जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से देवर्षि नारदजी को आनन्दरसमयी श्रीराधिका के दर्शन

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से देवर्षि नारदजी को आनन्दरसमयी श्रीराधिका के दर्शन



भाद्रपद शुक्ल अष्टमी चन्द्रवार (सोमवार) को मध्याह्न के समय अनुराधा नक्षत्र में श्रीराधा का प्राकट्य कालिन्दीतट पर स्थित रावल ग्राम में ननिहाल में हुआ। प्राकट्य के समय अकस्मात् प्रसूतिगृह में एक ऐसी दिव्य ज्योति फैली कि जिसके तेज से अपने-आप ही सबकी आंखें मुँद गईं। इसी समय ऐसा भान हुआ कि कीर्तिदाजी के प्रसव हुआ है। पर प्रसव में केवल हवा निकली और जब कीर्तिदा तथा पास में उपस्थित गोपांगनाओं के नेत्र खुले, तब उनको वायु में कम्पन-सा दिखाई दिया और उसमें सहसा एक परम दिव्य लावण्यमयी बालिका प्रकट हो गयी। रानी कीर्तिदा ने यही समझा कि इस बालिका का जन्म मेरे ही उदर से हुआ है। उस कन्या का रूप मन को हरने वाला था। उन्होंने मंगलविधान कराके पुत्री के कल्याण की कामना से दो लाख गायों के दान का संकल्प किया। राधिकाजी के पृथ्वी पर प्रकट होने पर नदियां स्वच्छ हो गयीं। सम्पूर्ण दिशाओं में आनन्द फैल गया। कमल की गन्ध से युक्त वायु बहने लगी। आकाश से देवतागणों ने नन्दनवन के इतने सुगन्धित और सुकोमल पुष्पों की वर्षा की कि चारों ओर ढेर-के-ढेर पुष्प स्वयं ही सुन्दर ढंग से सुसज्जित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय जो आनन्द की रसधारा बही थी, वही आनन्द-रस आज हृदयेश्वरी श्रीराधा के प्राकट्य पर समुद्र बनकर उमड़ने लगा। सभी दिशाओं में जयघोष होने लगा। श्रृंगी, गर्ग और दुर्वासा आदि मुनि पहले से ही पधारे हुए थे। उन्होंने उस बालिका के ग्रह-नक्षत्र देखकर कुण्डली बनाई। देवर्षि नारद भी आनन्दरसमयी श्रीराधिका के दर्शन के लिए आये। देवताओं को भी जिनका दर्शन मिलना कठिन है, वे ही राधिकाजी गोपराज वृषभानु के यहां स्वयं प्रकट हुईं।
देवर्षि नारद यह जानकर कि श्रीकृष्ण का प्राकट्य हो चुका है, वीणा बजाते हुए गोकुल में नन्दजी के यहां पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि योगमाया के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण बालक का रूप धारण करके सोने के पलंग पर, जिस पर कोमल श्वेत वस्त्र बिछे थे, सो रहे हैं और गोपबालिकाएं आनन्दमग्न हो लगातार उन्हें निहार रही थीं। भगवान का शरीर अत्यन्त सुकुमार था; जैसे वे भोले थे, वैसी ही उनकी चितवन भी बड़ी भोली-भाली थी। उनके काले-काले घुंघराले बाल मुख पर बिखरे हुए थे। बीच-बीच में मुसकराहट के कारण उनके दो-एक दांत दिखाई दे जाते थे। उन्हें नग्न बालरूप में देखकर नारदजी को बहुत ही हर्ष हुआ। उन्होंने नन्दजी से कहा–’तुम्हारे पुत्र के अतुलनीय प्रभाव को इस जगत में कोई नहीं जानता। शिव, ब्रह्मा आदि देवता भी इस विचित्र बालक में अनुराग रखना चाहते हैं। इसका चरित्र सभी के लिए आनन्ददायी है। अत: तुम परलोक की चिन्ता छोड़ दो और अनन्यभाव से इस दिव्य बालक में प्रेम करो। यह कहकर नारदजी नन्दभवन से निकलकर मन-ही-मन सोचने लगे–’जब भगवान का अवतार हो चुका है तो उनकी प्रियतमा भी भगवान की क्रीडा के लिए गोपी रूप धारणकर निश्चय ही प्रकट हुई होंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अत: व्रजवासियों के घरों में उन्हें खोजना चाहिए।’
इसके बाद नारदजी नन्दबाबा के मित्र गोपश्रेष्ठ वृषभानुजी के घर गये और उनसे पूछा कि क्या उन्हें कोई पुत्र या पुत्री पैदा हुई है। पहले तो वृषभानुजी अपने पुत्र को लेकर आए। उसे देखकर नारदजी ने कहा–’तुम्हारा यह पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण का श्रेष्ठ सखा होगा।’ फिर अपनी कन्या श्रीकृष्णात्मा, नित्य-श्रीकृष्णवल्लभा श्रीराधा का दर्शन कराने के लिए देवर्षि नारद को गोपश्रेष्ठ वृषभानु घर के भीतर ले गये। वहां पृथ्वी पर सोयी हुई जगज्जननी, सौन्दर्य की प्रतिमा नवजात कन्या को देखकर नारदजी मुग्ध हो गए और मन में विचार करने लगे–मैंने समस्त लोकों में भ्रमण किया पर इसके समान अलौकिक सौन्दर्यमयी कन्या कहीं भी नहीं देखी। भगवती पार्वती को भी मैंने देखा है, वह भी इसकी शोभा को नहीं पा सकतीं। इस कन्या के दर्शनमात्र से श्रीकृष्ण के चरणकमलों में मेरे प्रेम की जैसी वृद्धि हुई है, वैसी इसके पहले कभी नहीं हुई थी। इसका रूप श्रीकृष्ण को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाला होगा। अत: मैं एकान्त में इनकी स्तुति करूंगा।
वृषभानुजी को किसी कार्य से बाहर भेजकर नारदजी ने बालिका को गोद में उठा लिया और उसकी स्तुति करने लगे।।

‘देवि ! तुम माया की अधीश्वरी, महान तेज का पुंज और महान माधुर्य की वर्षा करने वाली हो। तुम्हारा हृदय अद्भुत रसानन्द से पूर्ण रहता है। मेरे किसी महान सौभाग्य से आज तुम मेरे नेत्रों के सामने प्रकट हुई हो। सृष्टि, स्थिति और संहार तुम्हारे ही स्वरूप हैं। बड़े-बड़े योगीश्वरों के ध्यान में भी तुम कभी नहीं आतीं। तुम्हीं सबकी अधीश्वरी हो। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति–ये सब तुम्हारे ही अंशमात्र हैं। भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन में तुम्हारे साथ ही क्रीडा करते हैं। कुमारावस्था में ही तुम अपने सुन्दर रूप से विश्व को मुग्ध कर रही हो। न जाने यौवन का स्पर्श होने पर तुम्हारा रूपलावण्य कैसा विलक्षण होगा। तुम्हारा जो स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को परम प्रिय है, मैं उसका दर्शन करना चाहता हूँ। अत: हरिवल्लभे ! दया करके इस समय अपना वह मनोहर रूप प्रकट करो, जिसे देखकर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भी मोहित हो जायेंगे।’
ऐसा कहकर नारदजी श्रीकृष्ण का ध्यान करके उनके गुणों का गान करने लगे–’भक्तों के चित्त को चुराने वाले श्रीकृष्ण ! वृन्दावन के प्रेमी गोविन्द ! बांकी भौंहों वाले, वंशीबजैया, मोरमुकुट धारण करने वाले गोपीमोहन ! अपने किशोरस्वरूप से भक्तों के मन को चुराने वाले चित्त के चुरैया ! वह दिन कब आयेगा जब मैं तुम्हारी ही कृपा से तुम्हें तरुणावस्था की मनोहर शोभा से युक्त इस दिव्य बालिका के साथ देखूंगा।’
नारदजी जब इस प्रकार स्तुति कर रहे थे तब उस वृषभानुसुता ने चौदहवर्षीय परम लावण्यमयी बालिका का रूप धारण कर लिया। तत्काल ही उन्हीं के समान अवस्था व दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित दूसरी व्रजबालाएं भी वहां आ पहुँची और वृषभानुसुता को चारों ओर से घेर कर खड़ी हो गयीं। यह दृश्य देखकर नारदजी निश्चेष्ट से हो गये तब उन सखियों ने दिव्य बालिका के चरणोदक का छींटा नारदजी को दिया और कहने लगीं–
‘देवर्षि ! ब्रह्मा, रूद्र आदि देवता, सिद्ध, मुनि और भगवतद्भक्तों के लिए भी जिसे देखना व जानना कठिन है, वही अपनी अद्भुत अवस्था और रूप से सबको मोहित करने वाली श्रीकृष्णप्रियतमा हमारी सखी आज तुम्हारे समक्ष प्रकट हुईं हैं। यह निश्चय ही तुम्हारे किसी अचिन्त्य सौभाग्य का प्रभाव है। शीघ्र ही इनकी प्रदक्षिणा कर प्रणाम करो, यह इसी क्षण अन्तर्ध्यान हो जायेंगी।’
प्रेमविह्वल नारदजी ने बालिका की प्रदक्षिणाकर साष्टांग प्रणाम किया और फिर गोपश्रेष्ठ वृषभानु को बुलाकर कहा–’तुम्हारी इस कन्या का स्वरूप और स्वभाव दिव्य है। देवता भी इसका महत्व नहीं जान सकते। जिस घर में इसका चरणचिह्न है, वहां साक्षात् भगवान नारायण निवास करते हैं। समस्त सिद्धियों सहित लक्ष्मी भी वहां रहती है। अब से तुम सम्पूर्ण आभूषणों से भूषित इस सुन्दरी कन्या की परादेवी की भांति यत्नपूर्वक अपने घर में रक्षा करो।’ ऐसा कहकर नारदजी हरिगुण गाते चले गये।

जय श्री राधे जय श्री श्याम

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