श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता का हुआ भावपूर्ण मंचन

समर जायसवाल-

श्रीकृष्ण-सुदामा की लीला देख भावुक हुए लोग

दुद्धी-सोनभद्र। तहसील परिषर में श्री रासलीला आयोजन समिति के तत्वाधान चल रहे श्री रासलीला मंचन के दशवें दिन बुधवार को श्रीकृष्ण व सुदामा जी की मित्रता की लीला का मनोहारी व सजीव मंचन किया गया जिसे देख कर उपस्थित सभी लोग भावुक व भाव विभोर हो गये।
श्रीकृष्ण व सुदामा जी बाल्य काल से ही सखा थे । गुरुकुल में शिक्षा पाने के लिए वे दोनों गुरु संदीपनी के आश्रम में गये। एक बार गुरु जी द्वारा दी गयी सबक याद न कर पाने के कारण उन्हें जंगल से लकड़ी लाने के लिए जाना पड़ा। वन जाते समय गुरुमाता ने दो मुट्ठी चने दी और कहा कि ये श्रीकृष्ण व सुदामा तुम दोनों के लिए है जिसे तुम दोनों भूख लगने पर खा लेना।
गुरु की आज्ञा अनुसार दोनो मित्र वन से लकड़ी लेने चल दिये। अलग अलग वन क्षेत्रों में लकड़ी लेने के लिए दोनों सखा निकल गए तभी सुदामा जी को भूख लगी और उन्होंने अपने हिस्से के चने खा लिए फिर भी उनकी भूख समाप्त नही हुई तो उन्होंने श्रीकृष्ण के हिस्से के भी चने खा लिए। इधर श्रीकृष्ण वन से लकड़ी लेकर आये तो उन्होंने सुदामा से अपने वट के चने मांगे तो सुदामा ने उन्हें पूरी बात बताई की कि वह उनके हिस्से के भी चने खा गया।
इतना सुनते ही श्रीकृष्ण ने कहा कि जो दूसरों के हिस्से का भी खा लेता है वो दरिद्र हो जाता है इस कारण तुम्हे भी इस का शाप लगेगा और तुम दरिद्र हो जाओगे।
अपने मुखारघोष के बाद श्रीकृष्ण को बड़ा अफ़सोस होता है और उनकी दरिद्रता दूर करने का उपाय भी उन्होंने सुदामा जी को बताया।कि दरिद्रता में जीवन काटते काटते जब तुम मेरे धाम द्वारिकापुरी आओगे तो उसी क्षण तुम्हारी दारिद्रता मिट जाएगी।
समय बीता, श्रीकृष्ण द्वारिका पुरी के राजा हो गए और सुदामा जी एक गरीब दरिद्र ब्राह्मण।
इधर सुदामा जी की स्तिथि काफी खराब हो गयी घर मे एक एक दाने के लाले पड़ गए।
एक दिन सुदामा जी की पत्नी सुशीला जी ने कहा कि आपके मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण जी हैं आप उनके पास जाईये और उनसे अपनी व्यथा कहिये। पत्नी के बार बार कहने पर सुदामा जी द्वारिका जाने के लिए राजी हुए और पत्नि द्वारा कुछ चावल भेंट के लेकर द्वारिका के लिए चल दिये। चलते चलते सुदामा जी थक गए और बीच मे ही सो गए इस निवेदन से की अब आगे प्रभु की इच्छा।

उधर प्रभु की माया ने सुदामा जी को सीधे द्वारिका धाम के सामने पहुँचा दिया। सुदामा जी की आंख खुली तो अपने को द्वारिका में पाकर प्रभु की इच्छा को ही सही माना। अब सुदामा जी ने महल में अंदर जाने का प्रयास किया तो द्वारपालों ने उन्हें रोक और कहा कि ये कहा जा रहे हो,किससे मिलना है। सुदामा जी ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण से मिलने जारहा हूँ मेरा नाम सुदामा हैं।
द्वारपालों ने उस ब्राह्मण देव को वही रोक और उनके आने की सूचना अपने महाराज श्री द्वारिकाधीश को दी।
जैसे ही श्रीकृष्ण ने अपने मित्र सुदामा के आने की बात सुनी वो सब काम को छोड़ कर नङ्गे पाव दौड़ते चले आये अपने मित्र सुदामा से मिलने। दोनो मित्र बड़े ही प्रेम से मिले और श्रीकृष्ण उनको महलो में लेजाकर अपने राज सिँहासन पर बैठाया।श्रीकृष्ण की तीनों पट रानियां जल लेकर पैर धोने को खड़ी हैं लेकिन भगवान ने पानी को हाथ भी नही लगाया और अपने आँखों के जल से ही उनके पैर धो दिए ।
अब सुशीला भाभी द्वारा दी गयी भेट रूपी चावल लेकर उसे खाया और खाने के बाद एक मुट्ठी पर एक लोक,दूसरी मुट्ठी पर दूसरे लोक की सुख संपदा दे दी जैसे ही तीसरी मुट्ठी खाने चले माता रुक्मिणी ने हाथ पकड़ लिए और कहा कि हे प्रभु ये आप क्या कर करे हैं दो मुट्ठी में दो लोक दे दिया पर तीसरी मुट्ठी में तीसरा लोक दे देंगे तो हम सब कहाँ जाएंगे। इसके बाद श्रीकृष्ण व पूरी द्वारिका पुरी सुदामा जी के आव भगत में लग गयी। इसी के साथ आज की लीला का यही विश्राम हो गया। आज दर्शकों की अपार भीड़ भी रही। व्यवस्था व सुरक्षा में आयोजन समिति तथा कोतवाली पुलिस लगे रहे।

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