17 सितम्बर को परंपरागत ढंग से पूजे जायेंगें -आदिशिल्पी विश्वकर्मा

पिता वास्तु देव व माता अंगिरसी के पुत्र हैं भगवान विश्वकर्मा
-माता पिता के आशीर्वाद से मिला आदिशिल्पी का पद व स्थान
-समस्त मशीनरी व यांत्रिक स्थानों पर होगा पूजन-अर्चन
-विश्वकर्मा पूजा पर विशेष

दुद्धी। वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य आदि शिल्पी भगवान विश्वकर्मा की जयंती देशभर में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को परंपरागत ढंग से मनायी जाती है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा का खास पूजन अर्चन करने का विधान बताया गया है।
औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे की दुकान, वाहन शोरूम, सर्विस सेंटर आदि में पूजा होती है। इस मौके पर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है।इस दिन ज्यादातर कल-कारखाने बंद रहते हैं, और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है। कई जगहों पर भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति स्थापित कर उनकी पूजा आराधना की जाती है। उक्त बातें रामलीला कमेटी दुद्धी के महामंत्री आलोक अग्रहरी ने विश्वकर्मा पूजा के पूर्व संध्या पर कही।
तहसील मुख्यालय दुद्धी व उसके आस पास के गांवों में भगवान विश्वकर्मा जी का पूजन बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। पंडालों व घरों में मूर्ति स्थापित कर लोग पूरी श्रद्धा व भक्ति से पूजन अर्चन करतें हैं।
प्रथम व द्वितीय दिवस पूजन अर्चन तथा तीसरे दिन प्रातः पूजन कार्यकम इसके उपरांत सायंकाल जुलूस निकाल कर नगर वासियों को दर्शन पूजन करवाया जाता है, ततपश्चात मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं। ‘सुदामापुरी’ के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है।
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम ‘नारायण’ अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए। उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म’ तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव’ हुए। कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु’ नामक स्त्री से उत्पन्न ‘वास्तु’ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए। पिता वास्तु देव व माता अंगिरसी के अत्यधिक प्रिय व वास्तुकला में निपुणता के कारण ही यह अपने माता पिता के आशीर्वाद से आदि शिल्पी का स्थान प्राप्त किये।अपने पिता की भांति ही विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने।
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं। दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले. उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं। यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया।

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