जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से ” तंत्र ” शब्द की व्याख्या……

धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से ” तंत्र ” शब्द की व्याख्या……



पाखंड ओर वामाचार के रहेते आज तंत्र शब्द ही भयावह बन गया है. तंत्र सात्विक ओर कल्याण का माध्यम या निमित्त है।

शास्त्रो मे वर्णित विशुद्ध तंत्र का अज्ञान ही कुछ पाखंडियो के प्रपंच का माध्यम बन गया है। तभी इसे अत्यंत गुप्त रखा जाता रहा है।

तंत्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं। यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ (तन+त्र) इन दो धातुओं से बना है, अतः “विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना”-

यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है।
जबकि ‘तन्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ- देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं।

“सर्वेऽथा येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्।
इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते।।

‘जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही “तंत्र” है।’

तंत्र शास्त्र क्या है ?

तंत्र-शास्त्रों के लक्षणों के विषय में ऋषियों ने शास्त्रों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार निम्न विषयों का जिस शास्त्र में वर्णन किया गया हो, उसको ‘तंत्र-शास्त्र’ कहते हैं।

१ सृष्टि-प्रकरण,
२ प्रलय-प्रकरण,
३ तन्त्र-निर्णय,
४ दैवी सृष्टि का विस्तार,
५ तीर्थ-वर्णन,
६ ब्रह्मचर्यादि आश्रम-धर्म,
७ ब्राह्मणादि-वर्ण-धर्म,
८ जीव-सृष्टि का विस्तार,
९ यंत्र-निर्णय,
१० देवताओं की उत्पत्ति,
११ औषधि-कल्प,
१२ ग्रह-नक्षत्रादि-संस्थान,
१३ पुराणाख्यान-कथन,
१४ कोष-कथन,
१५ व्रत-वर्णन,
१६ शौचा-शौच-निर्णय,
१७ नर्क-वर्णन,
१८ आकाशादि पञ्च-तत्त्वों के अधिकार के अनुसार पञ्च-सगुणोपासना,
१९ स्थूल ध्यान आदि भेद से चार प्रकार का ब्रह्म का ध्यान,
२० धारणा, मंत्र-योग, हठ-योग, लय-योग, राज-योग, परमात्मा-परमेश्वर की सब प्रकार की उपासना-विधि,
२१ सप्त-दर्शन-शास्त्रों की सात ज्ञान-भूमियों का रहस्य,
२२ अध्यात्म आदि तीन प्रकार के भावों का लक्ष्य,
२३ तंत्र और पुराणों की विविध भाषा का रहस्य,
२४ वेद के षङंग,
२५ चारों उप-वेद, प्रेत-तत्त्व
२६ रसायन-शास्त्र, रसायन सिद्धि,
२७ जप-सिद्धि,
२८ श्रेष्ठ-तप-सिद्धि,
२९ दैवी जगत्-सम्बन्धीय रहस्य,
३० सकल-देव-पूजित शक्ति का वर्णन,
३१ षट्-चक्र-कथन,
३२ स्त्री-पुरुष-लक्षण वर्णन,
३३ राज-धर्म, दान-धर्म, युग धर्म,
३४ व्यवहार-रीति,
३५ आत्मा-अनात्मा का निर्णय इत्यादि।

विभिन्न ‘तंत्र’-प्रणेताओं के विचार-द्वारा ‘तन्त्रों’ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-
१ श्री सदा-शिवोक्त तंत्र,
२ पार्वती-कथित तंत्र,
३ ऋषिगण-प्रणीत तंत्र ग्रंथ।

ये १ आगम , २ निगम, और ३ आर्ष तंत्र कहलाते हैं।
यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है।
इस प्रकार यह साधना-शास्त्र है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरुप, गुण, कर्म आदि के चिंतन की प्रक्रिया बतलाते हुए ‘पटल, कवच, सहस्त्रनाम तथा स्तोत्र’- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है।

इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार हैः-
(क) पटल इसमें मुख्य रुप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देशन होता है। साथ ही यदि मंत्र श्रापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखलाया जाता है।

(ख) पद्धति इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मंत्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस प्रकार नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-प्रयोगों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।

(ग) कचव प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते गुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कचव रुप में वर्णित होते हैं। जब ये ‘कचव’ न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शांत हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पश्चात् होता है।
भूर्जपत्र (भोजपत्र) पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।

(घ) सहस्त्रनाम उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्त्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रुप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते है। ये नाम देवताओं के अति रहस्यपूर्ण गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्ध-मंत्ररुप होते हैं। इनका स्वतन्त्र अनुष्ठान भी होता है।

(ङ) स्तोत्र आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रुप से स्तोत्रों में गुण-गान एवँ प्रार्थनाएँ रहती है; किन्तु कुछ सिद्ध स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पञ्जर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं। इनकी संख्या असंख्य है।

इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र ‘तंत्र शास्त्र’ कहलाता है।

तंत्र कोई ठगई या भय डर हिंसा का माध्यम नहीं ये कल्याण संगत है।
बस इस तंत्र के नाम से धूर्त ओर पाखंड करनेवाले इस शब्द ओर सात्विक उपासना को वामाचार से जोड़ कर इसे कुख्यात बनाते रहे है।
शुद्ध भाव से सात्विक तंत्र साधना नित्य कल्याण का स्त्रोत रही है।

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