जमीन विवाद में दस आदिवासी मौत के घाट उतार दिए गए, सोनभद्र की इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है

सोनभद्र की नरसंहार की पृष्ठभूमि

विजय शंकर चतुर्वेदी ग्रुप एडिटर

सोनभद्र।जमीन विवाद में दस आदिवासी मौत के घाट उतार दिए गए, सोनभद्र की इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है, आज इस प्रकरण पर राज्यसभा में इतना हंगामा हुआ कि राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी।

भारत का स्विट्जरलैंड कहा जाने वाला जनपद को देश की ऊर्जा राजधानी भी कहा जाता है, लेकिन देश के कई हिस्सों में उजाला फैलाने वाला यह जनपद खुद अंधेरे में जीने के लिए अभिशप्त है।
यह अंधेरा अशिक्षा, प्रदूषण, जल जंगल जमीन के झगड़े, अवैध खनन और आदिवासियों को आज तक मौलिक सुविधाओं के अभाव के रूप में विद्यमान है।
नक्सलवाद और देश का अति पिछडे जिले का टैग अभी हट नहीं पाया है, यहां का प्रदूषण भी पृथ्वी पर नया रिकॉर्ड बना रहा है, औद्योगिक घरानों के विस्तार की कीमत आदिवासी विस्थापित होकर चुका रहे हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यहाँ के मूल निवासियों अर्थात आदिवासियों की पीढ़ियों से काबिज भूमि को लेकर है, जिसे चार दशकों में भी नहीं सुलझाया जा सका,
40 वर्ष पूर्व गांधीवादी विचारक समाजसेवी प्रेमभाई ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को एक पोस्टकार्ड भेजकर यहां के आदिवासियों को उजड़ने से बचाने की गुहार की, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने उस पोस्टकार्ड को जनहित याचिका के रूप में स्वीकार कर लिया और

सोनभद्र में आदिवासियों को भौमिक अधिकार के लिए सर्वे सेटलमेंट की स्थापना हुई, जिसका लाभ आदिवासियों ने कम बाहुबलियों, उद्योगपतियों , पूंजीपतियों और सामंतों ने ज्यादा उठाया, कितने आदिवासी नक्सल गुटों में सिर्फ इसलिए शामिल हो गए कि उन्हें उनकी जमीनों पर कब्जा नहीं मिल रहा था।
नक्सलवादियों ने भी इस मुद्दे को खूब भुनाया और स्थानीय आदिवासियों को जमीनी कब्जा दिलाने के नाम पर अपने गुटों में शामिल कराया ।
वनाधिकार कानून से एक आस जगी थी कि यहां के आदिवासियों को न्याय मिल जाएगा लेकिन अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आया ।

प्रतिकरात्मक फ़ोटो

उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने पोस्टरों में इसे स्विट्ज़रलैंड आफ इंडिया लिखकर पोस्टर जारी किए हैं, सोनभद्र को स्विट्ज़रलैंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं नेहरू ने कहा था जब वे 1954 में सीमेंट फैक्ट्री की आधारशिला रखने आये थे । प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र के आदिवासी यहां के बनते बिगड़ते विकास के मौन साक्षी रहे और एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्थापित होते रहे । कुछ आदिवासियों को तो चार चार बार विस्थापित होना पड़ा । आज भी वे सकून से नहीं हैं।
बहुतायत के पास रहने के लिए अभी घर तक नहीं हैं और

पूंजीपति लोग आदिवासियों के लिए बनाए कानून की आड़ में सैकड़ों एकड़ जमीनें दबा कर बैठे हुए हैं। सामूहिक नरसंहार के बाद क्या इन आदिवासियों को न्याय मिल सकेगा कहना मुश्किल है, मुझे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह की यह पंक्ति बहुत ही प्रासंगिक लग रही है-
‘ जब तक मानव मानव का
सुख भाग नहीं सम होगा,
शांत न होगा कोलाहल
संघर्ष नहीं कम होगा ।।’

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