जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से विभिन्न कर्मानुसार मुद्रा ज्ञान और उपयोग

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से विभिन्न कर्मानुसार मुद्रा ज्ञान और उपयोग



“मुद्रा प्रदर्शन से देवता (अणुजीवत्) प्रसन्न होते हैं और मुद्रा दिखाने वाले भक्त (साधक) पर मित्रवत् अणुजीवत् प्रसन्न होकर कृपा करते हैं। मुद्रा के प्रभाव
से शत्रुवत् अणुजीवत् ( देवता) अनुकूल होकर दया करते हैं । मुद्रा दिखाकर भक्त
अणुजीवत् (माइक्रोबाइटा) के समीप पहुंच जाता है। उसे देखकर वे पूर्ण प्रसन्न
हो जाते हैं और पूजा मुद्रा प्रदर्शन से ‘महापूजा’ का रूप ले लेती है। मुद्राओं
के बिना आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि रोगोपचार में या तो अनुकूल
फलदायक नहीं होते या निष्फल हो जाते हैं। हमारी पांचों अंगुलियां क्रमशः
आकाश (अंगुष्ठा), वायु (तर्जनी), अग्नि (मध्यमा), जल ( अनामिका) और भू
(कनिष्टा) तत्त्व का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनके सहयोग से बनी विभन्न मुद्राएं,
उन तत्त्वों के मिश्रित प्रभाव शरीर और मन पर डालती हैं और मित्रवत् अणुजीवत् (देवता) को आकर्षित कर तथा शत्रुवत् अणुजीवत को अपने अनुकूल बना कर रोगों से छुटकारा दिला देती हैं। शास्त्रों ने तो मुद्रा प्रदर्शन से मृत्यु पर भी विजय प्राप्त करने की बातें बतायी हैं। श्रेयस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए तो मुद्राएं अति आवश्यक हैं। बीसवीं सदी के महान तांत्रिक, महामहिम श्री आनन्द मूर्ति जी ने पितृयज्ञ विभिन्न मुद्राओं के साथ ही सम्पन्न करने की व्यवस्था दी है।

पारम्परिक देव मुद्राओं में मत्स्य मुद्रा, घेनु मुद्रा और अंकुश मुद्रा जलसोधन
के काम आती हैं। तंत्र में बाएं हाथ को शक्ति और दाहिने हाथ को शिव और
अंगुलियों के बीच के छिद्र को योनि तथा अंगुलियों को पंचत्त्व का रूप माना
गया है। विभिन्न मुद्राओं के साथ विशिष्ट बीज मंत्रों (हं यं रं, वं, जं,) का दस बार उच्चारण रोग दूर करने के लिए कराया जाता है। विभिन्न रोगी पर वर्षों के प्रयोग के बाद हमने उपर्युक्त तीनों मुद्राओं की सहायता से विभिन्न असाध्य रोगों को दूर किया है। मुद्राओं के करते वक्त हाथों में तथा रोग ग्रस्त स्थानों पर रोगी स्वयं विद्युत प्रभा का अनुभव करता है।

नित्य पूजा की मुद्रा

प्रार्थना , अंकुश , कुंत , कुम्भ, तत्व आदि।

संध्या कर्म

संध्या कर्म में 24 + 8 मुद्रा की जाती है जिसका वर्णन संध्या की किताब में लिखा है.

सन्ध्याकाल की चौबीस मुद्राएं हैं-

  1. सम्मुखी
  2. सम्पुटी
  3. वितत
  4. विस्तृत
  5. द्विमुखी
  6. त्रिमुखी
  7. चतुर्मुखी
  8. पंचमुखी
  9. पणमुखी
  10. अधोमुखी
  11. व्यापक
  12. आंजलिक
  13. शकट
  14. यम पाश
  15. ग्रथित
  16. सन्मुखोन्मुखा
  17. प्रलय
  18. मुष्टिक
  19. मत्स्य
  20. कूर्म
  21. वाराह
  22. सिंहाक्रान्त
  23. महाक्रान्त
  24. मुद्गर

कवच और स्तोत्र की मुद्र
ह्रदय न्यास में ह्रदय , शिर , शिख, कवच, नेत्र , फट

अंगन्यास-मुद्राएं
अंगन्यास की छः मुद्रिकाएं होती है-

  1. हृदय
  2. शिर
  3. शिखा
  4. कवच
  5. नेत्र
  6. फट्

(6) अङ्ग न्यास में तर्जनी , मध्यमा , अनामिका, कनिष्टिका , अंगुष्ट , फट (6) है।

करन्यास मुद्राएं

करन्यास की भी छः मुद्राएं होती हैं

  1. तर्जनी
  2. मध्यमा
  3. अनामिका
  4. कनिष्ठका
  5. अंगुष्ठ
  6. फट्

देव उपासना की मुद्रा

  1. आवाहन
  2. स्थापन
  3. संनिद्ध
  4. अवगंठन
  5. धेनुमुद्रा
  6. सरली

भोजन की मुद्रा

  1. प्राणाहुति
  2. अपानाहुति
  3. व्यानाहुति
  4. उदानाहुति
  5. समानाहुरति

देवो की अलग अलग मुद्रा

1 शंख
2 घंटा
3 चक्र
4 गदा
5 पद्म
6 वंशी
7 कौस्तुभं
8 श्रीवत्स
9 वनमाला
10 ज्ञान
11 बिल्व
12 गरुड़
13 नारसिंही
14 वाराह
15 हयग्रोव
16 धनुष
17 बाण
18 परशु
19 जगत
20 काम
21 मत्स्य
22 कूर्म
23 लिंग
24 योनि
25 त्रिशूत
26 अक्ष
27 खट्वांग
28 वर
29 मग
30 अभय
31 कपाल
32 डमरु
33 दन्त
34 पाश
35 अंकुश
36 विघ्न
37 परशु
38 मोदक
39 बी जपुर
40 पद्म

शक्ति की अलग अलग मुद्रा है

शक्ति मुद्राएं

  1. पाश
  2. अंकुश
  3. वर
  4. अभय
  5. धनुष
  6. बाण
  7. खड्ग
  8. चर्म
  9. मूसल
  10. दुर्ग

महाकाली मुद्राएं

  1. महायोनि
  2. मुण्ड
  3. भूरतिनी

महालक्ष्मी मुद्राएं

  1. पंकज
  2. अक्षमाला
  3. वीणा
  4. व्याख्यान
  5. पुस्तक

तारा मुद्राएं

  1. योनि
  2. भूतनी
  3. बीज
  4. धूमिनि
  5. लेलिहा

त्रिपुरा मुद्राएं

  1. सर्व विक्षोभ कारिणी
  2. सर्व विद्वाविणी
  3. सर्वाकर्षणी
  4. सर्व वश्यकरी
  5. उन्मादिनी
  6. महांकुश
  7. खेचरी
  8. बीज
  9. योनि

भुवनेश्वरी मुद्राएं

1.पाश

  1. अंकुश
  2. वर
  3. अभय
  4. पुस्तक
  5. ज्ञान
  6. बीज
  7. योनि

यहां केवल मुद्राओं के नाम परिगणन ही किए हैं। विस्तृत जानकारी के लिये योग्य गुरु के सान्निध्य में ही अभ्यास करना चाहिये।

कुण्डलिनी जाग्रति में तीन मुद्रा उपयोगी है

शक्तिचालिनी , योनि और खेचरी मुद्रा का उपयोग चाहे रोग निवारण हेतु , स्वास्थ्य बनाये रखने हेतु , देव उपासन हेतु , संध्या हेतु , मंत्र सिद्धि हेतु , कवच / पाठ आदि हेतु या अन्य कोई भी हेतु हो , मुद्रा का योग्य अनुसरित प्रदर्शन अत्यंत आवश्यक है। मुद्रा को भी सिध्ध करना पड़ता है। कई मुद्रा का प्रभाव तत्काल शुरू होता है। अपान मुद्रा , शुन्य मुद्रा अदि . कई मुद्रा 7 – 10 दिन के बाद प्रभाव दिखाती है। आरोग्य प्राप्ति की कई मुद्रा कोईभी समय की जाती है। उपासना , साधना , अध्यात्मिक – मानसिक शांति सम्बंधित मुद्रा में विशेष आसन , दिशा , मंत्र , समय का ज्ञान अनुसार अमल जरुरी है। सामान्यत: मुद्रा दोनों हाथ से करना जरुरी है। रोग निवारण सम्बंधित मुद्रा को रोग निवारण के बाद नहीं करना है . धेनु और सुरभि मुद्रा 2 मिनिट से ज्यादा करना हानि कारक है।

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