जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से माघ मास महात्म्य उन्नीसवां अध्याय

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से माघ मास महात्म्य उन्नीसवां अध्याय



वह पाँचों कन्याएँ इस प्रकार विलाप करती हुई बहुत देर प्रतीक्षा करके अपने घर लौटी. जब घर में आईं तो माताओं ने कहा कि इतना विलम्ब तुमने क्यों कर दिया तब कन्याओं ने कहा कि हम किन्नरियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सरोवर पर थी और कहने लगी कि आज हम थक गई हैं और जाकर लेट गईं.

वशिष्ठजी कहते हैं कि इस प्रकार आशय को छुपाकर वह विरह की मारी पड़ गईं. उन्होंने घर में आकर किसी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की. वह रात्रि उनको एक युग के समान बीती. सूर्यनारायण के उदय होते ही वह अपने-आपको जीवित मानती हुई माताओं की आज्ञा लेकर गौरी-पूजन करने वह कन्याएँ वहाँ पर जाने लगी. उसी समय ब्राह्मण भी स्नान करने के लिए सरोवर पर आया. उसके आने पर कन्याओं ने वाह-वाह किया जैसे कमलिनी प्रात:काल सूर्योदय को देखकर कहती हैं. उसको देखकर उनके नेत्र खुल गए और उस ब्रह्मचारी के पास चली गई.

आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चारों तरफ से उसको घेर लिया और कहने लगी कि मूर्ख उस दिन तू भाग गया था लेकिन आज नहीं भाग सकता. हम लोगों ने तुमको घेर लिया है. ऎसे वचन सुनकर बाहुपाश में बंधे हुए ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा – तुमने जो कुछ कहा सो ठीक ही है परंतु मैं तो अभी विद्याभ्यास और ब्रह्मचारी हूँ. गुरुकुल में मेरा विद्याभ्यास पूरा नहीं हुआ है. पंडित को चाहिए कि जिस आश्रम में रहे उसके धर्म का पालन करें. इस आश्रम में मैं विवाह करना धर्म नहीं समझता. अपने व्रत का पालन करके और गुरु की आज्ञा पाकर ही विवाह कर सकता हूँ, उससे पहले नहीं कर सकता.

यह बात सुनकर वह कन्याएँ इस प्रकार बोली जैसे वैशाख मास में कोयल बोलती है. वह कहने लगी कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम और काम से धर्म के फल का प्रकाश होता है. ऎसा ही पंडित लोग और शास्त्र कहते हैं. हम काम सहित धर्म की अधिकता से आपके पास आई हैं. सो आप पृथ्वी के सब भोगों को भोगिए. उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारा वचन सत्य है किंतु मैं अपने व्रत को समाप्त करके ही विवाह कर सकता हूँ, पहले नहीं कर सकता तब वे कन्याएँ कहने लगी कि तुम मूर्ख हो. अनोखी औषधि, ब्रह्म बुद्धि, रसायन सिद्धि, अच्छे कुल की सुंदर नारियाँ तथा मंत्र जिस समय प्राप्त हों तब ही ग्रहण कर लेना चाहिए. कार्य को टालना अच्छा नहीं होता.

केवल भाग्य वाले पुरुष ही प्रेम से पूर्ण, अच्छे कुल से उत्पन्न स्वयं वर चाहने वाली कन्याओं को प्राप्त होते हैं. कहाँ हम अनोखी नारियाँ, कहाँ आप तपस्वी बालक. यह बेमेल का मेल मिलाने में विधाता की चतुराई ही है. इस कारण आप हम लोगों के साथ गंधर्व विवाह कर लें. इनके ऎसे वचन सुनकर उस धर्मात्मा ब्राह्मण ने कहा कि व्रती रहकर इस समय विवाह नहीं करुंगा. मैं स्वयंवर की इच्छा नहीं करता. इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन्होंने एक-दूसरे का हाथ छोड़कर उसको पकड़ लिया. सुशील और सुरस्वरा ने उसकी भुजाओं को पकड़ लिया. सुतारा ने आलिंगन किया और चंद्रिका ने उसका मुख चूम लिया परंतु फिर उसने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया कि तुम डायन की तरह मुझसे चिपटी हो इस कारण पिशाचिनी हो जाओ.

ऎसे श्राप देने पर वह उसको छोड़कर अलग खड़ी हो गई. उन्होंने कहा कि हम निरपराधियों को वृथा क्यों श्राप दिया. तुम्हारी इस धर्मज्ञता पर धिक्कार है. प्रेम करने वाले से बुराई करने वाले का सुख दोनों लोकों में नष्ट हो जाता है इसलिए तुम भी हम लोगों के साथ पिशाच हो जाओ. तब वे आपस के क्रोध से उस सरोवर पर पिशाच-पिशाचिनी हो गए और बस पिशाच-पिशाचिनी कठिन शब्दों से चिल्लाते हुए अपने कर्मों को भोगने लगे.

वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! इस प्रकार वह पिशाच उस सरोवर के इधर-उधर फिरते रहे. बहुत समय पश्चात मुनियों में श्रेष्ठ लोमश ऋषि पौष शुक्ला चतुर्दशी को उस अच्छोद सरोवर पर स्नान करने के लिए आए. जब क्षुधा से दुखी इन पिशाचों ने उनको देखा तो उनकी हत्या करने के लिए गोल बांधकर उनको चारों तरफ से घेर लिया. वेदनिधि ब्राह्मण भी वहाँ पर आ गए और उन्होंने लोमश ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया. वे पिशाच ऋषि के तेज के सामने ठहर न सके और दूर जाकर खड़े हो गए. वेदनिधि हाथ जोड़कर लोमश ऋषि से कहने लगे कि भाग्य से ही ऋषियों के दर्शन होते हैं. फिर उन्होंने गंधर्व कन्या और अपने पुत्र का परिचय देकर सब वृत्तांत सुनाया और कहा कि हे मुनिवर! यह सब ही श्राप मोहित होकर आपके सम्मुख खड़े हैं.

आज इन बालकों का निस्तार होगा जैसे सूर्योदय से अंधेरे का नाश हो जाता है. वशिष्ठजी कहने लगे कि पुत्र के दुख से दुखी हुए. वेदनिधि ब्राह्मण के ऎसे वचन सुनकर लोमश ऋषि के नेत्रों में जल भर आया और वेदनिधि से कहने लगे कि मेरे प्रसाद से बालकों को शीघ्र समृति पैदा हो, मैं उनका धर्म कहता हूँ जिससे इसका आपस का ज्ञान विलीन हो जाएगा.

क्रमशः…

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