उत्तरनामा :
★ हेमंत तिवारी
आम चुनाव समाप्त हो चुके हैं। नई सरकार भी मंत्रालय बांट कर सुचारु रूप से कार्य करने लगी है। लेकिन अयोध्या में अब भी राजनीतिक तापमान कम होने का नाम नहीं ले रहा है। बल्कि अयोध्या तो नई सरकार के लिये चुनौती का सबब बनती दिखाई पड़ रही है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर और हिंदुत्व का मुद्दा प्रदेश में फिर आंच पकड़ने लगा है। इसकी जमीन भी तैयार होती दिखाई पड़ रही है।
एक तरफ साथी संगठन शिवसेना ने राम मंदिर निर्माण की मांग को तेज कर दिया है। शिवसेना के संसदीय दल के नेता संजय राउत ने अयोध्या में कहा कि हम मंदिर पर चर्चा जरूर करते हैं, लेकिन श्रेय लेने का मकसद नहीं है। हम चाहते हैं कि राम मंदिर मोदी और योगी के हाथ से बने, उनके नेतृत्व में बने। हम राम भक्त बन कर उनके साथ बैठेंगे। 16 जून को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का अयोध्या दौरा भी प्रस्तावित है। खास बात ये है कि उद्धव ठाकरे अकेले नहीं बल्कि पार्टी के सभी 18 सांसदों के साथ अयोध्या आने वाले हैं। अक्सर देखा गया है कि उद्धव ठाकरे चुनाव नतीजों के बाद एकवीरा देवी के दर्शन के लिए जाते हैं, लेकिन इस बार शिवसेना प्रमुख ने अयोध्या का कार्यक्रम बनाया है।
हालांकि संजय राउत इसे गैर राजनीतिक कार्यक्रम साबित करने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। वह कहते हैं कि चुनाव से पहले हम सब उद्धव ठाकरे के साथ अयोध्या गए। चुनाव के बाद भी हमने कहा कि हम फिर से आएंगे। चुनाव खत्म हो जाएं हमें बहुमत मिल जाए तो क्या हम रामलला और अयोध्या को भूल जाएंगे? यही हमारी प्रतिबद्धता है? किंतु सियासी हलकों में उद्धव ठाकरे के इस दौरे को बीजेपी के लिए एक राजनीतिक संदेश के तौर पर देखा जा रहा है। शिवसेना प्रमुख ने अयोध्या जाने का कार्यक्रम संसद सत्र शुरू होने से पहले का रखा है। संसद का सत्र 17 जून से शुरू हो रहा है।
वहीं दूसरी तरफ विश्व हिंदू परिषद के सर्वोच्च फोरम मार्गदर्शक मंडल की 19 व 20 जून को हरिद्वार में बैठक होने वाली है, जिसके एजेंडे में अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के साथ गाय व गंगा की सुरक्षा, आबादी असंतुलन और सामाजिक समरसता के मुद्दे शामिल हैं।
दरअसल आम चुनाव में भाजपा को मिले प्रचण्ड बहुमत के बाद संगठन और आम जन की प्रत्याशा की प्रत्यंचा तन सी गई है। उस पर शिवसेना सासंद संजय राउत का यह कहना कि 303 सांसद भाजपा के, 18 हमारे, राम मंदिर निर्माण के लिए और क्या चाहिए, ने संतों और भक्तों के मर्म को छू लिया है। यद्पि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अयोध्या दौरे बढ़ चुके हैं। अभी एक सप्ताह पूर्व ही वह श्री राम की काष्ठ मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम में गये थे किंतु योगी भी समझते हैं कि इससे बहुसंख्यक समाज की सामूहिक चेतना संतुष्ट होने वाली नहीं है। चुनाव के पूर्व अयोध्या का वह मंजर तो सभी को याद ही होगा जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फैजाबाद का नाम अयोध्या करने की घोषणा की थी और उस समय भी कार्यकर्ताओं के मध्य से एक ही आवाज आ रही थी कि योगी जी बस इक काम करो, मंदिर का निर्माण करो। यह आवाज आम जनमानस की आवाज है।
यह तो स्पष्ट है कि राम मंदिर निर्माण से जनता का भावनात्मक जुड़ाव बढ़ा ही है कम नहीं पड़ा है। 1992 में सरयू तट पर जमे कारसेवकों के लहू के धब्बे भले ही वक्त की धाराओं में धूमिल हो गये हों लेकिन सरयू की बहती धाराओं में उभरता अक्स आज भी राम मंदिर निर्माण का सवाल पूछ रहा है। बस किरदार बदल गये हैं। जो सवाल पहले भाजपा पूछती थी वही सवाल अब जनता, भाजपा से पूछ रही है। बीजेपी की इन दुविधाओं को शिवसेना खूब भुना रही है। लोकसभा चुनावों के पूर्व वह बीजेपी को कठघरे में खड़ा करते हुए वो पूछ रही थी कि राम मंदिर बनाने की नीयत वास्तव में है तो अध्यादेश क्यों नहीं ला रहे? निर्माण शुरू करने की तारीख क्यों नहीं बता रहे? यह श्रीराम से प्रेम की तड़प थी या भाजपा की दुविधाओं पर प्रहार कर सियासी बढ़त हासिल करने की जुस्तजू कि शिव सेना के सांसद संजय राउत ने कहा था कि कहते हैं जब 15 मिनट में मस्जिद ढहाई थी तो कानून बनाने में कितना समय लगता है।
हालांकि अब समय औऱ हालात बदल चुके हैं। कभी धमकाने वाले अंदाज में बात कर रही शिवसेना, अब भाजपा की हमजुबां बनी है। मोदी को ही अपना सुप्रीम कोर्ट बताते हुये राउत कहते हैं कि यदि इसी कार्यकाल में राम मंदिर बनेगा, नहीं तो लोग हमें माफ नहीं करेंगे। वह आगे कहते हैं कि राम मंदिर के लिए कानून बने या ना बने भारी जनादेश है और जनादेश के सामने सबको झुकना पड़ता है। विश्व का कोई भी न्यायालय हो झुकना पड़ता है। यही भाव संत समाज और भक्त समाज का है। शायद ऐसी ही रवानी उस वक्त भी दिखी थी जब 25 नवंबर की सुबह बड़े भक्तमाल की बगिया में धर्मसभा का हिस्सा बनने पहुंचे युवाओं की जुबान पर विश्व हिंदू परिषद के परंपरागत नारे ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ की जगह शिव सेना का नारा ‘हर हिंदू की यही पुकार, पहले मंदिर फिर सरकार’ ज्यादा चढ़ा दिखा था।
गौरतलब है कि भाजपा को राम मंदिर मुद्दे पर जिस भी नीति का अनुसरण करना है, वह तो उनका शीर्ष नेतृत्व ही तय करेगा किंतु शिवसेना खुद को हिंदुत्व के मसले पर भाजपा से भी गंभीर दर्शा कर क्या प्राप्त करना चाहती है। क्योंकि यह भी सच है कि महज 18 सांसदों के दम पर तो मंदिर निर्माण नहीं हो सकता है। दरअसल शिवसेना के मंदिर प्रेम के पीछे से राजनीतिक इच्छा से इंकार नहीं किया जा सकता है। महाराष्ट्र में कुछ महीनों में ही विधानसभा चुनाव होने हैं। उत्तर भारतीयों के मत फैसलाकुन भूमिका मे हैं। शिवसेना का राम प्रेम, विधानसभा चुनावों की तैयारी का हिस्सा भी हो सकता है। राम मंदिर के पक्षधर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए शिवसेना उद्धव के अयोध्या दौरे का इस्तेमाल करेगी। दूसरा, शिवसेना सरकार का हिस्सा तो है लेकिन मनचाहा मंत्री पद न मिलने से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में असंतोष भी है। 18 सासंदों के साथ एनडीए में दूसरा सबसे बड़ा दल होने के बावजूद शिवसेना को एक ही मंत्री पद मिला है। जबकि 16 सांसदों वाली जदयू ने एक मंत्रीपद का प्रस्ताव दिए जाने के बाद कैबिनेट से बाहर रहना ही उचित समझा। इस वजह से शिवसेना की जदयू से सीधी तुलना हो रही है। इसकी भरपाई के लिए शिवसेना ने लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद मांगा है। उपसभापति पद की मांग को लेकर भी शिवसेना नेता और सांसद संजय राउत का कहना है कि पार्टी के पास 18 सांसद है और वो एनडीए का दूसरा सबसे बड़ा दल है। इसलिए यह उनका ‘नैसर्गिक अधिकार’ है। फिलहाल हिंदुत्व और राम मंदिर को लेकर शिवसेना की सक्रियता भाजपा को असहज करती है या नहीं, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि अब राम की चिंता करने वाली एक और राजनीतिक पार्टी मैदान में आ चुकी है।