जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से श्री कनक धारा स्तोत्रं

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से श्री कनक धारा स्तोत्रं…..



दीपावली की रात सिंह लग्न में कनकधारा स्तोत्र का पाठ सभी प्रकार के सुख सौभाग्य प्रदान करता है।

अङगं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङगाङगनेव मुकुलाभरणंतमालम्।
अङगीकृताखिलविभूतिरपाङगलीला माङगल्यदाऽस्तु मम मङगलदेवतायाः।। १।।
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः।। २।।
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ।। ३।।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनङगतन्त्रम्।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङगशयाङगनायाः।। ४।।
बाह्नन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः।। ५।।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदङगनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः।। ६।।
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्माङगल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः।। ७।।
दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिंचनविहङगशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः।। ८।।
इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः।। ९।।
गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै।। १०।।
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै।। ११।।
नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै।। १२।।
सम्पत्काराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये।। १३।।
यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः।
संतनोति वचनाङगमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।। १४।।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।। १५।।
दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङगीम्।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम्।। १६।।
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङिगतैरपाङगैः।
अवलोकय मामकिंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः।। १७।।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः।। १८।।
स्वर्णधारा स्त्रोतं यच्छंकराचार्य विर्निमितम।
त्रिःसन्ध्यंयः पठेन्नित्यं स कुबेर समो भवेन्नरः।। १९।।

इति श्रीकनकधारा लक्ष्मीस्तोत्रम्

श्री कनकधारा स्तोत्र का हिन्दी अनुवाद

जिस प्रकार भ्रमरी अर्ध विकसित पुष्पों से अलंकृत तमाल वृक्ष का आश्रय ग्रहण करती है, उसी प्रकार भगवान श्री विष्णु के रोमांच से शोभयमान लक्ष्मी की कटाक्ष लीला श्री अंगों पर अनवरत पड़ती रहती है और जिसमें समस्त ऐश्वर्य-ध-संपत्ति का निवास है। वह समस्त मंगलों की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी की कटाक्ष-लीला मेरे लिए मंगलदायिनी हो।

जिस प्रकार भ्रमरी कमलदल पर मंडराती है अर्थात बार-बार आती जाती रहती है उसी प्रकार भगवान मुरारी के मुखकमल की ओर प्रेम सहित जाकर और लज्जा से वापस आकर समुद्र-कन्या लक्ष्मी की मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे अतुल श्री ऐश्वर्य प्रदान करें।

जो समस्त देवों के स्वामी इन्द्रपद के वैभव का विलास अर्थात सुखोपभोग प्रदान करने में समर्थ है तथा मुर नामक दैत्य के शुत्र भगवान श्री हरि को भी अत्यंत आनंद प्रदान करने वाली है एवं नीलकमल जिस लक्ष्मी का सहोदर भ्राता है ऐसी लक्ष्मी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि किंचित क्षण के लिए मुझ पर थोड़ी अवश्य पड़े।

जिसकी पुतली एवं भौंहें काम के वशीभूत हो अर्ध विकसित एकटक नयनों को देखने वाले आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान मुकुन्द को अपने सन्निकट पाकर किंचित तिरछी हो जाती है। ऐसे शेषशायी भगवान विष्णु की अर्द्धंगिनी श्री लक्ष्मी जी के नेत्र हमें प्रभूत धन-संपत्ति प्रदान करने वाले हों।

जिन भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि से वशीभूत वक्षस्थल में इन्द्रनीलमय हारावली के समान सुशोभित होती है तथा उन भगवान के भी चित्त मे काम अर्थात स्नेह संचारिणी कमल कुंज निवासिनी लक्ष्मी की कटाक्ष माला मेरा मंगल करे।

जिस प्रकार मेघों की घनघोर घटा में बिजली चमकती है उसी प्रकार कैटभ दैत्य के शत्रु भी विष्णु भगवान के काली मेघपंक्ति के समान मनोहर वक्ष:स्थल पर आप विद्युत के समान देदीप्यमान होती हैं तथा जो समस्त लोकों की माता, भार्गव-पुत्री भगवती श्री लक्ष्मी की पूजनीयामूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।

समुद्रकन्या लक्ष्मी का वह मंदालस, मंथर, अर्धोंन्मीलित चंचल दृष्टि के प्रभाव से कामदेव ने मंगलमूर्ति भगवान मधुसूदन के हृदय में प्राथमिक (मुख्य) स्थान प्राप्त किया था। वही दृष्टि यहां मेरे ऊपर पड़े।

भगवान नारायण की प्रेमिका लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ, दाय रूपी अनुकूल वायु से प्रेरित होकर दुष्कर्म रूपी धाम को दीर्घकाल के लिए परे हटाकर विषादग्रस्त मुझ दीन-दुखी सदृश्य जातक पर धनरुपी जलधारा की वर्षा करे।

विलक्षण मतिमान मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी कृपा दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं कमलासना कमला लक्ष्मी की वह विकसित कमल गर्भ के सदृश्य कान्तिमती दृष्टि मुझे मनोSभिलाषित पुष्टि-सन्तत्यादि वृद्धि प्रदान करें।

जो भगवती लक्ष्मी वृष्टि-क्रीड़ा के अवसर पर वाग्देवता अर्थात ब्रह्म शक्ति के स्वरूप में विराजमान होती है और पालन-क्रीड़ा के समय पर भगवान गुरुड़ ध्वज अथवा विष्णु भगवान सुंदरी पत्नी लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति) के स्वरूप में स्थित होती है तथा प्रयल लीला के समय शाकंभरी (भगवती दुर्गा) अथवा भगवान शंकर की प्रिय पत्नी पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में विद्यमान होती है उन त्रिलोक के एकमात्र गुरु भगवान विष्णु की नित्ययौवन प्रेमिका भगवती लक्ष्मी को मेरा नमस्कार है।

हे लक्ष्मी! शुभकर्म फलदायक! श्रुति स्वरूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों के समुद्र स्वरूपा रति के रूपा में स्थित आपको नमस्कार है। शतपत्र कमल-कुंज में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा रमा को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तम श्री हरि की अत्यंत प्राणप्रिय पुष्टि-रूपा लक्ष्मी को नमस्कार है।

कमल के समान मुखवाली लक्ष्मी को नमस्कार है। क्षीर समुद्र में उत्पन्न होने वाली रमा को प्रणाम है। चंद्रमा और अमृत की सहोदर बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी को नमस्कार है।

हे कमलाक्षि! आपके चरणों में की हुई स्तुति ऐश्वर्यदायिनी और समस्त इंद्रियों को आनन्दकारिणी है तथा साम्राज्य अर्थात पूर्णाधिकार देने में सर्वथा समर्थ एवं संपूर्ण पापों को नष्ट करने में उद्यत है। माता, मुझे आपके चरण कमलों की वन्दना करने का सदा शुभ अवसर प्राप्त होते रहे।

जिनके कृपा-कटाक्ष (तिरक्षी चितवन) के लिए की गई उपासना (आराधना), सेवक (उपासक) के लिए समस्त मनोरथ और संपत्ति का विस्तार करती है, उस भगवान मुरारी की हृदयेश्वरी लक्ष्मी का मैं मन, वचन और काया से भजन करता हूं।

हे भगवती भगवान हरि को प्रिय पत्नी! आप कमल कुंज में निवास करने वाली हैं, आपके चरण कमलों में नीला कमल शोभायमान है। आप श्वेत वस्त्र तथा गन्ध माला आदि से सुशोभित हैं। आपकी सुंदरता अद्धितीय है। हे त्रिभुवन की वैभव प्रदायिनी! आप मेरे ऊपर प्रसन्न होइए।

दिग्गजों के द्वारा कनक कुंभ (सुवर्ण कलश) के मुख से पतित आकाशगंगा के स्वच्छ, मनोहर जल से जिस (भगवान) के श्री अंग का अभिषेक (स्नान) होता है उस समस्त लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु पत्नी, क्षीर सागर की पुत्री, जगन्माता लक्ष्मी को मैं प्रात:काल नमस्कार करता हूं।

हे कमलनयन भगवान विष्णु प्रिय लक्ष्मी! मैं दीन-हीन मनुष्यों में अग्रमण्य हूं इसलिए आपकी कृपा का स्वभाव सिद्ध पात्र हूं। आप उमड़ती हुई करुणा के बाढ़ की तरल तरंगों के सदृश्य कटाक्षों द्वारा मेरी दिशा में अवलोकन कीजिए।

जो मनुष्य इन स्तोत्रों के द्वारा नित्य प्रति वेदत्रयी स्वरूपा तीनों लोकों की माता भगवती रमा (लक्ष्मी) का स्तोत्र पाठ करते हैं वे भक्तगण इस पृथ्वी पर महागुणी और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं एवं विद्वद्जन भी उनके मनोगत भाव को समझने के लिए विशेष इच्छुक रहते हैं।

श्रीमान शंकराचार्य विरचित इस सुवर्ण, कनकधारा स्तोत्र का पाठ जो मनुष्य तीनों काल अर्थात प्रात: मध्याह्र एवं सायं में करते हैं वे लोग कुबेर के समान धनी होते हैं।

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