जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से एकादशमुखी हनुमानजी के रहस्य एवं कवच

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से एकादशमुखी हनुमानजी के रहस्य एवं कवच



एकादशमुखी हनुमानजी महात्म्य

शंकर जी बोले हे उमा ! परम भक्ति पद एकादश मुखी हनुमान जी का चरित्र ,इन्द्रियों से फ़ांस छुड़ाने वाला, इस संसार सागर से मोक्ष दिलाने वाला, सब संकट, दु:ख,ताप, भय को हरने वाला है। सुनो

दोहा भए पुकारत सुरन्ह सब, त्राहि त्राहि परमेश।
सीय रमन करुन अयन, हरहु हमर कलेश।।

शिवजी कहते है कि – कालकारमुख नामक एक भयानक बलवान राक्षस हुआ। ग्यारह मुख वाले उस विकराल राक्षस ने बहुत काल तक ब्रम्हा जी की कठोर ताप किया। उसके ताप से प्रसन्न हो कर ब्रम्हा जी ने कालकार मुख राक्षस से कहा की हे तात मुझसे वर मांगो।

असुर बोला कि हे कर्तार-आप मुझे ऐसा वर दीजिये -“मुझे कोई भी जीत न पावे ,रण में सामने काल भी क्यों न हो! जो मेरे जनम की तिथि पर ग्यारह मुख धारण करे वही मुझे मारे “तथास्तु कहकर चतुरानन ब्रम्हा जी अन्तर्ध्यान हो गए।

वरदान पाकर अभिमानी असुर जगत में मनमानी करने लगा। उसने देवताओ के सभी अधिकार छीन लिए तथा श्रुतियो के सभी आचार भ्रष्ट कर दिए। संसार अति त्रस्त हो गया एवं अपार हाहाकार मच गया। सभी देहधारियो ,देवताओ ने पुकारा हे परमेश्वर बचाओ हे करुणा के घर सीतारमण जू हमारे क्लेश हरिये।

दोहा निशिचरपति के कंठ पुनि,झपटि गहेउ हनुमंत।
उदेउ गगन महँ ताहि ले,अतिशय वेग तुरंत।।

शिवजी कहते है कि -हे भवानी ! देवताओ की आर्त वाणी को सुनकर प्रभु रामजी ने हनुमान जी से कहा -“हे-कपि ! महावीर! हनुमान !अतुलित बल,बुद्धि, तथा ज्ञान के निधान तुम्हारा नाम संकट मोचन है उसे यथार्थ करो। धर्म भारी संकट में पड़ गया है उसे निस्तार करो “

प्रभु की आज्ञा सादर शिरोधार्य कर कपीश हनुमान जी ने एकादश मुख रूप ग्रहण करके, जगत में सुख की राशि बनकर चैत्र पूर्णिमा को शनिश्चर के दिन -उस राक्षस के जनम तिथि एवं दिन के समय प्रकट हुए देवताओ को जय एवं सुख की शिला देने ! यह सुनते ही असुर अपने संग विशाल सेना लिए दौड़ा ! दुष्ट को देखकर कुपित हनुमंत जू तुरंत अनल के समान भभक उठे तथा क्षण में उन्होंने सभी खल-दल को नस्ट कर दिया, देखकर आकाश में देवता प्रफुल्लित हुए !फिर हनुमंत जू ने झपटकर राक्षसपति के कंठ पकडे और उसे लेकर तुरंत अतिशय वेग से गगन में उड़े !

दोहा -देवी धसि पताल महँ , पड़तहि चाप महान ! एकादश मुख धारिके , बैठी रहेउ हनुमान

॥ एकादशमुखिहनुमत्कवचम् ॥

यह कवच महात्मा अगस्त्य जी ने लोपामुद्रा ने उनसे अभिलाषा कही थी जिसके उत्तर मे ब्रह्माजी के द्वारा कथित यह कवच बताया था
ब्रह्माजी के द्वारा कथित यह कवच वाद-विवाद, भयानक दुःख-कष्ट, ग्रहभय, जलभय ,सर्पभय,राजभय, शस्त्रभय किसी भी प्रकार का भय इसके पाठ करने से नहीं रहता
तीनो संध्यो में इसका पाठ करने निःसंदेह लाभ मिलता है। इस कवच को विभीषण ने छंदोबद्ध किया था और गरुड़जी ने लेखन करवाया था। इस कवच के माहात्म्य के अनुसार जो इसका नित्य पाठ करेगा उसके हाथो में सभी सिद्धिया निवास करेगी। इसलिए सिद्धिया प्राप्त करने वाले साधक अभिलाषी को इसका अवश्य नित्य पाठ करना चाहिए।

॥ एकादशमुखिहनुमत्कवचम् ॥ (रुद्रयामलतः) पाठ

ॐ श्रीसमस्तजगन्मङ्गलात्मने नमः ।

श्रीदेव्युवाच

शैवानि गाणपत्यानि शाक्तानि वैष्णवानि च ।
कवचानि च सौराणि यानि चान्यानि तानि च ॥ १॥

श्रुतानि देवदेवेश त्वद्वक्त्रान्निःसृतानि च ।
किञ्चिदन्यत्तु देवानां कवचं यदि कथ्यते ॥ २॥

ईश्वर उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।
हनुमत्कवचं पुण्यं महापातकनाशनम् ॥ ३॥

एतद्गुह्यतमं लोके शीघ्रं सिद्धिकरं परम् ।
जयो यस्य प्रगानेन लोकत्रयजितो भवेत् ॥ ४॥

ॐ अस्य श्रीएकादशवक्त्रहनुमत्कवचमालामन्त्रस्य
वीररामचन्द्र ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः । श्रीमहावीरहनुमान् रुद्रो देवता ।
ह्रीं बीजं । ह्रौं शक्तिः । स्फें कीलकम् ।
सर्वदूतस्तम्भनार्थं जिह्वाकीलनार्थं,
मोहनार्थं राजमुखीदेवतावश्यार्थं
ब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीभूतप्रेतादिबाधापरिहारार्थं
श्रीहनुमद्दिव्यकवचाख्यमालामन्त्रजपे विनियोगः ।

ॐ ह्रौं आञ्जनेयाय अङ्गुष्ठभ्यां नमः ।
ॐ स्फें रुद्रमूर्तये तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ स्फें वायुपुत्राय मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ स्फें अञ्जनीगर्भाय अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ स्फें रामदूताय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं ब्रह्मास्त्रादिनिवारणाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रौं आञ्जनेयाय हृदयाय नमः ।
ॐ स्फें रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा ।
ॐ स्फें वायुपुत्राय शिखायै वषट् ।
ॐ ह्रौं अञ्जनीगर्भाय कवचाय हुम् ।
ॐ स्फें रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ह्रौं ब्रह्मास्त्रादिनिवारणाय अस्त्राय फट् ।
इति न्यासः ।

अथ ध्यानम् ।

ॐ ध्यायेद्रणे हनुमन्तमेकादशमुखाम्बुजम् ।
ध्यायेत्तं रावणोपेतं दशबाहुं त्रिलोचनं
हाहाकारैः सदर्पैश्च कम्पयन्तं जगत्त्रयम् ।
ब्रह्मादिवन्दितं देवं कपिकोटिसमन्वितं
एवं ध्यात्वा जपेद्देवि कवचं परमाद्भुतम् ॥

दिग्बन्धाः

ॐ इन्द्रदिग्भागे गजारूढहनुमते ब्रह्मास्त्रशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेतालसमूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ अग्निदिग्भागे मेषारुढहनुमते अस्त्रशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ यमदिग्भागे महिषारूढहनुमते खड्गशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र-पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनी डाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ निऋर्तिदिग्भागे नरारूढहनुमते खड्गशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र-पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहो च्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ वरुणदिग्भागे मकरारूढहनुमते प्राणशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ वायुदिग्भागे मृगारूढहनुमते अङ्कुशशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ कुबेरदिग्भागे अश्वारूढहनुमते गदाशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ ईशानदिग्भागे राक्षसारूढहनुमते पर्वतशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ अन्तरिक्षदिग्भागे वर्तुलहनुमते मुद्गरशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ भूमिदिग्भागे वृश्चिकारूढहनुमते वज्रशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

ॐ वज्रमण्डले हंसारूढहनुमते वज्रशक्तिसहिताय चौरव्याघ्र-पिशाच ब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिनी वेताल समूहोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।

मालामन्त्रः। । ।

ॐ ह्रीं यीं यं प्रचण्डपराक्रमाय एकादशमुखहनुमते हंसयतिबन्ध-मतिबन्ध-वाग्बन्ध-भैरुण्डबन्ध-भूतबन्धप्रेतबन्ध-पिशाचबन्ध-ज्वरबन्ध-शूलबन्धसर्वदेवताबन्ध-रागबन्ध-मुखबन्ध-राजसभाबन्धघोरवीरप्रतापरौद्रभीषणहनुमद्वज्रदंष्ट्राननाय
वज्रकुण्डलकौपीनतुलसीवनमालाधराय सर्वग्रहोच्चाटनोच्चाटनाय
ब्रह्मराक्षससमूहोच्चाटानाय ज्वरसमूहोच्चाटनाय राजसमूहोच्चाटनाय
चौरसमूहोच्चाटनाय शत्रुसमूहोच्चाटनाय दुष्टसमूहोच्चाटनाय
मां रक्ष रक्ष स्वाहा ॥ १ ॥

ॐ वीरहनुमते नमः ।
ॐ नमो भगवते वीरहनुमते पीताम्बरधराय कर्णकुण्डलाद्याभरणालङ्कृतभूषणाय किरीटबिल्ववनमालाविभूषिताय कनकयज्ञोपवीतिने कौपीनकटिसूत्रविराजिताय
श्रीवीररामचन्द्रमनोभिलषिताय लङ्कादिदहनकारणाय घनकुलगिरिवज्रदण्डाय अक्षकुमारसंहारकारणाय ॐ यं ॐ नमो भगवते रामदूताय फट् स्वाहा ॥

ॐ ऐं ह्रीं ह्रौं हनुमते सीतारामदूताय सहस्रमुखराजविध्वंसकाय
अञ्जनीगर्भसम्भूताय शाकिनी डाकिनी विध्वंसनाय किलिकिलिचुचु कारेण विभीषणाय वीरहनुमद्देवाय ॐ ह्रीं श्रीं ह्रौ ह्रां फट् स्वाहा ॥

ॐ श्रीवीरहनुमते हौं ह्रूं फट् स्वाहा ।
ॐ श्रीवीरहनुमते स्फ्रूं ह्रूं फट् स्वाहा ।
ॐ श्रीवीरहनुमते ह्रौं ह्रूं फट् स्वाहा ।
ॐ श्रीवीरहनुमते स्फ्रूं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्रां श्रीवीरहनुमते ह्रौं हूं फट् स्वाहा ।
ॐ श्रीवीरहनुमते ह्रैं हुं फट् स्वाहा ।

ॐ ह्रां पूर्वमुखे वानरमुखहनुमते लं
सकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ आग्नेयमुखे मत्स्यमुखहनुमते रं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ दक्षिणमुखे कूर्ममुखहनुमते मं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ नैऋर्तिमुखे वराहमुखहनुमते क्षं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ पश्चिममुखे नारसिंहमुखहनुमते वं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ वायव्यमुखे गरुडमुखहनुमते यं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ उत्तरमुखे शरभमुखहनुमते सं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ ईशानमुखे वृषभमुखहनुमते हूं आं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ ऊर्ध्वमुखे ज्वालामुखहनुमते आं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ अधोमुखे मार्जारमुखहनुमते ह्रीं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ सर्वत्र जगन्मुखे हनुमते स्फ्रूं
सकलशत्रुसकलशत्रुसंहारकाय हुं फट् स्वाहा ।

ॐ श्रीसीतारामपादुकाधराय महावीराय वायुपुत्राय कनिष्ठाय ब्रह्मनिष्ठाय एकादशरुद्रमूर्तये महाबलपराक्रमाय भानुमण्डलग्रसनग्रहाय चतुर्मुखवरप्रसादाय
महाभयरक्षकाय यं हौं ।

ॐ हस्फें हस्फें हस्फें श्रीवीरहनुमते नमः एकादशवीरहनुमन् मां रक्ष रक्ष शान्तिं कुरु कुरु तुष्टिं कुरु करु पुष्टिं कुरु कुरु महारोग्यं कुरु कुरु अभयं कुरु कुरु अविघ्नं कुरु कुरु महाविजयं कुरु कुरु सौभाग्यं कुरु कुरु सर्वत्र विजयं कुरु कुरु महालक्ष्मीं देहि हुं फट् स्वाहा ॥

फलश्रुतिः

इत्येतत्कवचं दिव्यं शिवेन परिकीर्तितम् ।
यः पठेत्प्रयतो भूत्वा सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥

द्विकालमेककालं वा त्रिवारं यः पठेन्नरः ।
रोगान् पुनः क्षणात् जित्वा स पुमान् लभते श्रियम् ॥

मध्याह्ने च जले स्थित्वा चतुर्वारं पठेद्यदि ।
क्षयापस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवारणम् ॥

यः पठेत्कवचं दिव्यं हनुमद्ध्यानतत्परः ।
त्रिःसकृद्वा यथाज्ञानं सोऽपि पुण्यवतां वरः ॥

देवमभ्यर्च्य विधिवत्पुरश्चर्यां समारभेत् ।
एकादशशतं जाप्यं दशांशहवनादिकम् ॥

यः करोति नरो भक्त्या कवचस्य समादरम् ।
ततः सिद्धिर्भवेत्तस्य परिचर्याविधानतः ॥

गद्यपद्यमया वाणी तस्य वक्त्रे प्रजायते ।
ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥

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