हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘राष्ट्रीय युद्ध स्मारक’ का उद्घाटन किया है। शहीद मेजर ध्रुव यादव की बहन नम्रता यादव, अपनी मां के साथ हाल ही में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक गईं थीं। जब मेजर यादव शहीद हुए तो उनकी पत्नी मां बनने वाली थीं। उनकी बहन ने दैनिक भास्कर से युद्ध स्मारक से जुड़ीं अपनी भावनाएं साझा कीं…
आंखों में आंसू लिए मेरी मां वॉर मेमोरियल में लगी एक शिला को एकटक निहारे जा रही हंै। वहां एक नाम दर्ज है- सिपाही अशोक कुमार। कोई करीबी उस पर गुलाब रख गया है। वहीं खड़ा असम रेजिमेंट का एक युवा सैनिक मां से पूछता है, ‘आप किसी को ढूंढ रही हैं मां? आपका कुछ खो गया है?’
मां की आंख से आंसू छलक आते हैं और उनके सामने उनके बेेटे यानी मेरे भाई मेजर ध्रुव यादव की तस्वीर तैर जाती है। हां, खोया तो है उन्होंने कुछ। मां ने अपने ताज का कोहिनूर, अपना ध्रुवतारा खोया है। यही कहती थीं वो मेरे भाई को। मां ने उस युवा सैनिक से कुछ नहीं कहा। बस मुस्करा दीं। क्योंकि उनके आंसू केवल उस बेटे के लिए नहीं थे, जिसने शांति के समय में अपनी जान गंवा दी। बल्कि उन कई अनजान वीर योद्धाओं के लिए भी थे जिनका शौर्य, जिनका नाम अब हमेशा के लिए इन शिलाओं में दर्ज हो चुका है। इसलिए उनके आंसुओं में दर्द भी है, खुशी है और गर्व भी है।
वॉर मेमोरियल में चारों तरफ नजर दौड़ाइए। यहां 25,942 शहीद सैनिकों की यादें नजर आती हैं। यहां लगी हजारों शिलाएं केवल एक नाम दर्ज नहीं करतीं। उनमें शौर्य, बहादुरी और गर्व की हजारों कहानियां दर्ज हैं। ये कहानियां सुनने में हमारे दौर के काल्पनिक सुपरहीरो की कहानियों सी लगती हैं। फिर भी सभी कहानियां एक-दूसरे से अलग हैं। आगे बढ़ने पर हमें चक्रव्यूह नजर आया, जो वीरता चक्र, अमर चक्र, रक्षक चक्र और त्याग चक्र को मिलाकर बनाया गया है। यह इस बात की याद दिलाता है कि कैसे अलग-अलग क्षेत्रों, विविध माहौलों से आए सैनिकों में अद्भुत एकता होती है।
यहां आकर भारतीय सेना के जवानों के उस साहस और मानसिक दृढ़ता पर आश्चर्य होता है, जो मातृभूमि पर जान न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं। यही वे शपथ भी लेते हैं। चक्रव्यूह से गुजरने के बाद शहीद बहादुरों की यादों के बीच बैठकर मेरे मन को कुछ शांति मिलती है। मुझे उस विचार की याद आती है, जिसे हमारे संस्थापक जनकों ने ‘आधुनिक भारत’ को आकार देने के लिए बड़ी मेहनत से तैयार किया था। यह विचार था विविधता में एकता का सिद्धांत। यहां उकेरे गए नामों की शिलाओं के खंभों में कहीं भी जाति, धर्म या क्षेत्र की बात नजर नहीं आती। बस नजर आती है तो एक भावना, जीवन में ‘खुद से पहले सेवा’ को रखना।
हालांकि भारत ने कई युद्ध लड़े हैं, लेकिन शहीदों की याद में कोई एकीकृत स्मारक नहीं था। सर एडविन लुटियन ने भी जो इंडिया गेट बनाया था, वह पहले विश्वयुद्ध के शहीदों के लिए था। यहां तक कि दूसरे विश्वयुद्ध के शहीदों के लिए भी कोई स्मारक नहीं था। फिर 1971 के बाद इंडिया गेट में अमर जवान ज्योति को बनाया गया, जो अनजान सैनिकों की याद में था। लेकिन जिन शहीदों को हम जानते हैं, उनके लिए कोई एकीकृत स्मारक नहीं बना था। नेशनल वॉर मेमोरियल ने इस कमी को पूरा कर दिया है।
अब मैं देख रही हूं कि बच्चे और बड़े यहां उस क्षति को समझ पा रहे हैं, जो मातृभूमि की रक्षा करते हुए बहादुर जवानों को खोने से हुई है। जैसे-जैसे सूरज डूब रहा है, इंडिया गेट से होती हुई उसकी किरणें चक्रव्यूह पर पड़ रही हैं। इससे मेरे अंदर एक विचार जाग रहा है। यह विचार कि मैं इन वीर जवानों के जरिये अपने बेटे को सिखाऊंगी कि एक ऐसा बेहतर नागरिक कैसे बना जाए, जो शहीदों के त्याग को ज़ाया नहीं जाने दे।
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