जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से क्या बिहारीजी भोग ग्रहण करते हैं? क्या वे साक्षात् हैं भी?

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से क्या बिहारीजी भोग ग्रहण करते हैं? क्या वे साक्षात् हैं भी?



बात कुछ ४५-५० वर्ष पुरानी है।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि श्री बाँके बिहारीजी की सेवा अभी गोस्वामी परिवार कर रहे हैं तो उस समय भी गोस्वामी परिवार ही बिहारीजी की सेवा में थे।
एक दिन अपने पिता के साथ सेवा में लगे एक लगभग पाँच वर्ष के गोस्वामी बालक के मन में आया कि हम जो बिहारीजी को भोग अर्पण करते हैं वो ये खाते भी हैं?
तो जिज्ञासा वश जब नहीं रहा गया तो उस बालक ने अपने पिता की बग़लबंदी का एक छोर पकड़ कर पूछा – बाबा! बिहारीजी खाते भी हैं?
पिता को बालक की मासूम बात पर प्रेम आ गया। चूँकि ब्रजवासी ठहरे तो अपनी भाषा में बोले, लाला! आज ये बात तेरे मन में कहाँ ते आ गयी?
बालक छटपटाकर बोला – बाबा! बताओ न!
पिताजी बोले – हाँ, वो भोग खाते हैं।
बालक ने कहा – पर कैसे बाबा? थाली तो ज्यों की त्यों आ जावे है बाहर!
पिताजी बोले – चल मेरे साथ!
हाथ पकड़ कर भीतर ले गए और राजभोग का समय हो चुका था। लगभग १० बजे के आसपास बिहारीजी का दर्शन २०-२५ मिनट के लिए राजभोग के लिए बंद होता है।
तो अब नित्य की भाँति हवेली से बिहारीजी का भोग आया और उन्हें धराकर सभी गोस्वामी जन वहाँ से हटकर दूसरे कक्ष में चले गए और राजभोग के पद गाए जाने लगे।
लगभग २० मिनट के बाद गोस्वामी जी अपने बेटे को लेकर बिहारीजी की तरफ़ बढ़े।
अब यह नियम है कि पहले बिहारीजी को आचमन कराया जाता है फिर प्रसाद की थाली पर नज़र आती है और उसे बाँटा जाता है।
तो गोस्वामी जी ने आचमन कराया और कहा देख लाला! अब बालक ने क्या देखा कि प्रसाद की थाल में वृंदावनी है, चावल है, सब्ज़ी है, पूरी है, मीठे में लड्डू हैं और उनमें से दो लड्डू ऐसे हैं जिनमें एक लगभग ७-८ वर्ष के बालक के दो दाँत गड़े हुए हैं, ऐसी आकृति बनी हुई है। बालक देखकर विस्मित हो गया। लेकिन बाबा उस दिन लगता है कृपा करने के मन से आए थे तो बोले – “और देखैगो ?”
बालक ने हाँ में सिर हिलाया।
तो पिताजी ने बालक को गोद में उठाया और बिहारीजी के मुख क़रीब करके कहा – लै देख लै!
तो बालक ने देखा कि जो बूंदी के लड्डू में दाँत के निशान पड़े थे, वही बूंदी के लड्डू के दाने बिहारीजी के मुख से लगे हुए हैं।
और एक विशेष बात और- जब बिहारीजी को भोग लगता है तो भीतर के द्वार भी बंद कर दिए जाते हैं। बाबा ने अंत में कहा – है गयी तसल्ली?
अर्थात् बिहारीजी साक्षात् हैं और आज भी नित्य प्रति भोग लगाते हैं।

भैया! यह कहानी कोई कपोलकल्पित घटना नहीं है। इस सत्य घटना में जो बालक है वो कोई और नहीं श्रद्धेय आचार्य गोस्वामी श्री मृदुल कृष्ण शास्त्री जी महाराज हैं।

और *वो पिता कोई साधारण पिता नहीं वो हैं नित्य निकुंजनिवासी वृंदावन-तिलक काव्यतीर्थ व्याकरण-आचार्य श्रद्धेय गोस्वामी श्री मूल बिहारी शास्त्री जी महाराज। जिनके बारे में कथा श्रोताओं का कहना था कि महाराज श्री! जब आप कथा करते हैं तो ऐसा लगता है मानो श्यामसुंदर मंद-मंद स्वर में वंशी बजा रहे हों।

कहने का अभिप्राय है सारा खेल भावनाओं का है। यदि बिहारीजी भोग लगा सकते हैं तो क्या हमारे घर में बैठे ठाकुर जी भोग नहीं लगाएँगे? बिलकुल लगाएँगे, लगाएँगे क्या , लगाते हैं, बस हम उनमें से मूर्ति भावना को अलग कर दें तो बात है, वे साक्षात् विराजमान हैं। ॥ जय श्री राधे ॥

Translate »