जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी की रोचक कहानी
शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी की रोचक कहानी
प्राचीनकाल में देवताओं और राक्षसों के कई युद्ध हुए. इन युद्धों में कभी देवता जीतते और कभी राक्षस. लेकिन एक समय ऐसा आया कि राक्षसों की शक्ति तेजी से बढ़ने लगी. इसका कारण था मृतसंजीवनी विद्या. राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य को भगवान शिव के आशीर्वाद से मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान मिल गया था. अब युद्ध में जो राक्षस मर जाते, शुक्राचार्य उन्हें फिर से जीवित कर देते.
देवताओं के लिए यह बड़ी समस्या बन गयी. क्या उपाय किया जाये. देवताओं के गुरु बृहस्पति भी इस विद्या से अनजान थे. देवगुरु बृहस्पति को एक उपाय सूझा. उन्होंने अपने पुत्र कच से कहा कि वो जाकर गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बन जाए और मृतसंजीवनी विद्या सीखने का प्रयास करे. बृहस्पति जानते थे कि यह कार्य इतना आसान नहीं होगा. उन्होंने अपने पुत्र कच से कहा कि अगर वो किसी प्रकार शुक्राचार्य की सुन्दर पुत्री देवयानी को प्रभावित या आकर्षित कर लेता है तो संभवतः काम आसान हो जाये.
देवयानी और कच
कच जाकर गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बन गया. कच एक तेजस्वी युवक था. देवयानी कच को मन ही मन चाहने लगी पर यह बात उसने किसी से कही नही. इसी बीच राक्षसों को यह बात पता चल गयी कि देवगुरु का पुत्र कच शुक्राचार्य से शिक्षा ले रहा है. राक्षस समझ गये कि कच का उद्देश्य तो मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान पाना है. राक्षसों ने निर्णय लिया कि कच का जीवित रहना विनाशकारी हो सकता है अतः वो चुपचाप कच को मारने की योजना बनाने लगे.
एक दिन राक्षसों ने कच को पकड़कर उसका वध कर दिया. देवयानी ने जब यह जाना तो उसने रो-रोकर पिता से कच को पुनर्जीवित करने की याचना की. शुक्राचार्य देवयानी का कच के प्रति प्रेम समझ गये, हारकर उन्होंने कच को जीवित कर दिया. इस बात से राक्षस चिढ गये, उन्होंने कुछ दिन बाद पुनः कच को मृत्यु के घाट उतार दिया. लेकिन शुक्राचार्य भी क्या करते, पुत्री मोह में उन्हें पुनः कच को जीवित करना पड़ा.
अब तो राक्षस क्रोधित ही हो गये. उन्होंने सोचा जो भी हो जाये कच को रास्ते से हटाना ही होगा. उन्होंने तीसरी बार कच को मार डाला. इस बार राक्षसों ने चालाकी की. राक्षसों ने कच को मारकर उसके शरीर को जला दिया और राख को एक पेय में मिलाकर अपने गुरु शुक्राचार्य को ही पिला दिया. राक्षसों ने सोचा चलो अब तो छुट्टी हो गयी कच की. लेकिन देवयानी ?
देवयानी ने जब कच को कहीं न पाया तो वो समझ गयी कि क्या हुआ होगा. देवयानी ने पुनः अपने पिता शुक्राचार्य से विनती की कि वो कच का पता करें. शुक्राचार्य महान ऋषि थे. उन्होंने अपने तपोबल की शक्ति से कच का आवाहन किया तो उन्हें खुद के पेट से कच की आवाज़ आई. शुक्राचार्य दुविधा में पड़ गये. अगर वो कच को जीवित करते हैं तो वो स्वयं मर जायेंगे. अतः उन्होंने कच की आत्मा को मृतसंजीवनी का ज्ञान दे दिया. कच अपने गुरु शुक्राचार्य का पेट फाड़कर बाहर आ गया और शुक्राचार्य मर गये. कच ने मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग किया और गुरु शुक्राचार्य को जीवित कर दिया।
कच ने शुक्राचार्य को जीवित करके शिष्य के धर्म को निभाया अतः शुक्राचार्य ने कच को आशीर्वाद दिया. देवयानी कच को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने कच से विवाह करने की इच्छा जताई. जवाब में कच ने सत्य का उद्घाटन किया कि यहाँ आने का उसका उद्देश्य (मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान) तो पूरा हो चुका, अब वो वापस देवलोक जा रहा है. इसके साथ ही कच ने यह भी कहा कि चूंकि वो शुक्राचार्य के पेट से निकला है अतः शुक्राचार्य उसके पिता समान हुए. इस प्रकार देवयानी कच की बहन हुई इसलिए वो अपनी बहन से शादी कैसे कर सकता है.
देवयानी को इस बात से गहरा आघात पहुंचा. क्रोध और शोक में देवयानी ने कच को श्राप दिया कि वो कभी भी मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग नही कर पायेगा. कच इस बात से चकित रहा गया, चिढ़कर उसने भी देवयानी को श्राप दिया कि जो जिस भी व्यक्ति से विवाह करेगी उसका चरित्र अच्छा नहीं होगा.
देवयानी और शर्मिष्ठा
कच के चले जाने के बाद देवयानी व्यथित मन से जीवन व्यतीत करने लगी. एक दिन देवयानी राजकुमारी शर्मिष्ठा के साथ वन में स्नान करने गयी. राजकुमारी शर्मिष्ठा असुर राजा वृषपर्वा की पुत्री थी. राजा वृषपर्वा गुरु शुक्राचार्य का बहुत सम्मान करते थे और उन्हें मुख्य सलाहकार नियुक्त किये थे. इसी कारण देवयानी और शर्मिष्ठा में पहचान और मित्रता थी.
जब लडकियाँ स्नान कर रही थीं तो जोर ही हवा चली, जिससे नदी के बाहर रखे उनके सूखे कपड़े इधर-उधर बिखरने लगे. जब देवयानी ने नदी से बाहर आकर कपड़े पहने तो गलती से उसने शर्मिष्ठा के वस्त्र पहन लिए. हवा की वजह से सब कपड़े आपस में मिल गये थे अतः देवयानी से यह भूल हो गयी. शर्मिष्ठा ने जब यह देखा कि देवयानी ने उसके वस्त्र पहन लिए तो उसने चिढ़कर कहा – राजकुमारी के कपड़े पहनने से तुम राजकुमारी नहीं बन जाओगी, तुम्हारे पिता मेरे पिता के सेवक ही हैं तो तुम भी सेविका ही हो.
देवयानी एक अति सुन्दर युवती थी, राजकुमारी के वस्त्र पहनने से उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गयी थी. Sharmistha भी रूपवती थी पर उसे देवयानी से स्त्रीस्वभाव वश जलन हुई. स्नान करके लौटते समय गुस्से और जलन से भरी शर्मिष्ठा ने देवयानी को एक सूखे कुँए में धकेल दिया और अपनी दसियों के साथ वापस नगर आ गयी.
कुँवा बहुत गहरा नहीं था अतः देवयानी बच तो गयी लेकिन वो उस कुवें से बाहर नही निकल पायी. गिरने से लगी चोट से कराहती देवयानी बचाव की गुहार लगने लगी. संयोगवश उसी जंगल में युवा राजा ययाति शिकार खेल रहे थे. राजा ययाति महान प्रतापी राजा नहुष के पुत्र थे. जब ययाति कुवें के पास से गुजरे तो उन्होंने देवयानी की करुण पुकार सुनी. राजा ययाति ने देवयानी का हाथ पकड़कर, कुवें से बाहर निकाल कर उसकी प्राण-रक्षा की.
राजा ययाति एक सुदर्शन पुरुष थे. उनके सुंदर व्यक्तित्व से देवयानी प्रभावित होकर बोली – आपने मेरा हाथ पकड़ा ही है तो अब छोड़िये नहीं, आप मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कीजिये. ययाति भी देवयानी के रूप, यौवन पर मुग्ध थे. जब उन्हें पता चला कि देवयानी गुरु शुक्राचार्य की पुत्री है तो वो असमंजस में पड़ गये. ययाति ने देवयानी से कहा कि यद्यपि वो देवयानी से विवाह करना चाहते हैं पर गुरु शुक्राचार्य को यह सम्बन्ध स्वीकार नहीं होगा. अतः मैं यह विवाह करने में असमर्थ हूँ. यह कहकर दुखी मन से राजा ययाति ने देवयानी से विदा ली.
जीवन में पुनः दूसरी बार देवयानी का तिरस्कार हुआ. अपमान, दुःख-शोक के सागर में डूबी देवयानी वहीँ कुँए के पास बैठकर रोने लगी. उधर जब शाम ढले देवयानी जंगल से वापस नहीं आई तो शुक्राचार्य को चिंता हुई. शुक्राचार्य देवयानी को खोजने निकल पड़े. वन में जब उन्हें देवयानी मिली तो उसकी हालत देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ. देवयानी के कपड़े गंदे, शरीर में चोट लगी और सुन्दर मुख अश्रुओं में डूबा हुआ था.
अपनी प्रिय पुत्री की यह दशा देखकर शुक्राचार्य बहुत दुखी हुए. उन्होंने देवयानी से पूछा कि उसकी इस दयनीय स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है. देवयानी ने राजकुमारी शर्मिष्ठा की बात बताई और कहा कि –राजकुमारी ने मुझे एक सेवक की पुत्री कहा और मेरा अपमान किया. मैं यहाँ से तब तक नहीं हिलूंगी, जब तक राजकुमारी शर्मिष्ठा मेरी दासी नहीं बन जाती. यह एक अवांक्षित इच्छा थी पर गुरु शुक्राचार्य इस स्थिति में अपनी प्रिय पुत्री को न कैसे कहते.
शुक्राचार्य ने राजा वृषपर्वा को संदेश भेजा कि वो उनके राज्य में वापस ही नहीं लौटेंगे अगर देवायनी के इच्छानुसार राजकुमारी शर्मिष्ठा देवयानी की सेविका नहीं बनी तो. राजा वृषपर्वा यह बात जानते थे कि गुरु शुक्राचार्य के बिना असुरों का पतन निश्चित था. राजकुमारी शर्मिष्ठा भी यह बात जानती थी. अतः अपने वंश और राक्षस जाति के लिए उसने आखिरकार देवायनी की सेविका बनना स्वीकार कर लिया.
दिन बीतने लगे. एक दिन देवयानी उसी वन में घूम रही थी कि पुनः उसकी मुलाकात राजा ययाति से हो गयी. देवयानी और ययाति दोनों एक दूसरे को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए. इस बार देवयानी ययाति को अपने साथ लेकर पिता शुक्राचार्य के पास पहुंची और ययाति से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की. गुरु शुक्राचार्य ने देवयानी की इच्छा स्वीकार की पर उन्होंने ययाति के सामने शर्त रखी कि जीवन में कभी भी ययाति की वजह से देवयानी के आंख से एक भी अश्रु बहना नहीं चाहिए. ययाति ने यह शर्त सहर्ष मान ली अतः देवयानी और ययाति का विवाह हो गया.
देवयानी से विवाह के बाद राजा ययाति वापस अपने राज्य प्रतिष्ठानपुर (आधुनिक इलाहाबाद शहर) वापस लौट गये और आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे. देवयानी के साथ सेविका राजकुमारी शर्मिष्ठा भी आई थी. दासी होने के बावजूद चूँकि शर्मिष्ठा एक राजकुमारी थी, अतः उसे भी रहने के लिए एक अच्छा महल दे दिया गया था.
एक दिन शर्मिष्ठा अपने उद्यान में घूम रही थी कि उसका सामना उधर से गुजरते राजा ययाति से हो गया. कच के श्राप का असर कहें या शर्मिष्ठा की सुन्दरता या विधि का खेल. राजा ययाति शर्मिष्ठा की सुन्दरता पर मोहित हो गये. शर्मिष्ठा भी ययाति की ओर आकर्षित थी. शर्मिष्ठा ने ययाति से विनती की कि वो उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उससे विवाह कर लें. इच्छा तो ययाति की भी थी पर वो यह जानते थे कि देवयानी को पता चला तो बहुत क्रोधित होगी. देवयानी को कष्ट हुआ तो गुरु शुक्राचार्य का रोष ययाति पर टूटेगा.
शर्मिष्ठा ययाति से कहती है – राजधर्म के अनुसार यह बात जरा भी अनुचित नहीं कि एक राजा एक राजकुमारी से विवाह कर लें अगर दोनों के मन में एक ही भाव हो तो. हम दोनों के मन में एक ही भावना है इसलिए हमें निः संकोच विवाह कर लेना चाहिए. आखिरकार ययाति शर्मिष्ठा की बातों से निरुत्तर हो गये और दोनों ने गुपचुप गंधर्व विवाह कर लिया.
कुछ दिन बाद देवयानी गर्भवती हुई और उसके दो पुत्र हुए – यदु और तुर्वस्तु. उधर शर्मिष्ठा ने भी 3 पुत्रों को जन्म दिया – पुरु, अनु और द्रुह्यु. देवयानी को जब पता चला कि शर्मिष्ठा के पुत्रों के पिता ययाति हैं तो उसने यह बात शुक्राचार्य से बताई. क्रोधित शुक्राचार्य ने राजा ययाति को श्राप दे दिया कि वो तुरंत ही एक वृद्ध पुरुष बन जाये।
देवयानी ने जब देखा कि उसका युवा, सुंदर पति अब एक कुरूप बूढ़ा व्यक्ति हो गया है तो उसे कष्ट हुआ. देवयानी ने पिता शुक्राचार्य से विनती की कि वो अपना श्राप वापस ले लें. शुक्राचार्य बोले – मेरा श्राप तो वापस नही हो सकता, हाँ अगर ययाति का कोई पुत्र अपनी इच्छा से अपना यौवन ययाति को दे दे तो ययाति फिर से युवा हो जायेगा.
भोग में डूबे ययाति का मन यौवन के आनंद से भरा नहीं था. वो बड़े आत्मविश्वास से अपने बड़े पुत्र यदु के पास गया और यौवन देने की बात कही. यदु ने ययाति को मना कर दिया. इसी प्रकार तुर्वस्तु, अनु, द्रुह्यु ने भी ययाति के आग्रह को ठुकरा दिया. अंत में ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु से याचना की. पुरु ने सहर्ष अपने पिता की बात मान ली और यौवन दे दिया. उसी पल ययाति पुनः युवा बन गये और पुरु एक वृद्ध व्यक्ति बन गया.
ययाति ने आनंदपूर्वक 100 साल तक यौवन का उपभोग किया. 100 वर्ष पूरे होने के बाद भी ययाति ने जब अपने को असंतुष्ट पाया तो वह सोच में पड़ गया. उसे समझ आया कि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, लाख मन की कर लो मगर फिर कोई नयी इच्छा पैदा हो जाती है. ऐसे कामनाओं के पीछे भागना व्यर्थ है. अतः ययाति ने अपने पुत्र पुरु के पास वापस जाकर उसे उसका यौवन वापस करने की सोची.
जब पुरु को अपने पिता ययाति की इच्छा पता चली तो उसने कहा – अपने पिता के आज्ञा का पालन तो मेरा कर्तव्य था, आप अगर चाहें तो कुछ समय और आनंद भोग करें, मुझे कोई कष्ट नही है. ययाति ने जब यह बात सुनी तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई. ययाति पुरु की उदारता से बहुत प्रभावित हुए और सबसे छोटा होने के बावजूद उन्होंने पुरु को अपना उत्तराधिकारी घोषित का दिया.
ययाति ने पुरु को उसका यौवन वपस लौटा दिया. पुनः वृद्ध रूप में आकर ययाति देवयानी और शर्मिष्ठा के साथ राज्य छोड़कर वानप्रस्थ हो गये. आगे चलकर राजा ययाति के पाँचों पुत्रों ने 5 महानतम वंश का निर्माण किया.
राजा यदु – यदु वंश (यादव)
राजा तुर्वस्तु – यवन वंश (तुर्क)
राजा अनु – म्लेच्छ वंश (ग्रीक)
राजा द्रुह्यु – भोज वंश
राजा पुरु – पौरव वंश या कुरु वंश.