जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से शनिदेव की पौराणिक कथा…..
भक्तवर हनुमान जी और शनिदेव
एक बारकी बात है। भक्तराज हनुमान् रामसेतु के समीप ध्यान में अपने परम प्रभु श्रीराम की भुवन मोहिनी झाँकी का दर्शन करते हुए आनन्द विह्वल थे। ध्यानावस्थित
आंजनेय को बाह्य जगत् की स्मृति भी न थी। उसी समय सूर्यपुत्र शनि समुद्र तट पर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का अत्यधिक अहंकार था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे—’मुझमें अतुलनीय शक्ति है। सृष्टि में मेरी समता करने वाला कोई नहीं है।’
इस प्रकार विचार करते हुए शनि की दृष्टि ध्यानमग्न श्रीरामभक्त हनुमान् पर पड़ी। उन्होंने वज्रांग महावीर को पराजित करने का निश्चय किया। युद्ध का निश्चयकर शनि आंजनेय के समीप पहुँचे। उस समय सूर्यदेव की तीक्ष्णतम किरणों में शनि का रंग अत्यधिक काला हो गया था। भीषणतम आकृति थी उनकी। पवन कुमार के समीप पहुँचकर अतिशय उद्दण्डता का
परिचय देते हुए शनि ने अत्यन्त कर्कश स्वर में कहा- ‘बन्दर! मैं प्रख्यात शक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हूँ और तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। तुम पाखण्ड त्यागकर खड़े हो जाओ।’ तिरस्कार करने वाली अत्यन्त कटुवाणी सुनते ही भक्तराज हनुमान ने अपने नेत्र खोले और बडी ही
शालीनता एवं शान्ति से पूछा-‘महाराज! आप कौन है और यहाँ पधारने का आपका उद्देश्य क्या है ?”
शनिने अहंकार पूर्वक उत्तर दिया- ‘मैं परम तेजस्वी सुर्य का परम पराक्रमी पुत्र शनि हूँ। जगत् मेरा नाम सुनने से ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरुष की कितनी ही गाथाएँ सुनी हैं। इसलिये मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा करना चाहता हूँ। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूँ।’
अंजनानन्दन ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा- ‘शनिदेव! मैं वृद्ध हो गया हूँ और अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ। इसमें व्यवधान मत डालिये। कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइये।’ मदमत्त शनिने सगर्व कहा-‘मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहाँ जाता हूँ, वहाँ अपना प्राबल्य और प्राधान्य तो स्थापित ही कर देता हैं।’ कपि श्रेष्ठ ने शनिदेव से बार-बार प्रार्थना की- ‘महात्मन्! मैं वृद्ध हो गया हूँ। युद्ध करने की शक्ति
मुझमें नहीं है। मुझे अपने भगवान् श्रीराम का स्मरण करने दीजिये। आप यहाँ से जाकर किसी और वीर को ढूँढ लीजिये। मेरे भजन-ध्यान में विघ्न उपस्थित मत
कीजिये। ‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती।’ अत्यन्त उद्धत शनि ने मल्ल विद्या के परमाराध्य वज्रांग हनुमान् की अवमानना के साथ व्यंग्य पूर्वक तीक्ष्ण स्वर में कहा-
“तुम्हारी स्थिति देखकर मेरे मन में करुणा का संचार हो रहा है, किंतु मैं तुमसे युद्ध अवश्य करूँगा।’ इतना ही नहीं, शनि ने दुष्टग्रह निहन्ता महावीर का हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्ध के लिये ललकारने
लगे। हनुमान ने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। युद्धलोलुप शनि पुनः भक्तवर हनुमान् का हाथ पकड़कर उन्हें युद्धके लिये खींचने लगे।
‘आप नहीं मानेंगे।’ धीरे-से कहते हए पिशाचग्रह-घातक कपिवर ने अपनी पूंछ बढाकर शनि को उसमे लपेटना प्रारम्भ किया। कछ ही क्षणों में अविनीत सूर्यपुत्र
क्रोधसंरक्तलोचन समीरात्मज की सुदृढ़ पूंछ में आकण्ठ आबद्ध हो गये। उनका अहंकार, उनकी शक्ति एवं उनका पराक्रम व्यर्थ सिद्ध हुआ। वे सर्वथा अवश, असहाय और निरुपाय होकर दृढतम बन्धन की पीड़ा से छटपटा रहे थे।
‘अब रामसेतुकी परिक्रमा का समय हो गया।’
अंजनानन्दन उठे और दौड़ते हए सेतू की प्रदक्षिणा करने लगे। शनिदेव की सम्पूर्ण शक्ति से भी उनका बन्धन शिथिल न हो सका। भक्तराज हनुमान के दौड़ने से उनकी
विशाल पूँछ वानर-भालुओं द्वारा रखे गये शिलाखण्डों पर गिरती जा रही थी। वीरवर हनुमान् दौड़ते हुए जान-बूझकर भी अपनी पूँछ शिलाखण्डों पर पटक देते थे। शनि की बड़ी अद्भुत एवं दयनीय दशा थी।
शिलाखण्डों पर पटके जाने से उनका शरीर रक्त से लथपथ हो गया। उनकी पीड़ा की सीमा नहीं थी और उग्रवेग हनुमान् की परिक्रमा में कहीं विराम नहीं दीख रहा था।
तब शनि अत्यन्त कातर स्वर में प्रार्थना करने लगे- ‘करुणामय भक्तराज! मुझ पर कृपा कीजिये। अपनी उद्दण्डता का दण्ड मैं पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिये। मेरे प्राण छोड़ दीजिये।’
दयामूर्ति हनुमान् खड़े हुए। शनि का अंग-प्रत्यंग लहूलुहान हो गया था। असह्य पीड़ा हो रही थी, उनकी रग-रग में। विनीतात्मा समीरात्मज ने शनि से कहा-‘यदि तुम मेरे भक्त की राशि पर कभी न जाने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ और यदि तुमने ऐसा नहीं
किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करूंगा।’ ‘सुरवन्दित वीरवर ! निश्चय ही मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊँगा।’ पीड़ा से छटपटाते हुए शनि ने अत्यन्त आतुरता से प्रार्थना की—’आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बन्धनमुक्त कर दीजिये।’ शरणागतवत्सल भक्तप्रवर हनुमान् ने शनि को छोड़ दिया। शनि ने अपना शरीर सहलाते हुए गर्वापहारी
मारुतात्मज के चरणों में सादर प्रणाम किया और वे चोट की असह्य पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देह पर लगाने के लिये तेल माँगने लगे। उन्हें जो तेल प्रदान
करता है, उसे वे सन्तुष्ट होकर आशिष देते हैं। कहते हैं, इसी कारण अब भी शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है।