सोनभद्र नरसंहार की अंतर्कथा सुने पत्रकारिता क्षेत्र में यूपी की शान हेमंत तिवारी कि जुबानी

भूस्वामियों की जुगलबन्दी व प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा सोनभद्र नरसंहार-हेमंत तिवारी

वर्ष 1950 में उ०प्र० ज़मींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार ऐक्ट 1950 पारित हुआ

कब्जेदार गनपावर का जलवा देख कर नक्सलवाद की नर्सरी तैयार हुई

आईएफडब्ल्यू जे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हेमंत तिवारी की कलम से

सोनभद्र नरसंहार की अन्तर्कथा !

विगत दिनों से मीडिया ,सोशल मीडिया ,राजनैतिक जगत ,विधानसभा ,लोकसभा ,राज्यसभा,नारायणपुर की सड़क ,चुनार का क़िला , सत्ताशीर्ष की गोद से लेकर विपक्ष के कंधे तक सोनभद्र ही सोनभद्र छाया है।मुआवज़ा,धनराशि ,नौकरी की माँगों से इलाक़ा गूँज रहा है ।हर कोई ग्राम प्रधान व हमलावरों को दबंग ,आततायी ,हत्यारा खलनायक , साबित करने पर तुला हुआ है , ज़मीन के पूर्व स्वामी मिश्रा परिवार को भ्रष्ट ,बेईमान बताने पर लगा है पर मामले की तह में कोई जाने को तैयार नहीं ,क़ानूनी स्थिति जाने बिना हर तरह की टीका टिप्पणी हो रही है।ग्राम प्रधान व उसके सहयोगियों का कार्य नितान्त अनुचित , ग़ैरक़ानूनी व गम्भीर दण्ड से दण्डनीय है ,उन्हें दण्ड मिलना ही चाहिये पर क्या हमें उन परिस्थितियों पर भी विचार नही करना चाहिये जिनके कारण ऐसा हुआ !
बात की शुरुआत 1950 से होती है ,आज़ादी के बाद भूमि सुधार सरकार की प्राथमिकता थे और ज़मींदारी उन्मूलन इसका पहला क़दम था ।वर्ष 1950 में उ०प्र० ज़मींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार ऐक्ट 1950 पारित हुआ जिसमें जोतदारों को भौमिक अधिकार मिला ,ज़मींदारी प्रथा समाप्त हुई,सिकमी,सीरदार,भूमिधर कई तरह के काश्तकारों का उद्भव हुआ।इसी अधिनियम के अध्याय 11 की धारा 295 से 318 तक में सहकारी कृषि फ़ार्म गठित करने का प्राविधान किया गया था ।जिसके आधार पर ज़मींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था नियमावली 1952 के नियम 307 से 336 तक में इसका विस्तृत प्रावधान स्पष्ट किया गया । यह व्यवस्था वास्तव में कृषि क्षेत्र में सहकारिता को बढ़ावा देने के लिये की गई थी पर जैसा कि हर क़ानून के साथ होता है ,इसका भी उपयोग तत्समय सक्षम और समृद्ध लोगों ने भौमिक साम्राज्य बनाने में किया और ज़मींदारों ,राजाओं महाराजाओं की ज़मीनों को अपने अपने मित्रों ,नाते रिश्तेदारों के नाम की सहकारी समितियाँ बनाकर औंने पौने दामों में लिखवा कर क़ाबिज़ हो गये, निश्चित रूप से इसमें राजस्व प्रशासन का पूरा सहयोग रहा होगा अन्यथा यह सम्भव ही नहीं हो पाता ।यह प्रवृत्ति और प्रक्रिया उन क्षेत्रों में अधिक सफल हुई जो वन्य क्षेत्र थे और जहाँ जागरूकता की कमी और भूमि पर जनसंख्या का दबाव सबसे कम था। तब का मिर्ज़ापुर जनपद जिसमें से अब सोनभद्र अलग बन गया है इससे सर्वाधिक प्रभावित था।हर वह व्यक्ति जो सक्षम था दल,धर्म ,जाति,क्षेत्र सबसे उपर उठ कर इस भूअर्जन यज्ञ में जुट गया और बड़े बड़े भूस्वामी पैदा हो गये जो सहकारी फ़ार्मिंग के नाम पर हज़ार हज़ार बीघे की ज़मीनों के मालिक बन गये , जिनका अस्तित्व कमोबेश आज भी बचा हुआ है ।सहकारी फ़ार्मिंग के नाम पर बनी ये बड़ी बड़ी जोतें असलियत में ख़ानदानी सम्पत्तियाँ थी और यही नही बाद में 1962 ,1971 और जब भी कभी सीलिंग ऐक्ट लागू हुये , सहकारिता के नाम पर ये सुरक्षित बचे रहे ।इनके मालिकान का कभी कोई मतलब खेती से रहा ही नहीं बल्कि अधिकांशतया ये शिकार ,जंगल भ्रमण ,पिकनिक और आमोद प्रमोद के स्थल ही रहे थे ।यहाँ का काम धाम इस प्रकरण के ग्राम प्रधान जैसा कोई मज़बूत स्थानीय व्यक्ति ही देखता रहा जो बँटाई देने , हिस्सा वसूलने व पहुँचाने व बदले में यहाँ निर्विघ्न सत्ता चलाने मे लगा रहा और मज़बूत से और मज़बूत बनता गया ।स्थानीय आदिवासी भूमिहीन या कम जोत वाले निवासी अधिया कूता पर पुश्त दर पुश्त खेती करते रहे पर मालिक कभी नहींबन पाये और गरीब से ग़रीब होते चले गये और इस ज़मीन और उसे जोतने बोने की लालच में उनका व उनके परिवार का हर तरह का शोषण स्थानीय स्तर पर होता रहा । यही इस क्षेत्र में नक्सलवाद के उदय का कारण भी बना।मेरी जानकारी के मुताबिक़ चन्दौली के नौगढ थाने के मझगंवा में पहली नक्सल हत्या 1997 में एक बड़े भूस्वामी चौबे जी की हुई थी जो उस समय के बहुत ही प्रतिष्ठित राजनैतिक परिवार के नज़दीकी रिश्तेदार थे।ज़मीनों को बचाने का यह अभियान भूमि सुधार के सरकारी प्रयासों के समानान्तर चलता रहा ।क़ानून पर क़ानून बनते रहे और बड़े भूस्वामियों, राजस्व चकबन्दी जैसे भूमि प्रबन्धन से जुड़े विभागों व क़ानूनी दाँवपेच में माहिरों का नेक्सस प्रभावी रहा और जोतें सुरक्षित बनी रहीं पर साथ ही साथ नक्सलवाद के उदय नें क्षेत्रीय समीकरण बदले ।नक्सलियों के भय से स्थानीय सिपहसलार भूमिगत हुये और पूर्व का दबा कुचला एक नया वर्ग उभरा और एक नये तरह की अराजकता नें लाल झन्डे के रूप में जन्म लिया ।कही भी जंगल ,ग्रामसमाज,परती या अनुपस्थित मालिक वाली निजी ज़मीन पर लाल झन्डा लगाकर फूस की झोपड़ियाँ डाल कर क़ब्ज़ा कर लेने की प्रवृत्ति नें जन्म लिया और यही अवैध क़ब्ज़े व कब्जेदार गनपावर का जलवा देख कर नक्सलवाद की नर्सरी बने और इन तीनों जिलों में नक्सलवाद ख़ूब पनपा, पुलिसवालों ,उनके informers पर ख़ूब हमले हुये लगभग अराजकता की स्थिति बन गई थी और इन सबके पीछे एकमात्र कारण भूमि सुधार क़ानूनों की कमियाँ, राजस्व ,चकबन्दी जैसे विभागों व भूस्वामियों की जुगलबन्दी व प्रशासनिक लापरवाही और इन सबके कारण होने वाला निचले वर्ग का शोषण रहा।कालान्तर में सरकार की संवेदनशीलता , अधिकारियों के परिश्रम व पीड़ित आमजन के सहयोग से नक्सलवाद नियंत्रित तो हो गया पर मूल कारकों ,कारणों ,निवारणों पर कोई ध्यान नही दिया गया जिसकी परिणति सोनभद्र कांड के रूप में हुई है और अगर अभी भी नीति नियंता नहीं चेतें और अपेक्षित सुधार नहीं किये गये तो न जाने कितने सोनभद्र और होंगे ।
पोस्ट लम्बी हो गई है कहने को बहुत शेष है पर बाक़ी जल्दी ही!

● ( आरके चतुर्वेदी भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं जिनकी गिनती उत्तर प्रदेश के कामयाब अक्षरों में रही है। वे नक्सल प्रभावित चंदौली जिले के पुलिस अधीक्षक रह चुके हैं और नक्सलियों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई के लिए इन्हें पुरस्कृत भी किया गया है। )

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