश्वर है. और इसी को ज्ञानी जन सबमे इश्वर का निवास है के भाव से कहते है।
रहा प्रश्न भेद क्यूँ है, तोह भेद कहाँ है? महाकारण में द्वैत भाव का प्राकट्य कारण देह को जगाता है, जिसमे वासना के चलते सूक्ष्म देह अस्तित्व में आता है, जो जन्मा लेने हेतु किसी योनी के स्थूल देह को अपना वाहन बनता है. येही प्रक्रिया यदि उलटी दोहराई जाये तोह वह मुक्ति का मार्ग भी है।
इन सबमें केवल महाकारण अथवा ब्रह्मण या तुरीय स्थायी है, बाकि सारे देह नश्वर है। इसीलिए उपनिषदों में यह भी कहा गया है
“ब्रह्मा सत्यम, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः”
अर्थात, “ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, तथा जीव-ब्रह्म में कोई भेद नहीं है”.
इस प्रकार, हम सभी 3 शरीरों के पुंज हैं । यदि हम सृष्टि-तत्त्वों से इनकी तुलना करें, तो इस प्रकार का चित्र उभरता है।
सृष्टि-तत्त्व और शरीर
स्थूल शरीर👉 पञ्च स्थूलभूतों का बना हुआ
सूक्ष्म शरीर👉 पञ्च सूक्ष्मभूतों, 5 ज्ञानेन्द्रियों, 5 कर्मेन्द्रियों, मन, अहङ्कार और बुद्धि का बना हुआ, अर्थात् ऊपर दिये विवरण में हमें 5 कर्मेन्द्रियों और अहङ्कार को जोड़ना है। अहङ्कार तो बहुत बार मन में ही गिना जाता है, इसलिए कोई कठिनाई नहीं है। परन्तु कर्मेन्द्रियों को ऊपर से मिलाना कठिन है। और ऊपर पञ्च प्राण गिने गये हैं, जो सूक्ष्मतत्त्वों में नहीं गिनाये गये हैं। इनका भी मेल करना कठिन है। सम्भव है कि प्राण-वायु वायु-तन्मात्र के अवयव हों। परन्तु इससे प्रश्न उठता है कि फिर कर्मेन्द्रियां क्यों नहीं गिनाई गईं ? इसके उत्तर में एक सम्भावना उत्पन्न होती है – क्या प्राणों और कर्मेन्द्रियों में कुछ सम्बन्ध है ? हम जानते हैं कि अपान वायु का वायु और उपस्थ कर्मेन्द्रियों से सम्बन्ध है, और वाणी और उदान का भी सम्बन्ध इंगित किया गया है, परन्तु अन्य प्राण कर्मेन्द्रियों से सम्बन्धित नहीं बताये गये हैं, अपितु पाचन-क्रिया से सम्बद्ध बताये गये हैं । किस प्रकार ’वायु’ इन पाचन-क्रियाओं से सम्बद्ध है, यह भी स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर, हम यह अनुभव करते हैं कि जब हमें बल लगाना होता है, तब हम अपान-वायु अन्दर लेते हैं और बल लगाते हुए उसे प्राण-वायु के रूप में छोड़ते हैं । एक और कठिनाई यह है कि कर्मेन्द्रियों के सूक्ष्म-रूप समझ में नहीं आते हाथ और पैरों के क्या सूक्ष्म-रूप हैं ? ये तो मन के संकेतों पर नाचते हैं ! इन सब तथ्यों से प्रतीत होता है कि 5 कर्मेन्द्रिय और 5 प्राणों का भिन्न होते हुए भी कुछ घनिष्ठ सम्बन्ध है। विद्वत्-जन अवश्य इस विषय पर और प्रकाश फेंकनें का कष्ट करें।
शरीर के पञ्च कोश
शरीर का एक और आयाम है । वह है पञ्च कोश। ये पञ्च कोश शरीर के ही आकार के होते हैं, परन्तु सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते जाते हैं। ये निम्न हैं।
1👉 अन्न्मय कोश👉 “जो त्वचा से लेकर अस्थि-पर्यन्त का समुदाय पृथिवीमय है (सत्यार्थ-प्रकाश, नवां समुल्लास)”, अर्थात् दृश्य शरीर ।
2👉 प्राणमय कोश👉 पञ्च प्राण-वायुओं का बना ।
3👉 मनोमय कोश👉 पञ्च कर्मेन्द्रियों, मन और अहङ्कार वाला भाग ।
4👉 विज्ञानमय कोश👉 पञ्च ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि का अंश ।
5👉 आनन्दमय कोश👉 कारण प्रकृति का बना भाग ।
विभागों का समीकरण
यहां स्पष्ट हो जाता है कि अन्नमय कोश स्थूल शरीर ही है । प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश सूक्ष्म शरीर के अंश हैं, और आनन्दमय कोश कारण शरीर है । मैंने कई प्रवचनकर्ताओं को आनन्दमय कोश को – “जीव स्वयं है” – ऐसा बताते हुए सुना है । यह कथन सही नहीं है । आनन्दमय कोश भी प्राकृतिक है, परन्तु वहां वही आनन्द मिलता है, जो सुषुप्ति की अवस्था में मिलता है – और उससे अधिक भी !
यदि कोश भी शरीर के ही विभाग हैं, तो स्थूल-सूक्ष्म-कारण और पञ्च कोशों में भेद क्यों किया गया है ? इसका विश्लेषण करते हुए, हम एक बात एकदम देख सकते हैं कि विज्ञानमय कोश में ज्ञानेन्द्रिय हैं, जो कि पूर्व के मनोमय कोश के मन और अहङ्कार से स्थूलतर है । इसलिए कोशों का विभाग पूर्णतया सूक्ष्मता के अनुसार नहीं है, जबकि 3 शरीरों का विभाजन इसी के अनुसार निर्धारित है । प्रतीत होता है कि ये कोश हमारी अनुभूति के अनुसार हैं – हम शरीर को इन रूपों में अनुभव करते हैं । इसलिए ये योगी के ध्यान करने में सहायता के लिए हैं । ध्यान करते समय हमें पहले अपने अन्नमय कोश पर चित्त को स्थिर करना चाहिए, जैसे भौहों के बीच में, नाभि पर, आदि। इसके उपरान्त हमें प्राणमय शरीर – अपनी श्वास-प्रश्वास पर ध्यान लगाना चाहिए। यहां स्थिर हो जाने पर, हमें मनोमय कोश – जो हिलने-डुलने, देखने-सुनने, आदि का सङ्कल्प करता है। उसको अनुभव करना चाहिए। इसके बाद भी हमारी बुद्धि में विचार आ रहे होंगे। यह विज्ञानमय कोश है। विचारों के स्थिर हो जाने पर, हम अपने-आप आनन्द का अनुभव करने लगेंगे। यही आनन्दमय कोश है।
जीव इन सभी शरीरों और कोशों से भिन्न है, और स्वतन्त्र सत्ता वाला है । सूक्ष्म और कारण शरीर सृष्टि में आत्मा से चिपक जाते हैं, फिर सर्गान्त में ही छूटते हैं । मुक्तात्मा का भौतिक सूक्ष्म-शरीर तो छूट जाता है, परन्तु स्वाभाविक शरीर बना रहता है, और सर्गान्त में छूटता है । परन्तु इस विषय में विद्वानों में मतभेद रहा है । कुछ का मानना है कि मुक्तात्मा प्रकृति से सर्वथा रहित हो जाता है। साङ्ख्य के प्राकृतिक तत्त्वों और शरीर की संरचना में इस प्रकार सीधा-सीधा सम्बन्ध दीख पड़ता है । विभिन्न शास्त्रों में जो भिन्नताएं प्रतीत होती हैं, वे विश्लेषण करने पर नहीं रहतीं । शास्त्रों के सार को समझने के लिए, यह मेल करना बड़ा आवश्यक है ।