लाइफस्टाइल डेस्क. आज वर्ल्ड लाफ्टर डे है यानी हंसने और ठहाके लगाने का दिन। हंसने और खुश रहने के सही मायने संघर्ष के बाद मिली सफलता से समझ में आते हैं। इस मौके पर जानिए ऐसी ही शख्सियतों के बारे में जिन्होंने कड़े संघर्ष के बाद सफलता पाई, रोते-रोते हंसना सीखा।
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- अरुणिमा सिन्हा : पहली दिव्यांग पर्वतारोही
दैनिक भास्कर एप से बातचीत में अरुणिमा सिन्हा ने कहा, हंसी ही ऐसी चीज है जो सारे गमों को भुला सकती है। उलझनें दूर कर सकती है। खासतौर पर डिप्रेशन के दौर में एक हंसी इंसान के लिए अमृत की तरह काम करती है। डिप्रेशन के दौरान इंसान को बाहर निकालने के लिए सबसे जरूरी है कोई उसे सुने, समझे। मदद करने वाला इंसान समस्या कितनी हल कर पा रहा है यह जरूरी नहीं, कितना डिप्रेशन से जूझ रहे इंसान को समझ पा रहा है यह अहम है। इतनी सी बात से चेहरे पर हंसी आ जाती है और इंसान अपना दर्द भूल जाता है।
हर बार जरूरी नहीं कोई आपको डिप्रेशन से निकलने में मदद करे। खुद भी इससे निकलने कोशिश करें। मैं परेशान होने पर पेड़-पौधों के बीच समय बिताती हूं, पालतू जानवर से बातें करती हूं, किताबें पढ़ती हूं, घूमने जाती हूं और पर्वत पर चढ़ाई के दौरान की यादें ताजा करती हूं।
मेरे लिए जीवन का सबसे बेहतरीन पल था विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह करने का। लेकिन इसकी शुरुआत मुश्किलों भरी रही। इसकी शुरुआत 1 अप्रैल, 2013 से हुई। मौसम बेहद खराब था। लगातार कई दिनों तक चढ़ाई के कारण पैरों में दर्द बढ़ता रहा था। चोटी पर पहुंचने से कुछ घंटे पहले तक पैरों से खून निकलना शुरू हो चुका था। ऐसा लग रहा था अब जिंदगी की सांसें यही थम जाएंगी लेकिन हारी नहीं, लड़ती रही, मौसम से भी और शरीर से भी। …और वो समय भी आया जब मैं माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंची। ये मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत लम्हा था जब मैं अपने सारी दिक्कतें भूल चुकी थी। सिर्फ खुशी को महसूस कर रही थी। आखिरकार मैंने वो कर दिखाया था जिसके लिए लोग मुझे पागल कहते हैं। इस खुशी को शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल था।
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- हार्ड कौर, पहलीमहिला रैपर
दैनिक भास्कर एप से हुई बातचीत में हार्ड कौर कहती हैं, जीवन का सबसे यादगार और खुश करने देने वाला पल वो है जब मैंने लंदन में रैप कॉम्पिटीशन जीता। परिवार जब भारत से लंदन में शिफ्ट हुआ तो वहां के लोगों का नजरिया पॉजीटिव नहीं था। लोगों का बर्ताव अच्छा नहीं था, वो मुझेफ्रेशी बुलाते थे।
मेरा संघर्ष भी दूसरों से कहीं ज्यादा था। पहला मैं एक लड़की थी रैपर बनना चाहती थी। दूसरा मैं भारतीय थी। लोगों को बिल्कुल नहीं लगता था मैं रैप कर सकती हूं। कई श्वेत लोग मुझे चिढ़ाते भी थे। आसपास सिर्फ निगेटिविटी थी। लेकिन मैंने उम्मीद नहीं खोई और पहचान बनाने के लिए जंग जारी रखी। आखिरकार जीवन में वो लम्हा आया जब मैंने लंदन में रैप कॉम्पिटीशन में श्वेत लोगों को हराया और खुद को साबित किया। यह बताया कि एक महिला भी रैप कर सकती है।जीत के बाद मेरी आंखों में खुशी के आंसू थे।
हालांकि संघर्ष यहां रुका नहीं, जारी रहा और एक समय ऐसा आया जब लोगों ने मुझे ‘हार्ड’ बुलाना शुरू किया। और ऐसे मैं तरन कौर ढिल्लन से हार्ड कौर बनीं। मुझे यहां तक पहुंचने में मेरी मां ने सबसे ज्यादा मदद की। सबसे पहले उन्होंने ही मेरे टैलेंट को समझा और दुनिया से लड़ने में मदद दी। सही मायने में तो मां ही हार्ड कौर हैं, मैं तो सिर्फ फ्रेंचाइजी हूं।
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- राजू श्रीवास्तव, कॉमेडियन
कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव की सोच बेहद अलग है। उनका मानना है कि जीवन में संघर्ष जरूरी हैं। खुशी से भरे लम्हों की अहमियत तब पता चलती है जब संघर्ष के बाद सफलता मिलती है। यही मुस्कान में बदल जाती है। उनका कहना है कि बचपन में लोगों की नकल उतारने की आदत प्रोफेशन में बदल जाएगी, ये बिल्कुल भी नहीं सोचा था।
कायस्थ परिवारों में आमतौर पर लोग नौकरीपेशा होते हैं लेकिन मेरा मन कॉमेडी में लगता था। घर में रहकर भी कटा-कटा सा रहता था। परिवार के लोगों को यह चिंता रहती थी कि यह जीवन में क्या करेगा। कानपुर में कभी-कभी मिमिक्री करने के ऑफर मिलते थे। देर रात तक शो चलने के कारण रात में घर आना होता था। इस कारण लोग आवारा भी कहते थे।
राजू बताते हैं, एक दिन मैंने सोचा की जब घर पर रहकर भी मैं यहां नहीं हूं तो बाहर ही चलते हैं। मैं दो और दोस्तों के साथ मुंबई आया। कुछ समय बाद दोनों ही दोस्त वापस कानपुर लौट गए। लेकिन मैं यहां रुका और संघर्ष करता रहा। मुंबई जाने का श्रेय भी मैं अपनी मां को ही देता हूं। मां कहती थी जीवन में कुछ करके दिखाओ। अगर वो ताने न देती तो मैं आज कॉमिडियन न बन पाता।
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- नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अभिनेता
नवाजुद्दीन कहते है, आज मैं जीवन के जिस मुकाम पर हूं काफी खुश हूं क्योंकि मैंने उन लोगों को जवाब दिया है जो कभी कहते थे “अरे हीरो बनने गया था वापस लौट आया” । जब उन्हीं लोगों को ये कहते हुए सुनता हूं कि “इसने तो कर दिखाया” खुशी होती है। संघर्ष के बाद मिली हर सफलता जीवन का बेहतरीन पल होती है। जो चेहरे पर मुस्कान लाती है।
नवाजुद्दीन के मुताबिक, एक्टर बनाना आसान नहीं था। न तो मैं हीरो जैसा दिखता था और न ही इंडस्ट्री में किसी को जानता था। दिल्ली में एक वाचमैन के तौर पर काम करना शुरू किया। इसी दौरान धीरे-धीरे थियेटर और प्ले के लिए लोगों से मिलना शुरू किया। कुछ समय बाद नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से ग्रेजुएशन किया। 1999 में आई फिल्म सरफरोश से फिल्मी करियर की शुरुआत तो की लेकिन पहचान नहीं मिली।
संघर्ष और आर्थिक तंगी का सफल जारी रहा। कई टेलीविजन सीरियल्स के लिए काम किया लेकिन बड़ा ब्रेक मिला फिल्म अनुराग कश्यप की फिल्म ब्लैक फ्राइडे से। पहला बड़ा रोल मिला फिल्म पतंग में। जिसे कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाया भी गया। कई फिल्मों के बाद ही मुझे पहचान फिल्म पीपली लाइव से। इसमेंं मैंने एक जर्नलिस्ट का किरदार निभाया, दर्शकों ने इसे काफी सराहा।
साल 2012 मेरे लिए टर्निंग प्वॉइंट साबित हुआ और कहानी, गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फिल्में जबरदस्त हिट हुईं। इसके बाद आईं फिल्मों में मेरे किरदार और एक्टिंग दोनों को पसंद किया गया।
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- मैरी कॉम, मुक्केबाज
वर्ल्डचैंपियन मैरी कॉम के मुताबिक, जीवन का सबसे बड़ा फैसला था 2007 में जुड़वा बेटों को जन्म देने के बाद वापस रिंग में उतरना। लेकिन कोच के बर्ताव से उन्हें धक्का लगा। कोच ने घर में बैठने की सलाह दी, कहा- उनमें अब पहले जैसी ताकत और फुर्ती नहीं। उसदिन मैरी कॉमने ठाना कि रिंग में उतरना भी है जीतना भी।
मैरी कॉम की वापसी आसान नहीं थी। पति आनलुर चाहते थे बच्चे एक साल के हो जाएं उसके बाद मैरी मुक्केबाजी की प्रैक्टिस शुरू करें लेकिन मैरी ने तय कर लिया था कि किसी भी हाल में चैंपियनशिप जीतनी ही है।
प्रेग्नेंसी के दौरान मैरी कॉम का वजन 67 किलो हो गया था, बेटों को जन्म देने के बाद वजन 61 किलाे रह गया। लेकिन लगातार वर्कआउट और बॉक्सिंग की प्रैक्टिस ने वजन 46 किलो तक पहुंचाया। आखिरकार वो पल आया जब कई महीनों का संघर्ष खुशियों में तब्दील हुआ। 2008 में मैरी कॉम विश्व चैंपियन का खिताब और गोल्ड मेडल जीतकर लौटीं।
मैरी कहती हैं मेरा सपना अब तक पूरा नहीं हुआ है। 2012 के लंदन ओलंपिक में मैंने देश के लिए गोल्ड मेडल जीता लेकिन रियो में ऐसा नहीं कर पाई। अब 2020 में टोक्यो ओलंपिक में मेरा टार्गेट गोल्ड मेडल लाना है,कोशिशें जारी हैं।