जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गोत्र: गोत्र का अर्थ….

जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गोत्र: गोत्र का अर्थ….

1) गोत्र: गोत्र का अर्थ है, की वह कौन से ऋषिकुल में से उतर कर आया है। या उसका जन्म किस ऋषिकुल से संबन्धित है। किसी व्यक्ति की वंश परंपरा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की हीसंतान हें, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया। गोत्रों की उत्पत्ति सर्व प्रथम ब्राह्मणो मे ही हुई थी क्योकि यह वर्ग ही ज्ञान से इसे स्मरण रखने में समर्थ था। धीरे धीरे जब ब्राह्मण वर्ग का विस्तार हुआ तब अपनी पहिचान बनाने के लिए अपने आदि पुरुषों के नाम पर गोत्र का विस्तार हुआ।इन गोत्रों के मूल ऋषि – अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, तथा कुशिक थे, ओर इनके वंश अंगिरस, भार्गव,आत्रेय, काश्यप, वशिष्ठ अगस्त्य, तथा कौशिक हुए। [ इन गोत्रों के अनुसार इकाई को”गण” नाम दिया गया, यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई। इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ। गोत्र शब्द का एक अर्थ गो जो प्रथ्वी का पर्याय भी हे ओर ‘त्र’ का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ प्रथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही हे। गो शब्द इंद्रियों का वाचक भी हे, ऋषि मुनीअपनी इंद्रियों को वश में कर अन्य प्रजा जानो का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्र कारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परंपरा पड़ गई। गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है ।

1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है ।

2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है ।

3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।

5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।

2)प्रवर- प्रवर का अर्थ हे ‘श्रेष्ठ” गोत्रकारों के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्त की गई श्रेष्ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ हे की मूल ऋषि के बाद उस कुल में तीन, पाँच आदि ओर ऋषि भी विशेष महान हुए थे।

3) वेद- वेदों की रचनाएँ ऋषियों के अंत:करण से प्रकट हुई थी , उनकी उत्पत्ति के समय लिखा नहीं जाता था इस कारण वेद-मंत्रों को सुनकर याद किया जाता था, चूंकि चारो वेद कोई एक ऋषि याद नहीं रख सकता था इसलिए गोत्रकारों ने ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्यासी कहलाते हैं। सभी ब्राह्मण घटक के अपने वेद हे जिनके प्रचार प्रसारका जिम्मा उनका है।

4) शाखा- वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली थी, कालांतर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाताथा तो ऋषियों ने वेदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्होने जिसका अध्ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

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