जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से माघ मास महात्म्य अठारहवां अध्याय

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से माघ मास महात्म्य अठारहवां अध्याय



श्री वशिष्ठ ऋषि कहने लगे कि हे राजन! मैंने दत्तात्रेयजी द्वारा कहा माघ मास माहात्म्य कहा, अब माघ मास के स्नान का फल सुनो. हे परंतप! माघ स्नान सब यज्ञों, व्रतों का और तपों का फल देने वाला है. माघ मास में स्नान करने वाले स्वयं तो स्वर्ग में जाते ही हैं उनके माता और पिता दोनों के कुलों को भी स्वर्ग प्राप्त होता है. जो माघ मास में सूर्योदय के समय नदी आदि में स्नान करता है उसके माता-पिता के सात कुलों की पीढ़ी स्वर्ग को प्राप्त होती है. माघ मास में स्नान करने वाले दुराचारी और कुकर्मी मनुष्य भी पापों से मुक्त हो जाते हैं और इस मास में हरि का पूजन करने वाले पाप समुदाय से छूटकर भगवान के सदृश शरीर वाले हो जाते हैं. यदि कोई आलस से भी माघ में स्नान करता है उसके भी सब पाप नष्ट हो जाते हैं. जैसे गंधर्व कन्याएँ राजा के श्राप से भयंकर कल को भोगती हुई लोमश ऋषि के वचन से माघ में स्नान करने से पापों से छूट गईं.

यह वार्ता सुनकर राजा दिलीप विनय से पूछने लगा कि गुरुदेव! ये कन्याएँ किसकी थीं, उनको कब और कैसे श्राप मिला, उनके नाम क्या थे, ऋषि के वाक्य से कैसे श्राप मुक्त हुईं और उन्होंने कहाँ पर स्नान किया. आप विस्तारपूर्वक सब कथा कहिए. वशिष्ठजी कहने लगे हे राजा! जैसे अरणि से स्वयं अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही यह कथा धर्म और संतान उत्पन्न करती है. हे राजन! सुख संगीत नामक गंधर्व की कन्या का नाम विमोहिनी था, सुशीला तथा स्वर वेदी की सुम्बरा, चंद्रकांत की सुतारा तथा सुप्रभा की कन्या चंद्रका ये पाँच सब समान आयु वाली तथा चंद्रमा के समान कांति वाली और सुंदर थी. जैसे रात्रि को चंद्रमा शोभायमान होता है वैसे ही पुष्प की कलियों के समान खिली हुई यह अप्सराएँ थी.

ऊँचे पयोधर वाली पद्मनी वैशाख मास की कामिनी यौवन दिखाती हुई नवीन पत्तों वाली लता के सदृश, गोरे रंग, सोने के सदृश चमकती हुई और सोने के अलंकारों से सुशोभित, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए अनेक प्रकार के गाने और वीणा अथवा बांसुरी तथा दूसरे बाजे बजाने में प्रवीण और ताल, स्वर तथा नृत्य कला में निपुण थी. इस प्रकार वे कन्याएँ क्रीड़ा करती हुई कुबेर के स्थान में विचरती थी. एक समय कौतुकवश माघ मास में एक वन से दूसरे वन में विचरती हुई मंदिर के पुष्प तोड़कर सरोवर पर गौरी पूजा के लिए गईं. स्वच्छ जल के सरोवर में स्नान करके वस्त्र धारण कर, मौन हो, बालू मिट्टी की गौरी बनाकर चंदन, कपूर, कुंकुम और सुंदर कमलों से उपचार सहित पूजन करके ये पाँचों कन्याएँ ताल नृत्य करने लगी फिर ऊँचे गांधार स्वर में सुंदर गीत गाने लगी.

जब ये कन्याएँ नाचने और गाने में लीन थी तो उस समय अच्छोद नामक उत्तम तीर्थ में वेदनिधि नाम के मुनि के पुत्र अग्निप ऋषि स्नान को गए. वह युवा ऋषि सुंदर मुख, कमल सदृश नयन, विशाल छाती, सुंदर भुजाओं वाला, दूसरे कामदेव के समान था. शिखा सहित दंड लिए, मृगचर्म ओढ़े, यज्ञोपवीत धारण किए हुए था. उसको देखकर पाँचों कन्याएँ मुग्ध हो गई और उसका रूप व यौवन देखकर कामदेव से पीड़ित हो देखो-देखो ऎसा कहती हुई उस ब्राह्मण के चित्त में कामदेव का डर उत्पन्न करने लगी और आपस में विचार करने लगी कि यह कौन है. रति रहित होने से कामदेव नहीं और एक होने से अश्विनी कुमार नहीं. यह कोई गंधर्व या किन्नर या कामरुप धारण कर कोई सिद्ध या किसी ऋषि का श्रेष्ठ पुत्र या मनुष्य है. कोई भी हो ब्रह्माजी ने इसको हमारे लिए बनाया है.

जैसे पूर्व कर्म के प्रभाव से सम्पत्ति प्राप्त होती है वैसे ही गौरीजी ने हम कुमारियों के लिए श्रेष्ठ वर दिया है और आपस में यह तुम्हारा वर है या मेरा अथवा सबका ऎसा कहने लगी. जिस समय उस ऋषि पुत्र ने अपनी मध्यान्ह की क्रिया करके ऎसे वचन सुने तो वह सोचने लगा कि यह तो बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई. ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता तथा बड़े योगीश्वर भी स्त्रियों के भ्रमजाल में मोहित हो गए हैं. इनके तीक्ष्ण बाणों से किसका मनरूपी हिरण घायल नही हो सकता. जब तक नीति और बुद्धि रहती है तब तक पाप से भय रहता है. जब तक की गंभीरता रहती है यम विधि का पालन होता है, तब तक मनुष्य स्त्रियों के कामरुपी बाणों से बींधा नहीं जाता.

ये मुझे उन्मत्त और मुग्ध कर रही हैं. किन गुणों से धर्म की रक्षा हो सकती है. स्त्रियों के मांस, रक्त, मल, मूत्र से बने घृणित और अशुद्ध शरीर में कामी लोग ही सुंदरता की कल्पना करके रमन कर सकते हैं. शुद्ध बुद्ध वाले महात्माओं ने स्त्रियों के पास रहना कष्टकारक कहा है सो जब तक यह पास आए घर चले चलना चाहिए. अत: जब तक वह उसके पास आईं वह योग बल के द्वारा अंतर्ध्यान हो गया.

ऋषि पुत्र के ऎसे अद्भुत कर्म देखकर वह चकित होकर डरी हुई चारों ओर देखने लगी और आपस में कहने लगीं कि यह क्या इंद्रजाल था जो देखते-देखते विलीन हो गया और वह विरहा की अग्नि में जलने लगी और कहने लगी कि हे कांत! तुम हमको छोड़कर कहाँ चले गए? क्या तुमको ब्रह्मा ने हमको विरह रूपी अग्नि में जलाने के लिए बनाया था. क्या तुम्हारा चित्त दया रहित है जो हमारा चित्त दुखाकर चले गए. क्या तुमको हमारा विश्वास नहीं, क्या तुम कोई मायावी हो, बिना किसी अपराध के हम लोगों पर क्यों क्रोध करते हो. तुम्हारे बिना हम नहीं जिएंगी. जहाँ पर आप गए हो हमें शीघ्र ले चलो हमारा संताप हरो और हमें दर्शन दो, सज्जन लोग किसी का नाश नहीं देखते।

क्रमशः…

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