धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से मूर्ति पूजा का रहस्य क्या है……
हिन्दू मूर्ति पूजा क्यों करते हैं? आज की चर्चा का विषय हैं, मूर्ति पूजा. मूर्ति पूजा की उत्पत्ती कहा से हुई? आखिर मूर्ति पूजा का प्रचलन कहा से हुआ? हम चर्चा करेगे कि मूर्ति पूजा की कोई उपयोगिता भी हैं या मूर्ति पूजा सवर्था व्यर्थ है?
मूर्ति पूजा के दोनों पक्षों पर दृष्टिपात करते हुये हम देखेगे कि – मूर्ति पूजा की आवश्कता क्या है?
इस चर्चा में हम आगे मूर्ति पूजा का वैज्ञानिक पक्ष रखते हुये मूर्ति पूजा के व्यवहारिक पक्ष का विवेचन करेगे। और अंत में मूर्ति पूजा के मानसिक प्रभाव का वर्णन करते हुये मूर्ति पूजा के समाजिक पक्ष का समालोचनात्मक अध्ययन करते हुये इस चर्चा को पूरा करेगे।
मूर्ति पूजा की उत्पत्ती कब हुई इस विषय में निश्चिन्त: कुछ कहा नही जा सकता किन्तु महाभारत काल से इसका विवरण प्राप्त होना आरम्भ हो जाता हैं. और यह जान कर करना भी क्या हैं कि किसकी उत्पत्ती कब हुई. भूतकाल में जाकर कुछ परिवर्तन तो कर नही सकते, और परिवर्तन भी क्यों करना है, जो है वो परिनिष्पन्न है।
मूर्ति पूजा को समझने के लिये हमे विकास के क्रम को समझना पड़ेगा। शिशु पैदा होता है, बड़ा होता हैं विद्यालय जाता हैं तो वहा उसको मोटे अक्षरों में वर्णमाला बताई जाती हैं पुरे पृष्ठ पर केवल एक वर्ण – क. उस नये विद्यार्थी को पहले पहल १ जमा १ बराबर २ ऐसा बताया जाता हैं. अर्थात विकास होता हैं – स्थूल से सूक्ष्म की ओर, विकास होता हैं – सरल से मिश्र की ओर, विकास होता हैं – ज्ञात से अज्ञात की ओर. और मूर्ति पूजा यही पहली अभिव्यंजना हैं उस परम परमेश्वर की ओर।
प्रश्न मूर्ति का भी नही, बात मन को मनाने की हैं, मन को साधने की हैं। कण कण में इश्वर को स्वीकार करना हैं मूर्ति पूजा। कोई रूप होना आवश्यक नही, कोई विशेष आकार होने की कोई आकांक्षा नही।
कही की भी मिट्टी ले लो कोई भी रूप दे लो या रूप देने की भी क्या आवश्यकता हैं अनगढ़ मिट्टी भी चलेगी क्योकी मन तो तुम्हारा बदलना हैं ना की मिट्टी का।एक बार तुम मिट्टी की बेजान मूर्ति में ईश्वर देख लेगा वह मिट्टी (पंच महाभुतज) की चलती फिरती मूर्तियों (देह)- में ईश्वर नही देख पायेगा क्या?
मूर्ति पूजा तो बीज हैं, एक बार नर में नारायण दृष्टिगोचरण का अंकुरण हो गया तो बीज नष्ट प्राय: ही हुआ. बीज मिटेगा तभी तो अंकुरण होगा, एक बार तुमने नर में नारायण को देख लिया तो मूर्ति में क्या देखोगे?
वह तो सभवत: ही छूट जायेगी। नारायण तो नर में चला गया अब मूर्ति में क्या रखा? बस मूर्ति की यात्रा यही तक आगे की यात्रा नारायण की।
एक बार बालक ने वर्णमाला सीख ली फिर मोटे अक्षरों का क्या काम? मोटे अक्षरों की पुस्तको को विदा दे दी जाती हैं. और एक बार उच्च विद्यालय उतीर्ण कर लेने के बाद प्राथमिक ज्ञान की पुस्तको का अंत वैसे ही एक बार सर्वत्र नारायण देखने का क्या मतलब हुआ।
चाहे सामने वाला महादुष्ट ही क्यों न हो। चाहे सामने वाला महाततायी ही क्यों न हो। किन्तु आप उसमे नारायण देख रहे है, चाहे सामने वाला आपको कितना भी कष्ट क्यों न दे। आप अपनी धारणा नही छोड़ते, क्योकि आप दृंड धारणा हो गये हो। अब आप संकल्प वान है।
फिर आता यात्रा का नया सोपान जेसे मिष्ठान के स्मरण मात्र से मुह में पानी भर आता हैं अर्थात मानव मस्तिष्क ऐसे उद्दीपको का स्राव करता है जिससे मुह में लसिका निर्माण आरम्भ हो जाता हैं।
उसी प्रकार सर्वत्र नारायण (ईश्वर) देखते देखते, मानव मस्तिक्ष ऐसे उद्दीपको का स्राव करता है जिनसे आप नारायण ही हो जाते हैं. यह एक सर्वथा वैज्ञानिक नियम हैं।जैसी दृष्टी वैसी सृष्टी।
अब तुम्हारे सारे कार्य संकल्पमयी होते है, अर्थात इधर तुम संकल्प करते हो, नन्दवंश को नष्ट करने का और देखो कुछ ही कालावधि में नन्दवंश समाप्त. ये क्या है?
यही तो संकल्प है, तुम देखते हो अलेक्षेन्द्र हिन्दुस्तान पर आक्रमण करेगा तुम संकल्पमयी शक्ती से उसका सामना करते हो और अलेक्षेन्द्र को वापिस भागना पड़ता है। और भाग कर अपने देश भी नही पहुंच पाता कि काल का ग्रास बन जाता है।
अन्यथा कौन सी शक्ती थी चाणक्य के पास? कौन सा सेन्यबल था चाणक्य के साथ?
मैं उदाहरण देने में विशवास नही करता अन्यथा पुरी एक सूची दी जा सकती है संकल्पमयी पुरुषो की और उनके पास संकल्प आया कहा से? धारणा से और धारणा कहा से आई? मूर्ति पूजा से।
धारणा योग का एक अंग है। धारणा के विषय में विस्तार से पढ़ लेना योगसुत्रो मे। जहा योग अपनी विधी से धारणा को पुष्ट करता है वही मूर्ति पूजा का अपना विधान है। किन्तु लक्ष्य दोनों का एक है। दोनों विज्ञान एक ही मंजिल तक पहुंचाते है। केवल विधी का भेद है। जिसे जो भावे उसे चुन ले। सूक्ष्म एक ही है स्थूल का भेद है।
आपको ईश्वर बनाती है मूर्ति पूजा। आरम्भ में केवल बीज होता है कुछ भी नही, बीज देख कर लगता ही नही की मौलाश्री के फूल इस में बंद है, चन्दन जैसे वृक्ष की कल्पना भी सम्भव नही है चन्दन के बीज से। मानव शुकाणु से मानव की कल्पना कौन कर सकता है।