जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से आमलकी एकादशी….

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से आमलकी एकादशी ……



वैदिक ज्योतिष के अनुसार एकादशी व्रत उदया तिथि में रखा जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, 24 मार्च की सुबह 10 बजकर 21 मिनट तक दशमी थी, उसके बाद एकादशी तिथि लग गई है। जो कि 25 मार्च की सुबह 09 बजकर 45 मिनट तक रहेगी। ऐसे में 25 मार्च को उदया तिथि में ही एकादशी व्रत रखना उत्तम है।

आमलकी एकादशी का शुभ मुहूर्त

एकादशी तिथि प्रारंभ: 24 मार्च सुबह 10 बजकर 21 मिनट से।

एकादशी तिथि समाप्त: 25 मार्च 2021 को सुबह 9 बजकर 45 मिनट तक।

पारण का समय: 26 मार्च 2021 को सुबह 6 बजकर 15 मिनट से सुबह 8 बजकर 20 मिनट तक।

महात्म्य

आमलकी यानी आंवला को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।

आमलकी एकादशी व्रत विधि

स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलता पूर्वक पूरा हो इसके लिए श्री हरि मुझे अपनी शरण में रखें। संकल्प के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान की पूजा करें।
भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमत्रित करें। कलश में सुगन्धी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश के कण्ठ में श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुराम जी की पूजा करें। रात्रि में भगवत कथा व भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें।

द्वादशी के दिन प्रात: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें।

आमलकी एकादशी व्रत कथा

अट्ठासी हजार ऋषियों को सम्बोधित करते हुए सूतजी ने कहा – “हे विप्रो! प्राचीन काल की बात है। महान राजा मान्धाता ने वशिष्ठजी से पूछा- ‘हे वशिष्ठजी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसे व्रत का विधान बताने की कृपा करें, जिससे मेरा कल्याण हो।’

महर्षि वशिष्ठजी ने कहा – ‘हे राजन! सब व्रतों से उत्तम और अंत में मोक्ष देने वाला आमलकी एकादशी का व्रत है।’

राजा मान्धाता ने कहा- ‘हे ऋषिश्रेष्ठ! इस आमलकी एकादशी के व्रत की उत्पत्ति कैसे हुई? इस व्रत के करने का क्या विधान है? हे वेदों के ज्ञाता! कृपा कर यह सब वृत्तांत मुझे विस्तारपूर्वक बताएं।’

महर्षि वशिष्ठ ने कहा- ‘हे राजन! मैं तुम्हारे समक्ष विस्तार से इस व्रत का वृत्तांत कहता हूँ- यह व्रत फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में होता है। इस व्रत के फल के सभी पाप समूल नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का पुण्य एक हजार गौदान के फल के बराबर है। आमलकी (आंवले) की महत्ता उसके गुणों के अतिरिक्त इस बात में भी है कि इसकी उत्पत्ति भगवान विष्णु के श्रीमुख से हुई है। अब मैं आपको एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ। ध्यानपूर्वक श्रवण करो-

प्राचीन समय में वैदिक नामक एक नगर था। उस नगर में ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र, चारों वर्ण के लोग प्रसन्ततापूर्वक रहते थे। नगर में सदैव वेदध्वनि गूंजा करती थी।

उस नगरी में कोई भी पापी, दुराचारी, नास्तिक आदि न था।

उस नगर में चैत्ररथ नामक चंद्रवंशी राजा राज्य करता था। वह उच्चकोटि का विद्वान तथा धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था, उसके राज्य में कोई भी गरीब नहीं था और न ही कंजूस। उस राज्य के सभी लोग विष्णु-भक्त थे। वहां के छोटे-बड़े सभी निवासी प्रत्येक एकादशी का उपवास करते थे।

एक बार फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की आमलकी नामक एकादशी आई। उस दिन राजा और प्रत्येक प्रजाजन, वृद्ध से बालक तक ने आनंदपूर्वक उस एकादशी को उपवास किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में आकर कलश स्थापित करके तथा धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न, छत्र आदि से धात्री का पूजन करने लगा। वे सब धात्री की इस प्रकार स्तुति करने लगे- ‘हे धात्री! आप ब्रह्म स्वरूपा हैं। आप ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हो और सभी पापों को नष्ट करने वाली हैं, आपको नमस्कार है। आप मेरा अर्घ्य स्वीकार करो। आप श्रीरामचंद्रजी के द्वारा सम्मानित हैं, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरे सभी पापों का हरण करो।’

उस मंदिर में रात को सभी ने जागरण किया। रात के समय उस जगह एक बहेलिया आया। वह महापापी तथा दुराचारी था।

अपने कुटुंब का पालन वह जीव हिंसा करके करता था। वह भूख-प्यास से अत्यंत व्याकुल था, कुष्ठ भोजन पाने की इच्छा से वह मंदिर के एक कोने में बैठ गया।

उस जगह बैठकर वह भगवान विष्णु की कथा तथा एकादशी माहात्म्य सुनने लगा। इस प्रकार उस बहेलिए ने सारी रात अन्य लोगों के साथ जागरण कर व्यतीत की। प्रातःकाल सभी लोग अपने-अपने निवास पर चले गए। इसी प्रकार वह बहेलिया भी अपने घर चला गया और वहां जाकर भोजन किया।

कुछ समय बीतने के पश्चात उस बहेलिए की मृत्यु हो गई।

उसने जीव हिंसा की थी, इस कारण हालांकि वह घोर नरक का भागी था, परंतु उस दिन आमलकी एकादशी का व्रत तथा जागरण के प्रभाव से उसने राजा विदुरथ के यहां जन्म लिया। उसका नाम वसुरथ रखा गया। बड़ा होने पर वह चतुरंगिणी सेना सहित तथा धन-धान्य से युक्त होकर दस सहस्र ग्रामों का संचालन करने लगा।

वह तेज में सूर्य के समान, कांति में चंद्रमा के समान, वीरता में भगवान विष्णु के समान तथा क्षमा में पृथ्वी के समान था। वह अत्यंत धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णु-भक्त था। वह प्रजा का समान भाव से पालन करता था। दान देना उसका नित्य का कर्म था।

एक बार राजा वसुरथ शिकार खेलने के लिए गया। दैवयोग से वन में वह रास्ता भटक गया और दिशा का ज्ञान न होने के कारण उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया। कुष्ठ समय पश्चात पहाड़ी डाकू वहां आए और राजा को अकेला देखकर ‘मारो-मारो’ चिल्लाते हुए राजा वसुरथ की ओर दौड़े। वह डाकू कहने लगे कि इस दुष्ट राजा ने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्र आदि समस्त सम्बंधियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया। अब हमें इसे मारकर अपने अपमान का बदला लेना चाहिए।

इतना कह वे डाकू राजा को मारने लगे और उस पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार करने लगे। उन डाकुओं के अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर लगते ही नष्ट हो जाते और राजा को पुष्पों के समान प्रतीत होते। कुछ देर बाद प्रभु इच्छा से उन डाकुओं के अस्त्र-शस्त्र उन्हीं पर प्रहार करने लगे, जिससे वे सभी मूर्च्छित हो गए।

उसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य देवी प्रकट हुई। वह देवी अत्यंत सुंदर थी तथा सुंदर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत थी। उसकी भृकुटी टेढ़ी थी। उसकी आंखों से क्रोध की भीषण लपटें निकल रही थीं।

उस समय वह काल के समान प्रतीत हो रही थी। उसने देखते-ही-देखते उन सभी डाकुओं का समूल नाश कर दिया।

नींद से जागने पर राजा ने वहां अनेक डाकुओं को मृत देखा। वह सोचने लगा किसने इन्हें मारा? इस वन में कौन मेरा हितैषी रहता है?

राजा वसुरथ ऐसा विचार कर ही रहा था कि तभी आकाशवाणी हुई- ‘हे राजन! इस संसार मे भगवान विष्णु के अतिरिक्त तेरी रक्षा कौन कर सकता है!’

इस आकाशवाणी को सुनकर राजा ने भगवान विष्णु को स्मरण कर उन्हें प्रणाम किया, फिर अपने नगर को वापस आ गया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा।

महर्षि वशिष्ठ ने कहा- ‘हे राजन! यह सब आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था, जो मनुष्य एक भी आमलकी एकादशी का व्रत करता है, वह प्रत्येक कार्य में सफल होता है और अंत में वैकुंठ धाम को पाता है’।”

कथा-सार

भगवान श्रीहरि की शक्ति हमारे सभी कष्टों को हरती है। यह मनुष्य की ही नहीं, अपितु देवताओं की रक्षा में भी पूर्णतया समर्थ है। इसी शक्ति के बल से भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ नाम के राक्षसों का संहार किया था। इसी शक्ति से उत्पन्ना एकादशी बनकर मुर नामक असुर का वध करके देवताओं के कष्ट को हरकर उन्हें सुखी किया था।

भगवान जगदीश्वर जी की आरती

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥
जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।
सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय…॥

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।
तुम बिनु और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ ॐ जय…॥

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥
पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय…॥

तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय…॥

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय…॥

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय…॥

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय…॥

तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय…॥

जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी, मनवांछित फल पावे॥ ॐ जय…॥

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