वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कपूर की कलम से इंकलाबी शायर कैफ़ी आजमी को मेरा सलाम

मनोरंजन डेस्क।वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कपूर की कलम से

इंकलाबी शायर कैफ़ी आजमी को मेरा सलाम

आज इंकलाबी शायर कैफ़ी आज़मी की बरसी है हम सब उनकी शायरी और गीत सुने उनको याद करें।

मुझे याद है जिस दिन कैफ़ी आजमी का इंतकाल हुआ तो मेरे दोस्त और लेखक एक्टर और डायरेक्टर अतुल तिवारी ने मुंबई से फोन किया और ये दुख भरा समाचार दिया। अतुल को कैफ़ी से हमारे पारिवारिक रिश्ते के बारे पता था और वे भी चाहते थे कि कैफ़ी के जानने वालों को समाचार बता दिया जाय।

कैफ़ी मेरे पिता बिशन कपूर के कम्युनिस्ट पार्टी के जमाने के मित्र थे। इसलिए कैफ़ी साहब और उनकी पत्नी और हमारी आंटी शौकत आजमी जब भी लखनऊ आते तो उन दोनों का कैंप ऑफिस हमारा घर ही होता था।पूरे शहर को पता होता था कि कैफ़ी के बारे में खबर कहां मिलेगी।

इसीलिए मुझे कैफ़ी के साथ बहुत वक्त गुजारने का मौका मिला उनको जानने का समझने का सुनने का खूब मौका मिला।

कैफ़ी कि शक्सियात में सब बड़ी बात है जिंदा रहना का उनका जज्बा जो उनकी अपनी शर्तो पर था। किसी को अगर फालिज हो जाए तो वोह शक्स घर बैठ जाएगा पर कैफ़ी ने हार नहीं मानी और देश विदेश घूमते रहे और मुशायरे में भी शरीक होते रहे। कैफ़ी ने अपनी हिम्मत से यह बता दिया कि अगर हौसला हो तो फालिज भी कुछ नहीं कर सकता है।

कैफ़ी कि हिम्मत के हम कायल हो गए जब उनके साथ 1976 इमरजेंसी के जमाने में मऊ में आयोजित जश्ने हसन कमाल के अवसर पर मुशायरे में जाने का मौका मिला। लखनऊ से कई वाहनों में हमारा परिवार कैफ़ी और शौकत आजमी व उस जमाने में उर्दू ब्लिट्ज के एडिटर हसन कमाल का परिवार व अथर नबी जी सब लोग गए।

मऊ में जिस तरह सैकड़ों बुनकरों व स्थानीय अधिकारियों के सामने कैफ़ी आजमी ने इंदिरा गांधी द्वारा घोषित इमरजेंसी की मजम्मत की अपनी शायरी के जरिए और मजमे को लूटा देखते ही बनता था। अधिकारी भी जनता के मिलकर वाह वाह कर रहे थे।

कैफ़ी आजमी को आजमगढ़ के अपने मिजवा गांव के जो भी लिया वोह एक मिसाल है। कैफ़ी ने बताया कि जब उंहौने अपने गांव मीजवा का रूख किया तो मुंबई में लोगो ने कहा कि अब इतनी उम्र में कैफ़ी कबीर बनने चले।

कैफ़ी ने हिम्मत नहीं हारी और वे अपने गांव के विकास के लिए जुट गए। मुझे फक्र है कि हम भी कैफ़ी के साथ उनके साथ तमाम मुख्यमंत्रियों जिनमें विश्वनाथ प्रताप सिंह श्रीपति मिश्रा वीर बहादुर सिंह और मुलायम सिंह यादव के पास जाने का मौका मिला। कैफ़ी ने अपने गांव के लिए इन मुख्यमंत्रियों से सड़क, हॉस्पिटल, पोस्ट ऑफिस ,स्कूल ,कॉलेज व अन्य सुविधा मांगी। सारे मुख्यमंत्रियों ने खुल कर कैफ़ी के गांव के विकास के लिए मदद की।

कैफ़ी ने मुझे बताया कि जब वे काफी साल बाद बाद आपने गांव गए तो वहां की महिलाओं ने उनके सम्मान में कजरी गायी जिसमें उल्हना दी कि भगवान राम तो चौदह साल के बनवास के बाद अयोध्या वापस लौट गए थे पर कैफ़ी भय्या को गांव वापस आने में 24 साल लगे।

कैफ़ी कि वजह से उनके गांव में बहुत विकास हुआ और खासतौर से लड़कियों के स्कूल और कॉलेज खुले।वरना उनको बहुत दूर पैदल स्कूल जाना पड़ता था।

मुझे याद है जिस जमाने में राम नरेश यादव मुख्यमंत्री थे कैफ़ी और मेरे पिता उनसे मिलने गए थे आए वापस लौटने पर होटल गुलमर्ग में पैर फिसलने से गिर गए और हड्डी टूटने कि वजह से मेडिकल कॉलेज में रहना पड़ा।

कैफ़ी के मेडिकल कॉलेज की कॉटेज में रहने से रोज़ शाम उनके मित्र और लखनऊ के नवजवान शायर भी पहुंचने लगे और वहां नशिस्त होने लगी साथ ही साथ बढ़िया खाना भी पहुंचने लगा । हमको भी कई बार वहां जाने का मौका मिला। पहली बार तागे वाले कबाब वहीं खाए। बिरयानी तो जगह जगह से को पहुंचती थी। खूब शायरी के दौर भी देखे मेडिकल कॉलेज में।नए शायरों कि हौसला अफजाई भी कैफ़ी खूब करते थे। नवजवान शायर हसन काजमी भी खूब वहां रहते थे उनको भी उस दौर में सुनने का मौका मिला।

जब कैफ़ी ठीक हुए तो एक दिन नजीराबाद के आलमगीर होटल के मालिक रशीद मियां ने दावत का आयोजन किया। शबाना आजमी और उनकी मां शौकत भी थी और हमारा परिवार भी था। जिस मोहब्बत से रशीद मियां ने खाना खिलाया उसका स्वाद आज भी ताज़ा है।

बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद कैफ़ी जिस तरह से आहत थे वोह मुझे आज भी याद है । लखनऊ आने पर कैफ़ी ने अब्दुल मन्नान एडवोकेट जिन्हौने बाबरी का मुकदमा की निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक पैरवी की थी और मुझे बुलाया और दिनों को अपनी नज़्म राम का दूसरा बनवास सुनाया।

कैफ़ी जब भी लखनऊ आते थे मेरे पिता उनके सम्मान में एक नशिस्त ज़रूर आयोजित करते थे। शौकत आंटी भी साथ रहती थीं। पूरा कमरा भर जाता था हम मॉडर्न नवल्टी
हजरतगंज जाकर नमकीन का इंतजाम करते थे। कमरा भर जाता था और बीच बीच चाय के दौर चलते रहते थे। ज्यादातर शौकत आंटी अपनी फरमाइश बताती थी और कैफ़ी साहब सुनाते थे। साथ ही साथ कैफ़ी की कमेंट्री भी चलती थी कब लाल किले के मुशायरे में उनकी शायरी से नाराज़ हो कर मोहम्मद युनूस चले गए थे इमरजेंसी के जमाने में।

मुझे कैफ़ी के साथ लखनऊ घूमने और जगह जगह खाना कहने का भी मौका मिला।कैफ़ी के फालिज होने के उनका सहायक गोपाल भी साथ रहता था।

कैफ़ी का इप्ता से भी जुड़ाव था और राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। मुझे याद है कि मेरे पिता बिशन कपूर ने उनकी प्रेरणा और अमृत लाल नागर जी के मार्ग दर्शन में 1974 में प्रदेश आईपीटीए की कॉन्फ्रेंस आयोजित करके पुनगठन किया था।

आइए कैफ़ी को याद करने के लिए यूट्यूब के जरिए उनकी शायरी व गीतों को सुना जाए वही उनके लिए श्रद्धांजलि होगी।

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