जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से कुशा का आध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्त्व…..

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से कुशा का आध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्त्व…..

कुशा का आध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्त्व

कुश / कुशा एक घास है। इसका वैज्ञानिक नाम Eragrostis cynosuroides है। उत्तराखण्ड में इसको कांस कहते हैं।

अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है।

इसको कुश ,दर्भअथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है।

मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई।

इसके सिरे नुकीले होते हैं उखाडते समय सावधानी रखनी पडती है कि जड सहित उखडे और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना ।” ऊँ हुम् फट ” मन्त्र का उच्चारण करते हुए उत्तराभिमुख होकर कुशा उखाडी जाती है ।

भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं ।

कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् की सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। कुशा प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं।

केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।

केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।

कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं।

कुशा आसन का महत्त्व
कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32 अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता।

उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।

इसपर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है।

कुशा की पवित्री का महत्त्व
कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है।

सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।

कुशा जिसे सामन्य घांस समझा जाता है उसका बहुत ही बड़ा महत्व है , कुशा के अग्र भाग जोकी बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं l तीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र इसीलिए कहा जाता है।

कुशा महिलाओं की सुरक्षा करनें में राम बाण है जब लंका पति रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता “इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर “” उससे बात करती थी , जिसके कारण रावण सीता के निकट नहीं पहुँच सका l

आज भी मातृ शक्ति अपने पास कुशा रखे तो अपने सतीत्व की रक्षा सहज रूप से कर सकती है क्योंकि कुशा में वह शक्ति विद्यमान है जो माँ बहिनों पर कुदृष्टि रखने वालों को उनके निकट पहुंचने भी नहीं देती l

जो माँ या बहिन मासिक विकार से परेशान है उन्हें कुशा के आसन और चटाई का विशेष दिनों में प्रयोग करना चाहीये।

पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है।

कुशा से सम्बन्धित प्रचलित कथा

महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं।

महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए।

कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा।

विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे।

गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया।

यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए।

उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा।

कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है.l

‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।

जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए।

कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधन की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है।

वेदों ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।

कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।

हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश (विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसका धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है।

कुश जब पृथ्वी से उत्पन्न होती है तो उसकी धार बहुत तेज होती है। असावधानी पूर्वक इसे तोडऩे पर हाथों को चोंट भी लग सकती है।

पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने का कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था।

वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता।

पांच वर्ष की आयु के बच्चे की जिव्हा पर शुभ मुहूर्त में कुशा के अग्र भाग से शहद द्वारा सरस्वती मन्त्र लिख दिया जाए तो वह बच्चा कुशाग्र बन जाता है।

कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।

कुशोत्पाटिनी या कुशाग्रहणीअमावस्या
भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है। खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।

ऐसे दें कुश को निमंत्रण

कुश के पास जाएं और श्रद्धापूर्वक उससे प्रार्थना करें, कि हे कुश कल मैं किसी कारण से आपको आमंत्रित नहीं कर पाया था जिसकी मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन आज आप मेरे निमंत्रण को स्वीकार करें और मेरे साथ मेरे घर चलें। फिर आपको ऊं ह्रूं फट् स्वाहा इस मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।।
अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिए।

दस प्रकार के होते हैं कुश

शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है।

कुशा, काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा, सबल्वजा।।

यानि कुश, काश , दूर्वा, उशीर, ब्राह्मी, मूंज इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है। इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है, कुश की पवित्री उंगली में पहनते हैं तो वहीं कुश के आसन भी बनाए जाते हैं।

कौन सा कुश उखाड़ेंं

कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।

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