जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से इक्यावन शक्तिपीठों में एक अनन्त ब्रह्माण्ड अधीश्वरी का धाम : श्री विन्ध्याचल धाम……..

धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से इक्यावन शक्तिपीठों में एक अनन्त ब्रह्माण्ड अधीश्वरी का धाम : श्री विन्ध्याचल धाम……..

देवी भक्तों का विश्व प्रसिद्ध धाम है उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में विन्ध्य पहाड़ियों पर स्थित आदि शक्ति श्री दुर्गा जी का मन्दिर, जिसे दुनिया विन्ध्याचल मंदिर के नाम से पुकारती है !

यह आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी का धाम अनादी काल से ही साधकों के भी लिए प्रिय सिद्धपीठ रहा है। विंध्याचल मंदिर पौराणिक नगरी काशी से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित है।

देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है विंध्याचल। सबसे खास बात यह है कि यहां तीन किलोमीटर के दायरे में तीन प्रमुख देवियां विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि तीनों देवियों के दर्शन किए बिना विंध्याचल की यात्रा अधूरी मानी जाती है।

तीनों के केन्द्र में हैं मां विंध्यवासिनी। यहां निकट ही कालीखोह पहाड़ी पर महाकाली तथा अष्टभुजा पहाड़ी पर अष्टभुजी देवी विराजमान हैं।

माता के दरबार में तंत्र-मंत्र के साधक भी आकर साधना में लीन होकर माता रानी की कृपा पाते हैं। नवरात्र में प्रतिदिन विश्व के कोने-कोने से भक्तों का तांता जगत जननी के दरबार में लगता है।

त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल क्षेत्र का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व का है तथा प्रलय के बाद भी समाप्त नहीं होता, क्योंकि यहां महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती स्वरूपा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी स्वयं विराजमान हैं। यहां सबसे पहले गंगा स्नान किया जाता है और फिर ‘जय माता दी का उद्घोष करते हुए मां विंध्यवासिनी का दर्शन किया जाता है।

इस पुण्य स्थल का वर्णन पुराणों में तपोभूमि के रूप में किया गया है। यहां सिंह पर आरूढ़ देवी का विग्रह ढाई हाथ लंबा है। इस बारे में अनेक मान्यताएं हैं।

कहा जाता है कि देवी भागवत के दसवें स्कंध में सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सबसे पहले श्री मनु तथा श्री शतरूपा को प्रकट किया।

श्री मनु ने देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षों तक कठोर तप किया, जिससे प्रसन्न हो भगवती ने उन्हें निष्कंटक राज्य, वंश-वृद्धि, परमपद का आशीर्वाद दिया। वर देकर महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चलीं गईं, तभी से ही मां विंध्यवासिनी के रूप में आदि शक्ति की पूजा वहां होती आ रही है।

शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को माता सती का रूप माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं।

विंध्यवासिनी देवी का वर्णन कुछ इस तरह आया है – नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ संभव: तत्सवै नास्यामि विंध्याचलवासिनी – अर्थात जब कंस ने माँ यशोदा की संतान जिसे वह माँ देवकी की आखिरी संतान समझ रहा था, को मारने के लिए उसे हवा में उछाला तो वही देवी योग माया ही थी जो इस स्थान पर बाद में स्थित हो गर्इं।

शास्त्र बताते हैं कि महान ऋषि कात्यायन ने मां जगदम्बा को प्रसन्न किया था। इस वजह से मां का नाम कात्यायनी भी है। नील तंत्र में इस बात का उल्लेख है कि जहां विंध्याचल पर्वत को पतित पावनी गंगा स्पर्श करती हैं वहीं मां विंध्यवासिनी का वास है।

नीलतंत्र में यह भी उल्लेख है कि मां गंगा पूरे भारतवर्ष में कहीं भी पहाड़ों को छूकर नहीं गुजरतीं, बस विंध्याचल ही एक ऐसा स्थान है जहां विंध्य पर्वत श्रृंखला को छूते हुए गंगा जी का प्रवाह है।

इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से भी पूजन होता है। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है। विंध्य महात्म्य में इस बात का उल्लेख है कि मां विंध्यवासिनी पूर्णपीठ है।

दो शक्ति पीठ स्थल देश से बाहर हैं। एक है नेपाल का गोहेश्वरी पीठ तथा दूसरा है पाकिस्तान का हिंगलाज पीठ। अनेक विद्वान इस पीठ को सृष्टि के उदयकाल से अवतरित बताते हैं तो कुछ द्वापर काल में इसके अवतरित होने का प्रमाण देते हैं।

वैसे इस पीठ में मां के दर्शन तो साल के बारहों महीने अनवरत होते हैं, लेकिन यहां नवरात्र का विशेष महत्व है। यहां शारदीय तथा बासंतिक नवरात्र में लगातार चौबीस घंटे मां के दर्शन होते हैं। नवरात्र के दिनों में मां के विशेष श्रृंगार के लिए मंदिर के कपाट दिन में चार बार बंद किए जाते हैं। सामान्य दिनों में मंदिर के कपाट रात 12 बजे से भोर 4 बजे तक बंद रहते हैं।

नवरात्र में महानिशा पूजन का भी अपना महत्व है। यहां अष्टमी तिथि पर वाममार्गी तथा दक्षिण मार्गी तांत्रिकों का जमावड़ा रहता है। ऐसा कहा जाता है कि मां के हर श्रृंगार के बाद उनके अलग रूप के दर्शन होते हैं। मां का सबसे सुन्दर श्रृंगार रात्रि के दर्शनों में होता है।

यह भी कहा जाता है कि नवरात्र के दिनों में मां मन्दिर की पताका पर वास करती हैं ताकि किसी वजह से मंदिर के गर्भ गृह स्थित मूर्ती तक न पहुंच पाने वाले भक्तों को भी मां के सूक्ष्म रूप के दर्शन हो जाएं।

नवरात्र के दिनों में इतनी भीड़ होती है कि अधिसंख्य लोग मां के पताका के दर्शन करके ही खुद को धन्य मानते हैं। हालांकि मां की चौखट तक जाए बिना कोई नहीं लौटता, लेकिन ऐसी मान्यता है कि पताका के भी दर्शन हो गए तो यात्रा पूरी हो जाती है।

कहते हैं कि सच्चे दिल से यहां की गई मां की पूजा कभी बेकार नहीं जाती। हर रोज यहां हजारों लोग मत्था टेकते हैं और देवी मां का पूजन करते हैं। विंध्य पर्वत श्रृंखला के नीचे मां विंध्यवासिनी के दर्शन होंते हैं तो अष्टभुजी मंदिर के निकट सीताकुंड, तारादेवी, भैरवकुंड के दर्शन किए जा सकते हैं।

त्रेतायुग में श्रीराम ने यहीं पर देवी पूजा कर रामेश्वर महादेव की स्थापना की, जबकि द्वापर में श्री वसुदेव के कुल पुरोहित श्री गर्ग ऋषि ने कंस वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचंडी का अनुष्ठान किया था।

मार्कण्डेय पुराण में वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय के 41-42 श्लोकों में मां भगवती कहती हैं ‘वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुंभ-निशुंभ नामक महादैत्य उत्पन्न होंगे, तब मैं नंदगोप के घर उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ में आकर विंध्याचल जाऊंगी और महादैत्यों का संहार करूंगी।

श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण जन्माख्यान में वर्णित है कि श्री देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय से रातों रात यमुना नदी पार कर श्री नंद के घर पहुंचाया तथा वहां से श्री यशोदा नंदिनी के रूप में जन्मी देवी योग माया को मथुरा ले आए।

आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिलते ही कंस कारागार पहुंचा। उसने जैसे ही उन्हें पत्थर पर पटकना चाहा। वह उसके हाथों से छूट देवी आकाश में पहुंची और अपने दिव्य स्वरूप को दर्शाते हुए कंस वध की भविष्य वाणी कर विंध्याचल लौट गई।

माता विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर मधु और कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री हैं। यहां संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्धि प्राप्त हो जाती है, यही कारण है कि इन्हें माँ सिद्धिदात्री भी कहा जाता हैं।

देवी के ध्यान में स्वर्णकमल पर विराजती, त्रिनेत्रा, कांतिमयी, चारों हाथों में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धात्री, पूर्णचंद्र की सोलह कलाओं से परिपूर्ण, गले में वैजयंती माला, बाहों में बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुंडल धात्री, इंद्रादि देवताओं द्वारा पूजित चंद्रमुखी परांबा विंध्यवासिनी का स्मरण होना चाहिए, जिनके सिंहासन के बगल में ही उनका वाहन स्वरूप महासिंह है।

त्रिकोण यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्तर दिशा की तरफ मुख किए हुए अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को पूरा करती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं।

कहा जाता है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह, फिर चौबीस दल हैं, बीच में एक बिंदु है, जिसके अंदर ब्रह्मरूप में महादेवी अष्टभुजी निवास करती हैं।

यहां से मात्र तीन किलोमीटर दूर ‘काली खोह नामक स्थान पर महाकाली स्वरूपा चामुंडा देवी का मंदिर है, जहां देवी का विग्रह बहुत छोटा लेकिन मुख विशाल है। इनके पास भैरवजी का स्थान है। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि में विंध्यवासिनी के दर्शन और पूजन का अतिशय माहात्म्य माना गया है।

इस कलियुग में आदमी के जीवन का कोई भरोसा नहीं होता है इसलिए जल्द से जल्द मौका निकाल कर माँ विंध्यवासिनी के दर्शन का महा सौभाग्य जरूर अर्जित करना चाहिए !
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