भास्कर न्यूज नेटवर्क.पुलवामा में सैनिकों पर हुए हमले के बाद जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने की मांग फिर जोर पकड़ चुकी है। घटना के चार दिन बाद सुप्रीम कोर्ट भी इस पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय उस याचिका पर सुनवाई करेगा, जो अनुच्छेद 370 को अस्थायी बताते हुए पिछले साल दायर की गई थी। वैसे पुलवामा हमले के बाद आध्यात्मिक गुरु जग्गी वासुदेव, उद्योगपति सज्जन जिंदल और कई संगठन सरकार से यह धारा हटाने की मांग कर रहे हैं। हालांकि इस पर सभी एकमत नहीं है। हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि आतंकी गतिविधियों को रोकने के लिए राज्य को विशिष्ट अधिकार देने वाली धारा 370 को हटाने की जरूरत नहीं है। इससे पहले तमिल फिल्म अभिनेता और राजनेता कमल हासन तो जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह का बेतुका प्रस्ताव तक दे चुके हैं। वैसी ही बात जो अलगाववादी अक्सर करते रहे हैं।
370 के पक्ष में यह दलील
नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कहते हैं कि धारा 370 ने ही जम्मू-कश्मीर और शेष भारत को जोड़ रखा है। यह दोनों के बीच एकमात्र संवैधानिक कड़ी है। संवैधानिक कड़ी को आधार बनाकर यह भी कहा जाता रहा है कि धारा हटते ही अलगाववादी जनमत संग्रह के मुद्दे को तूल देंगे और जम्मू-कश्मीर विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास करेंगे।
इसे हटाने की मांग के पीछे ये तर्क
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ विराग गुप्ता कहते हैं कि सिर्फ धारा 370 की वजह से कश्मीर भारत से जुड़ा है यह कहना गलत है। भारतीय संविधान के अनेक पहलू जम्मू-कश्मीर में लागू हो गए हैं। संविधान के अनुच्छेद-356 के तहत कश्मीर में राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है। चुनाव आयोग, सीएजी समेत कई संवैधानिक संस्थाओं का जम्मू-कश्मीर में बराबर का अधिकार है। जम्मू-कश्मीर के हाईकोर्ट के पूर्ववर्ती फैसले से स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय जम्मू-कश्मीर में प्रभावी होते हैं।
रक्षा मामलों के जानकार मेजर जनरल शेरू थपलियाल (रिटायर्ड) कहते हैं कि जनमत संग्रह को इससे जोड़ा जाना ही गलत है। दरअसल, 13 अगस्त 1948 के यूनाइटेड नेशन्स रिजॉल्यूशन के मुताबिक पाकिस्तान को पहले सेना पीछे हटाना था। पूरा कश्मीर भारतीय शासन को सौंपना था। फिर जब स्थितियां सामान्य हो जातीं, तब यूनाइटेड नेशन्स की देखरेख में पूरे पीओके सहित जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह होता। मगर पाकिस्तान ने शर्ते नहीं मानी। ऐसे में आज की स्थिति में जनमत संग्रह का सवाल ही नहीं उठता। वहीं कुछ जानकार कहते हैं कि यह धारा ना होती तो कोई भी नागरिक जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीद सकता। इससे वहां निवेश आता, रोजगार आते। सेंटर फॉर दी स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज की पूर्व प्रोफेसर मधु किश्वर कहती हैं कि इसका फायदा उठाकर अलगाववादी कश्मीर को नया पाकिस्तान बनाना चाहते हैं।
यह है विवाद
धारा 370 :इस कारण जम्मू-कश्मीर में सूचना का अधिकार, जीएसटी लागू नहीं
- जम्मू-कश्मीर देश का एकमात्र राज्य है, जहां धारा 370 लागू है। यह धारा इसे विशेष राज्य का दर्जा देती है। इसके तहत केंद्र को यहां रक्षा, विदेश, वित्त तथा संचार मामलों में ही फैसले लेने का अधिकार है। अन्य मामलों से जुड़े संसद के कानून यहां राज्य सरकार की सहमति के बिना लागू नहीं हो सकते।
- इन शर्तों की वजह से जम्मू-कश्मीर में सूचना का अधिकार (आरटीआई), शिक्षा का अधिकार (आरटीई), जीएसटी आदि भी लागू नहीं हुए। राज्य के अल्पसंख्यक हिन्दुओं और सिखों को 16 फीसदी आरक्षण नहीं मिलता। राज्य सरकार ने इन्हें नहीं माना।
- जम्मू-कश्मीर का झंडा अलग है। देश के बाकी हिस्सों की तरह यहां तिरंगे या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं है।
- राज्य के कानून के मुताबिक कश्मीर में रहने वाले पाकिस्तानियों को भी भारतीय नागरिकता मिल जाती है। यहां की कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के पुरुष से शादी कर ले, तो उसकी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता खत्म हो जाती है। मगर वह यदि पाकिस्तान के पुरुष से शादी करती है, तो उस पुरुष को भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता दे दी जाती है।
- भारत का कोई भी नागरिक देश के किसी भी हिस्से में जमीन खरीद सकता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में नहीं।
- राज्य की विधानसभा का कार्यकाल 6 साल होता है। यह राजशाही के अंत से ही चला आ रहा है, जब राजा हरि सिंह ने छह साल के लिए अपना मंत्रिमंडल तैयार किया था। जबकि भारत के अन्य राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 6 नहीं बल्कि 5 साल तक का होता है।
क्यों और कब लागू हुई यह धारा
जब भारत और पाकिस्तान को ब्रिटिश शासन से आजादी मिली, तब जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने किसी के साथ न जाने का फैसला किया। वे रियासत को स्वतंत्र राष्ट्र बनाना चाहते थे। मगर दो माह बाद ही पाकिस्तान ने कब्जे की नीयत से कबाइलियों के साथ जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया और मुजफ्फराबाद व मीरपुर जैसे समृद्ध इलाकों पर अधिकार जमा लिया। तब राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। भारत सरकार ने हरि सिंह के सामने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की शर्त रखी। हरि सिंह तैयार हो गए।
26 अक्टूबर 1947 को इसके लिए इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन साइन कर लिया गया। लेकिन अनुबंध के अनुसार जम्मू-कश्मीर केवल रक्षा, विदेशी मामलों और दूरसंचार संबंधी मामलों में ही नई दिल्ली के हस्तक्षेप के लिए राजी हुआ। मार्च 1948 में शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। जून 1949 में वे अपने तीन सहयोगियों के साथ भारत के संविधान का मसौदा तैयार कर रही राष्ट्रीय संविधान सभा में शामिल कर लिए गए। लंबी बहस के बाद सभा इस निष्कर्ष पर पहुंची कि संविधान के अनुच्छेद 1 के तहत जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा होगा, मगर अनुच्छेद 370 के तहत उसे विशेष दर्जा दिया जाएगा।
मेजर जनरल शेरू थपलियाल (रिटायर्ड) कहते हैं कि ‘आर्टिकल 370 जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद लाया गया था। उस समय वहां प्रधानमंत्री का दर्जा प्राप्त शेख अब्दुल्ला ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से कहा कि जम्मू- कश्मीर और भारत के एकीकरण में थोड़ा वक्त लगेगा, ऐसे में एक आर्टिकल जरूरी है, जो राज्य को कुछ विशेष प्रावधान दे। पंडित नेहरू इसके लिए तैयार हो गए और अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का हिस्सा बन गया, लेकिन यह हमेशा के लिए नहीं था। धीरे-धीरे इसे समाप्त किया जाना था, लेकिन हुआ नहीं।’ वैसे तब संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं थे। मगर पंडित नेहरू के कहने पर गोपाल स्वामी आयंगर ने धारा 370 का प्रस्ताव संविधान सभा में प्रस्तुत किया था।
आगे: इन बिंदुओं का हल तलाशना जरूरी
कोर्ट में इस पर होगी बात-अनुच्छेद 370 अब अस्थायी या स्थायी
- पहला बिन्दु यह है कि अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 370 को लेकर कहा था कि वर्षों से बने रहने के चलते अब यह धारा एक स्थायी प्रावधान बन चुकी है, जिससे इसको खत्म करना असंभव हो गया है। वैसे अब सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई के लिए तैयार है। कोर्ट जिस याचिका पर सुनवाई करेगा, उसमें तर्क दिया गया है कि यह धारा संविधान के भाग 21 के तहत एक प्रावधान है। इसके शीर्षक में ही अस्थायी प्रावधान होना लिखा था। यह स्थायी नहीं है।
- दूसराबिन्दु यह है कि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा द्वारा वर्ष 1951 से 1956 के दौरान बनाया गया था। मगर जनवरी 1957 में यह सभा भंग कर दी गई, क्योंकि मान लिया गया था कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय होने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। ऐसे में दलील है कि धारा 370 तभी खत्म हो सकती है, जब एक नई संविधान सभा चुनी जाए और वह इसे समाप्त करने संबंधी सहमति प्रदान करे। मगर दूसरे पक्ष का कहना है कि 26 जनवरी 1957 को जम्मू-कश्मीर संविधान सभा के भंग होने के साथ धारा 370 को भी खत्म हो जाना था।
संसद में संविधान संशोधन के जरिए इसे हटा सकते हैं या नहीं इस पर भी सवाल
- तीसराबिन्दु है कि संविधान में संशोधन कर इस धारा को हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव पास होना जरूरी है। अगर यह पास हो भी जाता है तो वर्तमान कानून के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार से भी सहमति लेनी होगी। मगर फिलहाल लोकसभा का अंतिम सत्र भी हो चुका है, जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन है। राज्य की दो बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां भी इसे हटाए जाने के खिलाफ हैं। हालांकि भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं कि इसे हटाने के लिए संसद में कानून बनाने की आवश्यकता नहीं है। इस धारा को राष्ट्रपति एक नोटिफिकेशन जारी करके खत्म कर सकते हैं।
23 साल से भाजपा का मुद्दा है यह
दिसंबर 2013 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जम्मू में कहा था कि धारा 370 पर देश भर में बहस होनी चाहिए। फिर पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणा-पत्र में वादा किया था कि धारा 370 को हटाया जाएगा। लेकिन पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद भाजपा न संसद में इस पर बोली, न जनता के बीच। मार्च 2015 में जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाने के बाद तो सरकार ने जैसे यह मुद्दा त्याग ही दिया। वैसे पार्टी धारा 370 को 1996, 1999 तथा 2004 के आम चुनावों से पहले भी उठा चुकी है। पर सत्ता में आने के बाद (1999 से 2004 तक और 2014 से अब तक) चुप रही। पुलवामा हमले के बाद कुछ भाजपा नेता जरूर इसके खिलाफ बोल रहे हैं।
आरटीआई का भी नहीं दे रहे जवाब
पिछले साल 30 जुलाई को सूचना अधिकार कार्यकर्ता नीरज शर्मा ने एक आरटीआई लगाकर प्रधानमंत्री कार्यालय से 2014 से 2018 के बीच धारा 370 को हटाने को लेकर हुई कोशिशों के बारे में पूछा था। मगर सरकार ने इस पर कोई जानकारी नहीं दी। शर्मा ने 7 अक्टूबर 2018 को दूसरी आरटीआई लगाई। 6 नवंबर को पीएमओ की ओर से कहा गया कि जानकारी इकट्ठा की जा रही है। जब कोई सूचना नहीं दी गई तो आवेदनकर्ता ने सूचना अधिकार कानून के तहत प्रथम अपील अधिकारी को आवेदन दिया। 30 दिसंबर को प्रथम अपील अधिकारी ने आदेश जारी कर कहा कि 15 दिन के भीतर अपीलकर्ता को जवाब दिया जाए। मगर उस आदेश को भी 50 से ज्यादा दिन बीत चुके हैं।
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