जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से वास्तुशास्त्र और आरोग्य

धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से वास्तुशास्त्र और आरोग्य



‘वास्तु’ शब्द का अर्थ है-निवास करना। जिस भूमि पर मनुष्य निवास करते हैं, उसे ‘वास्तु’ कहा जाता है। वास्तु शास्त्र में गृह-निर्माण सम्बन्धी विविध नियमों का प्रतिपादन किया गया है। उनका पालन करने से मनुष्य को अन्य कई प्रकार के लाभों के साथ-साथ आरोग्य लाभ भी होता है। वास्तु शास्त्र के विशेषज्ञ किसी मकान को देखकर यह बता सकता है कि इसमें निवास करने वाले को क्या क्या रोग हो सकते हैं। इस लेख में संक्षिप्त रूप से ऐसी बातों का उल्लेख करने की चेष्टा की जाती है, जिनसे पाठकों को इस बात का दिग्दर्शन हो जाय कि गृह-निर्माण में किन दोषों के कारण रोगों की उत्पत्ति होना सम्भव है ।

१. भूमि-परीक्षा भूमि के मध्य में एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा गड्ढा खोदे। खोदने के बाद निकाली हुई सारी मिट्टी पुनः उसी गड्ढे में भर दे। यदि घड़ा भरने से मिट्टी शेष बच जाय तो वह उत्तम भूमि है। यदि मिट्टी गड्ढे के बराबर निकलती है तो वह मध्यम भूमि है और यदि गड्ढे से कम निकलती है तो वह अधम भूमि है।

दूसरी विधि उपर्युक्त प्रकारसे गड्ढा खोदकर उसमें पानी भर दे और उत्तर दिशा की ओर सौ कदम चले, फिर लौटकर देखे। यदि गड्ढे में पानी उतना ही रहे तो वह उत्तम भूमि है। यदि पानी कम (आधा) रहे तो वह मध्यम भूमि है और यदि बहुत कम रह जाय तो वह अधम भूमि है। अधम भूमि में निवास करने से स्वास्थ्य और सुख की हानि होती है। ऊसर, चूहों के बिलवाली, बाँबीवाली, फटी हुई, ऊबड़-खाबड़, गढ़वाली और टीलों वाली भूमि का त्याग कर देना चाहिये। जिस भूमि में गड्ढा खोदने पर कोयला, भस्म, हड्डी, भूसा आदि निकले, उस भूमि पर मकान बनाकर रहने से रोग होते हैं तथा आयुका ह्रास होता है।

२. भूमिकी सतह पूर्व, उत्तर और ईशान दिशा में नीची भूमि सब दृष्टियों से लाभप्रद होती है। आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य और मध्य में नीची भूमि रोगों को उत्पन्न करने वाली होती है। दक्षिण तथा आग्नेय के मध्य नीची और उत्तर एवं वायव्य के मध्य ऊँची भूमि का नाम ‘रोग की वास्तु’ है, जो रोग उत्पन्न करती है

३. गृहारम्भ वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष और फाल्गुन मास में करना चाहिये। इससे आरोग्य तथा धन-धान्य की प्राप्ति होती है। नींव खोदते समय यदि भूमि के भीतर से पत्थर या ईंट निकले तो आयु की वृद्धि होती है। यदि राख, कोयला, भूसी, हड्डी, कपास, लोहा आदि निकले तो रोग तथा दुःख की प्राप्ति होती है।

४. वास्तुपुरुष के मर्म स्थान-सिर, मुख, हृदय, दोनों स्तन और लिङ्ग-ये वास्तु पुरुष के मर्म-स्थान हैं। वास्तुपुरुष का सिर ‘शिखी’ में, मुख ‘आप’ में, हृदय ‘ब्रह्मा ‘ में, दोनों स्तन ‘पृथ्वी धर’ तथा ‘अर्यमा ‘में और लिङ्ग ‘इन्द्र’ तथा ‘जय में है (चित्र में देखें-वास्तुपुरुष का चार्ट)। वास्तु पुरुष के जिस मर्म स्थान में कील, खम्भा आदि गाड़ा जायगा, गृहस्वामी के उसी अंग में पीड़ा या रोग उत्पन्न जायगा। वास्तु पुरुष का हृदय (माध्यिका ब्रह्म-स्थान) अतिमर्मस्थान है। इस जगह किसी दीवार, खम्भा आदि का निर्माण नहीं करना चाहिये। इस जगह जूठे बर्तन, अपवित्र पदार्थ भी नहीं रखने चाहिये। ऐसा करने पर अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

५. गृह का आकार चौकोर तथा आयताकार मकान उत्तम होता है। आयताकार मकान की चौड़ाई की दुगुनी से अधिक लम्बाई नहीं होनी चाहिये। कछुए के आकार वाला घर पीडादायक है। कुम्भ के आकार वाला घर कुष्ठरोग प्रदायक है। तीन तथा छ: कोण वाला घर आयु का क्षयकारक है। पाँच कोण वाला घर संतान को कष्ट देने वाला है। आठ कोण वाला घर रोग उत्पन्न करता है। घर के किसी एक दिशा में आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशाओं में समान रूप से बढ़ाना चाहिये। यदि घर वायव्य दिशा में आगे बढ़ाया जाय तो वात-व्याधि होती है। यदि वह दक्षिण दिशा में बढ़ाया जाय तो मृत्यु-भय होता है। उत्तर दिशा में बढ़ने पर रोगों की वृद्धि होती है।

६. गृहनिर्माण की सामग्री ईट, लोहा, पत्थर, मिट्टी और लकड़ी-ये नये मकान में नये ही लगाने चाहिये। एक मकान में उपयोग की गयी लकड़ी दूसरे मकान में लगाने से गृहस्वामी का नाश होता है।
मन्दिर, राजमहल और मठ में पत्थर लगाना शुभ है, पर घर में पत्थर लगाना शुभ नहीं है। पीपल, कदम्ब, नीम, बहेड़ा, आम, पाकर, गूलर, रीठा, वट, इमली, बबूल और सेमल के वृक्ष की लकड़ी के घर के काम में नहीं लेनी चाहिये।

७. गृह के समीपस्थ वृक्ष आग्नेय दिशा में वट, पीपल, सेमल, पाकर तथा गूलर का वृक्ष होने से पीडा और मृत्यु होती है। दक्षिण में पाकर-वृक्ष रोग उत्पन्न करता है। उत्तर में गर्म होने से नेत्र रोग होता है । बेर, केला, अनार, पीपल और नीबू-ये जिस घर में होते हैं, उस घर की वृद्धि नहीं होती। घर के पास काँटे वाले, दूध वाले और फल वाले वृक्ष हानिप्रद हैं। पाकड़, गूलर, आम, नीम, बहेड़ा, पीपल, कपित्थ, बेर, निर्गुण्डी, इमली, कदम्ब, बेल तथा खजूर – ये सभी वृक्ष घर के समीप अशुभ हैं।

८. गृह के समीपस्थ अशुभ वस्तु देव मंदिर, धूर्त का घर, सचिव का घर अथवा चौराहे के समीप घर बनाने से दुःख, शोक तथा भय बना रहता है।

९. मुख्य द्वार जिस दिशा में द्वार बनाना हो, उस ओर मकान की लम्बाई के बराबर नौ भागों में बाँटकर पाँच भाग दायें और तीन भाग बायें छोड़कर शेष (बायीं ओर से चौथे) भाग में द्वार बनाना चाहिये। दायाँ और बायाँ भाग उसको माने, जो घर से बाहर निकलते समय हो। पूर्व अथवा उत्तर में स्थित द्वार सुख-समृद्धि देने वाला होता है। दक्षिण में स्थित द्वार विशेष रूप से स्त्रियों के लिये दुःखदायी होता है।

द्वार का अपने-आप खुलना या बंद होना अशुभ है। द्वार का अपने-आप खुलने से उन्माद-रोग होता है और अपने-आप बंद होने से दुःख होता है।

१०. द्वार-वेध मुख्य द्वार के सामने मार्ग या वृक्ष होने से गृहस्वामी को अनेक रोग होते हैं। कुआँ होने से मृगी तथा अतिसार रोग होता है। खम्भा एवं चबूतरा होने से मृत्यु होती है। बावड़ी होने से अतिसार एवं सन्निपात रोग होता है। कुम्हार का चक्र होने से हृदय रोग होता है। शिला होने से पथरी रोग होता है। भस्म होने से बवासीर रोग होता है। यदि घर की ऊंचाई से दुगुनी जमीन छोड़कर वेध वस्तु हो तो उसका दोष नहीं लगता।

११. गृह में जल-संस्थान कुआँ या भूमिगत टंकी पूर्व, पश्चिम, उत्तर अथवा ईशान दिशा में होनी चाहिये। जलाशय या ऊर्ध्व टंकी उत्तर या ईशान दिशा में होनी चाहिये। यदि घर के दक्षिण दिशा में कुआँ हो तो अद्भुत रोग होता है। नैर्ऋत्य दिशा में कुआं होने से आयु का क्षय होता है।

१२. घर में कमरों की स्थिति यदि एक कमरा पश्चिम में और एक कमरा उत्तर में हो तो वह गृहस्वामी के लिये मृत्युदायक होता है। इसी तरह पूर्व और उत्तर दिशा में कमरा हो तो आयु का हास होता है। पूर्व और दक्षिण दिशा में कमरा हो तो वात रोग होता है। यदि पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में कमरा हो, पर दक्षिण में कमरा न हो तो सब प्रकार के रोग होते हैं।

१३. ग्रह के आन्तरिक कक्ष स्नान घर ‘पूर्व’ में, रसोई “आग्रेय में, शयनकक्ष ‘दक्षिण ‘में, शस्त्रागार, सूतिका गृह, गृह-सामग्री और बड़े भाई या पिता के कक्ष ‘नैर्ऋत्य में. शौचालय नैर्ऋत्य’, ‘वायव्य’ या ‘दक्षिण-मैर्ऋत्य में, भोजन करने का स्थान ‘पश्चिम में, अन्न-भण्डार तथा पशु-गृह ‘वायव्य में, पूजागृह ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में, जल रखने का स्थान ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में, धन का संग्रह ‘उत्तर’ में और नृत्यशाला ‘पूर्व, पश्चिम, वायव्य या आग्नेय’ में होनी चाहिये। घर का भारी सामान नैर्ऋत्य दिशा में रखना चाहिये।

१४. जानने योग्य आवश्यक बातें-ईशान दिशा में पति-पत्नी शयन करें तो रोग होना अवश्यम्भावी है। सदा पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर करके सोना चाहिये। उत्तर या पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से शरीर में रोग होते हैं तथा आयु क्षीण होती है।

दिन में उत्तर की ओर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये। दिन में पूर्व की ओर तथा रात्रि में पश्चिम की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करने से आधासीसी रोग होता है। दिन के दूसरे और तीसरे पहर यदि किसी वृक्ष, मन्दिर आदि की छाया मकान पर पड़े तो वह रोग उत्पन्न करती है।

एक दीवार से मिले हुए दो मकान यमराज के समान गृहस्वामी का नाश करने वाले होते हैं। । किसी मार्ग या गली का अन्तिम मकान कष्टदायी होता है। घर की सीढ़ियाँ (पग), खम्भे, खिड़कियाँ, दरवाजे आदि की ‘इन्द्र-काल-राजा’-इस क्रम से गणना करे। यदि अन्त में ‘काल’ आये तो अशुभ समझना चाहिये।

दीपक (बल्ब आदि) का मुख पूर्व तथा उत्तर की ओर रहना चाहिये।

दन्तधावन (दातुन), भोजन और क्षौरकर्म सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके ही करने चाहिए।

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