धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से महर्षि नारद जन्मोत्सव विशेष
महर्षि नारद जन्मोत्सव विशेष
नारद मुनि ब्रह्माण्ड के प्रथम संवाद दाता।
नारद, देवताओं के ऋषि हैं। इसी कारण नारद जी को देवर्षि नाम से भी पुकारा जाता हैं। इनका जन्म ब्रह्माजी की गोद से हुआ था।
पुराणों के अनुसार हर साल ज्येष्ठ के महीने की कृष्णपक्ष प्रतिपदा को नारद जयंती मनाई जाती है। क्या आप जानते हैं नारद को ब्रह्मदेव का मानस पुत्र भी माना जाता है. ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण कर रहे थे तब उनके चार पुत्र हुए। जो बड़े होने पर तपस्या करने के लिए चले गये। ब्रह्मा के सभी पुत्रों में से नारद सबसे चंचल स्वभाव के थे वह किसी की बात नहीं मानते थे। जब ब्रह्मा ने अपने पुत्र नारद से सृष्टि के निर्माण में सहयोग करने के लिए विवाह करने की बात कही तब नारद ने अपने पिता को साफ मना कर दिया। जिस पर क्रोधित होकर भगवान ब्रह्मा ने उन्हें आजीवन अविवाहित रहने का श्राप दे दिया। नारद मुनि को श्राप देते हुए ब्रह्मा ने कहा तुम हमेशा अपनी जिम्मेदारियों से भागते हो इसलिए अब पूरी जिंदगी इधर उधर भागते ही रहोगे। अन्य कथा अनुसार दक्ष प्रजापति ने भी इन्हें श्राप दिया था इसका उल्लेख आगे मिलेगा।
नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है।
देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के 26 वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – देवर्षीणाम्चनारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।
वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।
इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप – इनके पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलहके पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है – देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारदजी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, 25,000 श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण 22,000 श्लोकों वाला है। 3,000 श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग 750 श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारदजी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।
विभिन्न धर्मग्रन्थों मे
नारद मुनि को देवर्षि कहा गया है। विभिन्न धर्मग्रन्थों में इनका उल्लेख आता है। कुछ उल्लेख निम्न हैं:
अथर्ववेद के अनुसार नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं।ऐतरेय ब्राह्मण के कथन के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे।मैत्रायणी संहिता में नारद नाम के एक आचार्य हुए हैं।सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रू प में नारद का वर्णन मिलता है।छान्दोग्यपनिषद् में नारद का नाम सनत्कुमारों के साथ लिखा गया है।महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण मिलता है। इसके अनुसार उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया।नारद पंचरात्र के नाम से एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ भी है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है।नारद पुराण के नाम से एक ग्रन्थ मिलता है। इस ग्रन्थ के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं।कुछ स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रू प में माना है।नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। इसके अलावा इस स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके भी वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है। नारद स्मृति की इन व्यवस्थाओं पर मनु स्मृति का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है।
श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार
देवर्षि नारद का नाम दिव्य ऋषि के रू प में भी वर्णित है। ये ब्रह्मधा के मानस पुत्र थे। नारद का जन्म ब्रह्मधा की जंघा से हुआ था। इन्हें वेदों के संदेशवाहक के रू प में और देवताओं के संवाद वाहक के रू प में भी चित्रित किया गया है। नारद देवताओं और मनुष्यों में कलह के बीज बोने से कलिप्रिय अथवा कलहप्रिय कहलाते हैं। मान्यता के अनुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के चारों ओर स्थित बीस पर्वतों में से एक का नाम नारद है।मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में से एक का नाम भी नारद है। चार शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी का नाम नारदा है।रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच कहते हैं। जल के हाथी को भी नाराच कहा जाता है। स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाम नाराचिका अथवा नाराची है।मनुस्मृति के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम नारायण है जो नर के साथी थे। नारायण ने ही अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था। विष्णु के एक विशेषण के रूप में भी नारायण शब्द का प्रयोग किया जाता है।
नारद जी के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें
नारद, देवताओं के ऋषि हैं. इसी कारण नारद जी को देवर्षि नाम से भी पुकारा जाता हैं।
अगर आप नारद जी के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो आपको ‘नारद पुराण’ जरूर पढ़ना चाहिए यह एक वैष्णव पुराण है।
कहा जाता है कि कठिन तपस्या के बाद नारद जी को ब्रह्मर्षि पद प्राप्त हुआ था।
नारद जी बहुत ज्ञानी थे, इसी कारण दैत्य हो या देवी-देवता सभी वर्गों में उनको बेहद आदर और सत्कार किया जाता था।
नारद मुनि के श्राप के कारण ही राम को देवी सीता से वियोग सहना पड़ा था।
दक्ष ने भटकते रहने का दिया श्राप: नारद मुनि हमेशा नारायण नारायण कहते इधर उधर भटकते रहते थे। उनके ऐसा करने के पीछे भी एक कथा है। दरअसल, राजा दक्ष की पत्नी आसक्ति ने 10 हज़ार पुत्रों को जन्म दिया था। लेकिन इनमें से किसी ने भी उनका राज पाट नहीं संभाला क्योंकि नारद जी ने सभी को मोक्ष की राह पर चलना सीखा दिया था। इसके बाद दक्ष ने पंचजनी से विवाह किया और उन्होंने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया। नारद जी ने दक्ष के इन पुत्रों को भी सभी प्रकार के मोह माया से दूर रहना सिखा दिया। इस बात से राजा दक्ष को बहुत क्रोध आया, जिसके बाद उन्होंने नारद मुनि को श्राप दे दिया और कहा कि वह हमेशा इधर-उधर भटकते रहेंगे ।
देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवान्नाम का संकीर्तन करने के लिये आये।
नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गये।भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें शूद्र होने का शाप दे दिया।उस शाप के प्रभाव से नारद जी का जन्म एक शूद्रकुल में हुआ।जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्युहो गयी। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगी।
एक दिन इनके गाँव में कुछ महात्मा आये
और चातुर्मास्य बिताने के लिये वहीं ठहर गये। नारद जी बचपन से ही अत्यन्त सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे।
संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो ये तन्मय होकर सुना करते थे।संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये दे देते थे।साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है।
उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र
हो गया और इनके समस्त पाप धुल गये।जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें
भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप
के ध्यान का उपदेश दिया।
एक दिन साँप के काटने से इनकी माता
जी भी इस संसार से चल बसीं।अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम
अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े।
एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे,अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्यस्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिये नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी।वे बार-बार अपने मन को समेटकर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे,किन्तु सफल नहीं हुए।
उसी समय आकाशवाणी हुई-
”हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।”
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ विष्णवे नम: