जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से निष्क्रमण संस्कार क्यों?

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से निष्क्रमण संस्कार क्यों?

निष्क्रमण संस्कार क्यों?

प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। हिन्दू धर्म संस्कारों में निष्क्रमण संस्कार षष्ठम संस्कार है।

निष्क्रमण का अर्थ है-बाहर निकालना।
इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। इस संस्कार का फल विद्वानों द्वारा शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है

निष्कमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिमिः।

जन्म के चौथे मास में निष्क्रमण संस्कार होता है। जब बच्चे का ज्ञान और कर्मेन्द्रियां सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने योग्य बन जाती हैं। सूर्य तथा चंद्रादि देवताओं का पूजन करके बच्चे को सूर्य, चंद्र आदि के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। चूंकि बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश से बनता है, इसलिए बच्चे का पिता इस संस्कार के अंतर्गत आकाश आदि पंचभूतों के अधिष्ठाता देवताओं से बच्चे के कल्याण की कामना करता है

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियो । शं ते सूर्य आ तपतुशं वातो वातु ते हदे। शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतीः॥

अथर्वर्वेद ४/2/14

अर्थात् हे बालक! तेरे निष्क्रमण के समय लोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हो। सूर्य तेरे लिए कल्याणकारी प्रकाश करे। तेरे हृदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो। दिव्य जल वाली गंगा-यमुना आदि नदियां तेरे लिए निर्मल स्वादिष्ट जल का वहन करें।

निष्क्रमण संस्कार विधि

संकल्प संस्कार के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के पश्चात् बालक सहित मंगलद्रव्यों से स्नान कर शुभासन पर बैठ, आचमन-प्राणायाम कर देश-काल का कीत्र्तन करते हुए निम्न संकल्प पढ़ें:-

मामास्य शिशोरायुरभिवृद्धि व्यवहारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं गृहान्निष्क्रमणं करिष्ये। तदङ्त्वेन गणपतिपूजनं स्वस्तिपुरायाहवाचनं, मातृपूजनं, (यथाशक्ति) नान्दीश्राद्धं च करिष्ये।

सामान्य एवं सरल उपाय जिस दिन आप निष्क्रमण संस्कार करें, उस दिन प्रातः सूर्योदयकाल में तांबे के पात्र में रोली, गुड़ व लाल पुष्प की पंखुड़ी मिश्रित कर सूर्यदेव को इस जल से अघ्र्य अर्पित कर प्रार्थना करें कि निष्क्रमण संस्कार में आमंत्रित होकर शिशु को आशीर्वाद प्रदान करें।

संस्कार के भोजन में से सर्वप्रथम श्रीगणेशजी के लिये, फिर गाय के लिये, फिर सूर्यदेव के लिये और फिर अपने पितरों के नाम से भोजन की थाली अवश्य निकालें।

इस दिन आप संस्कार के बाद लाल बैल को सवा किलो गेहूं तथा इतना ही गुड़ अवश्य खिलायें।

संस्कार के बाद सूर्यास्तकाल में ढलते सूर्यदेव को प्रणाम करें तथा शिशु को आशीर्वाद प्रदान करने के लिये धन्यवाद दें।
रात्रि में किसी भी मंदिर में एक तांबे के दीपक में शुद्ध घी भरकर प्रज्ज्वलित कर अर्पित करें।

जिस भवन में आप यह संस्कार कर रहे हैं, उस भवन के पश्चिम कक्ष में रात्रि में कोई रोशनी अवश्य करें।

यदि शिशु के दादा जीवित हों तो कोई लाल वस्त्र शिशु का हाथ लगवाकर उसके पिता को दिलवायें। फिर वह वस्त्र शिशु का पिता अपने पिता को उपहार में दे। इस उपाय से शिशु की आयु में वृद्धि होती है। यदि पिता के पिता जीवित न हों तो उसी अवस्था के किसी भी वृद्ध व्यक्ति को यह उपहार दिया जा सकता है।

इस संस्कार के साथ ही शिशु का पिता यदि अपने पिता का पूजन कर कोई वस्त्र उपहार में दे तो भी पिता व शिशु को सूर्यदेव का स्पष्ट आशीर्वाद प्राप्त होता है।

इस संस्कार के बाद आने वाले तीन रविवार को अवश्य ही सूर्यदेव को जल से अघ्र्य देना चाहिये तथा लाल बैल को गुड़ व गेहूं खिलाना चाहिये।

संस्कार के अगले रविवार को किसी निकट के रिश्तेदार (पिता के अतिरिक्त) से दिन के 12 बजे सवा किलो गुड़ शिशु का हाथ लगवाकर जल में प्रवाहित करने से भविष्य में शिशु व पिता के संबंध अवश्य ही मधुर रहते हैं।

संस्कार के भोजन में यदि शिशु का पिता अपने किसी युवा क्षत्रिय मित्र को भोजन करा कर कोई उपहार देता है तो भी सूर्यदेव का स्पष्ट आशीर्वाद प्राप्त होता है

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