जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से कार्तिक माह माहात्म्य – उन्नीसवाँ अध्याय

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से कार्तिक माह माहात्म्य – उन्नीसवाँ अध्याय



श्री विष्णु मम् हृदय में, प्रेरणा करने वाले नाथ।
लिखूँ माहात्म कार्तिक, राखो सिर पर हाथ।।

राजा पृथु ने पूछा – हे नारद जी! अब आप यह कहिए कि भगवान विष्णु ने वहाँ जाकर क्या किया तथा जलन्धर की पत्नी का पतिव्रत किस प्रकार भ्रष्ट हुआ?
नारद जी बोले – जलन्धर के नगर में जाकर विष्णु जी ने उसकी पतिव्रता स्त्री वृन्दा का पतिव्रत भंग करने का विचार किया. वे उसके नगर के उद्यान में जाकर ठहर गये और रात में उसको स्वप्न दिया.
वह भगवान विष्णु की माया और विचित्र कार्यपद्धति थी और उसकी माया द्वारा जब वृन्दा ने रात में वह स्वप्न देखा कि उसका पति नग्न होकर सिर पर तेल लगाये महिष पर चढ़ा है. वह काले रंग के फूलों की माला पहने हुए है तथा उसके चारों हिंसक जीव हैं. वह सिर मुड़ाए हुए अन्धकार में दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है. उसने नगर को अपने साथ समुद्र में डूबा हुआ इत्यादि बहुत से स्वप्न देखे. तत्काल ही वह स्वप्न का विचार करने लगी. इतने में उसने सूर्यदेव को उदय होते हुए देखा तो सूर्य में उसे एक छिद्र दिखाई दिया तथा वह कान्तिहीन था।

इसे उसने अनिष्ट जाना और वह भयभीत हो रोती हुई छज्जे, अटारी तथा भूमि कहीं भी शान्ति को प्राप्त न हुई फिर अपनी दो सखियों के साथ उपवन में गई वहाँ भी उसे शान्ति नहीं मिली. फिर वह जंगल में में निकल गई वहाँ उसने सिंह के समान दो भयंकर राक्षसों को देखा, जिससे वह भयभीत हो भागने लगी. उसी क्षण उसके समक्ष अपने शिष्यों सहित शान्त मौनी तपस्वी वहाँ आ गया. भयभीत वृन्द उसके गले में अपना हाथ डाल उससे रक्षा की याचना करने लगी. मुनि ने अपनी एक ही हुंकार से उन राक्षसों को भगा दिया.
वृन्दा को आश्चर्य हुआ तथा वह भय से मुक्त हो मुनिनाथ को हाथ जोड़ प्रणाम करने लगी. फिर उसने मुनि से अपने पति के संबंध में उसकी कुशल क्षेम का प्रश्न किया. उसी समय दो वानर मुनि के समक्ष आकर हाथ जोड़ खड़े हो गये और ज्योंही मुनि ने भृकुटि संकेत किया त्योंही वे उड़कर आकाश मार्ग से चले गये. फिर जलन्धर का सिर और धड़ लिये मुनि के आगे आ गये तब अपने पति को मृत हुआ जान वृन्दा मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी और अनेक प्रकार से दारुण विलाप करने लगी. पश्चात उस मुनि से कहा – हे कृपानिधे! आप मेरे इस पति को जीवित कर दीजिए. पतिव्रता दैत्य पत्नी ऎसा कहकर दुखी श्वासों को छोड़कर मुनीश्वर के चरणों पर गिर पड़ी।

तब मुनीश्वर ने कहा – यह शिवजी द्वारा युद्ध में मारा गया है, जीवित नहीं हो सकता क्योंकि जिसे भगवान शिव मार देते हैं वह कभी जीवित नहीं हो सकता परन्तु शरणागत की रक्षा करना सनतन धर्म है, इसी कारण कृपाकर मैं इसे जिलाए देता हूँ।

नारद जी ने आगे कहा – वह मुनि साक्षात विष्णु ही थे जिन्होंने यह सब माया फैला रखी थी. वह वृन्दा के पति को जीवित कर के अन्तर्ध्यान हो गये. जलन्धर ने उठकर वृन्दा को आलिंगन किया और मुख चूमा. वृन्दा भी पति को जीवित हुआ देख अत्यन्त हर्षित हुई और अब तक हुई बातों को स्वप्न समझा. तत्पश्चात वृन्दा सकाम हो बहुत दिनों तक अपने पति के साथ विहार करती रही. एक बार सुरत एवं सम्भोग काल के अन्त में उन्हीं विष्णु को देखकर उन्हें ताड़ित करती हुई बोली – हे पराई स्त्री से गमन करने वाले विष्णु! तुम्हारे शील को धिक्कार है. मैंने जान लिया है कि मायावी तपस्वी तुम्हीं थे।

इस प्रकार कहकर कुपित पतिव्रता वृन्दा ने अपने तेज को प्रकट करते हुए भगवान विष्णु को शाप दिया – तुमने माया से दो राक्षस मुझे दिखाए थे वही दोनों राक्षस किसी समय तुम्हारी स्त्री ला हरण करेगें. सर्पेश्वर जो तुम्हारा शिष्य बना है, यह भी तुम्हारा साथी रहेगा जब तुम अपनी स्त्री के विरह में दुखी होकर विचरोगे उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेगें.
ऎसा कहती हुई पतिव्रता वृन्दा अग्नि में प्रवेश कर गई. ब्रह्मा आदि देवता आकाश से उसका प्रवेश देखते रहे. वृन्दा के शरीर का तेज पार्वती जी के शरीर में चला गया. पतिव्रत के प्रभाव से वृन्दा ने मुक्ति प्राप्त की।

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