— कुल्हड़ में मिलता था छेने का गुलाबजल की खुश्बू से तर मिठास रसगुल्ला
सोनभद्र- टांड़ का डौर कब रॉबर्ट्सगंज नाम से मशहूर हुआ इसकी पूरी दास्ताँ बताने वाले रामनारायण दुबे को लोग रसगुल्ला पण्डित के नाम से ही जानते थे। कभी कमला मार्केट में तो कभी पन्नूगंज सड़क के किनारे मेन चौक से पूरब तरफ उनकी दुकान थी। बहुत कम लोग जानते है कि वे स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारियों के साथ कानपुर लखनऊ में सक्रिय भूमिका निभा चुके थे। 1962 में चीन के साथ सैनिक के रूप में लड़ चुके रसगुल्ला पण्डित चिड़ चिड़े स्वभाव के थे। प्रायः वे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की चीन नीतियों की कटु आलोचना करने में कोई कोताही नही करते थे। यह संस्मरण शनिवार को सुना रहे थे रामललित देव पाण्डेय जो अब तक 90 बसंत देख चुके है ।
सदर ब्लॉक अंतर्गत बभनौली कला गांव के इस पुरनियां के पास रसगुल्ला पण्डित से जुड़े अनेक संस्मरण हैं। कहते है उस समय कोई मंत्री या बड़ा आदमी आता था तो छेना का सफेद रसगुल्ला पण्डित जी की दुकान से ही जाता था । पण्डित कमलापति त्रिपाठी जब भी रॉबर्ट्सगंज के प्रवास पर आते थे तो रसगुल्ला रसगुल्ला पण्डित के यहाँ से ही हांडी या पुरवा में जाता था। मिर्जापुर के कल्टर रहे शांति प्रकाश जैन दक्षिणांचल के दौरे पर आते थे तो सिंचाई डांक बंगले में एक हड़ियाँ रसगुल्ला विप्रे चौबे ले जाते थे। चीन के साथ हुए युद्ध की चर्चा करने पर वे क्रुद्ध हो जाया करते थे वे बताते थे कि पहनने के लिए पाँव में जूते तक नही थे तीन तीन दिन तक भोजन के लिए भटकना पड़ता था। बैरक के साथी मारे जा रहे थे मोर्चा छोड़ कर भागना पड़ा था मलेट्री की ओर से मुकदमा चला सफाई देने के बाद भगोड़ा के आरोप से हम लोग मुक्त हुए। बहुत से लोग परिचित होंगे पण्डित जी की दुकान पर कोई सहयोगी नही रहता था वे अकेले अपनी दुकान चलाते थे छेना फाड़ने से लेकर दूध गरमाने और रसगुल्ला बनाने तक का सभी काम करते थे। ऑल इण्डिया रेडियो से यदि समाचार आ रहा हो तो रामनरायन किसी भी ग्राहक को कुछ नही देते थे डिस्टर्ब करने पर डांट कर भगा देते थे। समाचार वाचक देवकीनंदन पाण्डेय की आवाज में समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न रहते थे बताते थे कि सीमा पर हम सैनिकों के लिए रेडियो ही एक सहारा हुआ करता था। उन्हें लगातार भैस का दूध देने वाले राम ललित कहते है कि सभी दूध देने वाले उनसे डरते रहते थे वे अचानक कराहा में एक किलो दूध गर्माकर खोआ बनाकर चेक करते थे एक किलो दूध में यदि 250 ग्राम खोआ नही पड़ा तो पैसा काट लेते थे। महीने में एक दिन रसगुल्ला भरपेट खिलाते थे फ्री में। उनकी दुकान पर पानी अपने से लेना पड़ता था और पुरवा एक ड्रम में ही फेंकना पड़ता था। बताया जाता है अचानक रसगुल्ला पण्डित न जाने कहाँ चले गए। उनकी दुकान कब कैसे बंद हो गई इसके बारे में कोई अधिक नही जानता उनके परिवार के बारे में बताया जाता है इलाहाबाद में कोई रहता था लेकिन इनका सम्बन्ध किसी से नही था ।