धर्म -जानिये आचार्य वीर विक्रम नारायण पांडेय से कार्तिक मास महात्म्य

धर्म -जानिये आचार्य वीर विक्रम नारायण पांडेय से कार्तिक मास महात्म्य।

कार्तिक मास महात्म्य
भगवान नारायण के शयन और प्रबोधन से चातुर्मास्य का प्रारम्भ और समापन होता है उत्तरायण को देवकाल और दक्षिणायन को आसुरिकाल माना जाता है दक्षिणायन में सत्गुणों के क्षरण से बचने और बचाने के लिए हमारे शास्त्रों में व्रत और तप का विधान है सूर्य का कर्क राशि पर आगमन दक्षिणायन का प्रारम्भ माना जाता है और कातिक मास इस अवधि में ही होता है पुराण आदि शास्त्रों में कार्तिक मास का विशेष महत्व है यूँ तो हर मास का अलग अलग महत्व है परन्तु व्रत, तप की दृष्टि से कार्तिक मास की महता अधिक है शास्त्रों में भगवान विष्णु और विष्णु तीर्थ के ही समान कर्तिक् मास को श्रेष्ट और दुर्लभ कहा गया है शास्त्रों में ये मास परम कल्याणकारी कहा गया है।

सूर्य भगवान जब तुला राशि पर आते है तो कार्तिक मास का प्रारम्भ होता है इस मास का माहत्म्य पद्मपुराण तथा स्कन्दपुराण में विस्तार पूर्वक मिलता है। कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है इस मास को धर्म,अर्थ काम और मोक्ष को देने वाला बताया गया है नारायण भगवान ने स्वयं इसे ब्रम्हा को, ब्रम्हा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को कार्तिक मास के सर्वगुण सम्पन्न माहात्म्य के संदर्भ में बताया है।

इस संसार में प्रतेयक मनुष्य सुख शांति और परम आनंद की कामना करता है परन्तु प्रश्न यह है की दुखों से मुक्ति कैसे मिले? इसके लिए हमारे शास्त्रों में कई प्रकार उपाय बताए गए है परन्तु कार्तिक मास की महिमा अत्यंत उच्च बताई गयी है इस मास का महात्म्य पढ़ने सुनने से भी कोटि यज्ञ का फल सहज मिल जाता है इसी लिये हम आज से सनातन प्रेमी पाठकगण के लिये प्रतिदिन कार्तिक माहात्म्य के एक अध्याय का प्रेषण करेंगे

कार्तिक माहात्म्य पहला अध्याय
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मैं सिमरूँ माता शारदा, बैठे जिह्वा आये।
कार्तिक मास की कथा, लिखे ‘कमल’ हर्षाये।।

नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी ने अठ्ठासी हजार शौनकादि ऋषियों से कहा – अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तारपूर्वक सुनाता हूँ, जिसका श्रवण करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त समय में वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।

सूतजी ने कहा – श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के चले जाने के पश्चात सत्यभामा प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण से बोली – हे प्रभु! मैं धन्य हुई, मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ जैसी त्रौलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं, जो आपकी सोलह हजार स्त्रियों के बीच में आपकी परम प्यारी पत्नी बनी. मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदिपुरुष विधिपूर्वक दान में दिया, परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर लहराया करता है. यह बात मृत्युलोक में किसी स्त्री को ज्ञात नहीं है. हे त्रिलोकीनाथ! मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छुक हूँ. आप मुझे कृपया कार्तिक माहात्म्य की कथा विस्तारपूर्वक सुनाइये जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसके करने से कल्पपर्यन्त भी आप मुझसे विमुख न हों।

सूतजी आगे बोले – सत्यभामा के ऎसे वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने हँसते हुए सत्यभामा का हाथ पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं सुकने के लिए कहकर विलासयुक्त अपनी पत्नी को कल्पवृक्ष के नीचे ले गये फिर हंसकर बोले – हे प्रिये! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो. तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र एवं देवताओं से विरोध किया था. हे कान्ते! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो।

एक दिन मैंने(श्रीकृष्ण) तुम्हारी (सत्यभामा) इच्छापूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इन्द्रलोक जाकर कल्पवृक्ष मांगा. इन्द्र द्वारा मना किये जाने पर इन्द्र एवं गरुड़ में घोर संग्राम हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी गौओं से युद्ध किया. गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे जिससे तीन वस्तुएँ उत्पन्न हुई. कान से तम्बाकू, पूँछ से गोभी और रक्त से मेहंदी बनी. इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिससे उनके तीन पंख टूटकर गिर गये. इनके पहले पंख से नीलकण्ठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा-चकवी उत्पन्न हुए. हे प्रिये! इन तीनों का दर्शन करने मात्र से ही शुभ फल प्राप्त हो जाता है।

यह सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! कृपया मुझे मेरे पूर्व जन्मों के विषय में बताइए कि मैंने पूर्व जन्म में कौन-कौन से दान, व्रत व जप नहीं किए हैं. मेरा स्वभाव कैसा था, मेरे जन्मदाता कौन थे और मुझे मृत्युलोक में जन्म क्यों लेना पड़ा. मैंने ऎसा कौन सा पुण्य कर्म किया था जिससे मैं आपकी अर्द्धांगिनी हुई?

श्रीकृष्ण ने कहा – हे प्रिये! अब मै तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किये गये पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूँ, उसे सुनो. पूर्व समय में सतयुग के अन्त में मायापुरी में अत्रिगोत्र में वेद-वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण निवास करता था. वह प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था. वह सूर्य के समान तेजस्वी था. वृद्धावस्था में उसे गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई. उस पुत्रहीन ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही चन्द्र नामक शिष्य के साथ कर दिया. वह चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानता था और चन्द्र भी उसे अपने पिता की भाँति सम्मान देता था।

एक दिन वे दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गये. जब वे हिमालय की तलहटी में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया. उस राक्षस को देखकर भय के कारण उनके अंग शिथिल हो गये और वे वहाँ से भागने में भी असमर्थ हो गये तब उस काल के समान राक्षस ने उन दोनों को मार डाला. चूंकि वे धर्मात्मा थे इसलिए मेरे पार्षद उन्हें मेरे वैकुण्ठ धाम में मेरे पास ले आये. उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किये जाने के कारण मैं दोनों पर अति प्रसन्न हुआ।

गणेश जी, शिवजी, सूर्य व देवी – इन सबकी पूजा करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है. मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूँ. जैसे – एक देवदत्त, पिता, भ्राता, आदि नामों से पुकारा जाता है. जब वे दोनों विमान पर आरुढ़ होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किये हुए मेरे भवन में आये तो वे दिव्य भोगों को भोगने लगे।

शेष जारी…

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