*चुनाव प्रचार में जी जान से जुट प्रत्याशी*
सीधी।मध्यप्रदेश की राजनीति में चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुन सिंह का परिवार अपनी राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र अजय सिंह इस लोकसभा चुनाव में सीधी सिंगरौली संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। मध्यप्रदेश का विंध्याचल क्षेत्र पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता है। *2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को विंध्य क्षेत्र में करारी हार देखने को मिली थी।* यहां 30 विधानसभा सीटों पर 24 सीटें भाजपा के खाते में आई थीं।
*विधानसभा चुनाव में अजय सिंह को अपने ही गढ़ में हार का मुंह देखना पड़ा था।* उनकी पैतृक सीट चुरहट उनके हाथ से निकल गई थी। ऐसे में इस चुनाव में अजय सिंह जीत हासिल करना प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है।
वहीं अपनों की ही नाराजगी झेल रही भाजपा प्रत्याशी रीति पाठक को सीट बचाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। भाजपा से पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का पलायन लगातार जारी है जिससे रीति पाठक के लिए सत्ता की राह कांटो भरी हो रही है। *सड़क प्रदूषण बेरोजगारी विस्थापन जैसे स्थानीय ज्वलनशील मुद्दों को दरकिनार कर भाजपाइयों मोदी फैक्टर के सहारे इस बार भी जीत की उम्मीद लगाए बैठे हैं।* चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में दोनों ही प्रत्याशी अपना वोट बैंक बनाने के लिए चिलचिलाती धूप में कई क्षेत्रों का दौरा कर रहे हैं।
वहीं आज सीधी में *प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी* रीति पाठक के लिए चुनावी सभा करने आ रहे हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा की मोदी का फायदा रीती को मिलता है या फिर वोटर अजय सिंह राहुल भैया को अपनाते हैं।
*राजनीतिक पृष्ठभूमि*
सीधी लोकसभा सीट पर पहला चुनाव 1962 में हुआ था। तब कांग्रेस के आनंद चंद्रा ने जीत हासिल की थी। 1962 से 1979 के उपचुनाव तक यह सीट सामान्य थी, लेकिन परिसीमन के बाद 1980 में यह सीट अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित हो गई। परिसीमन के बाद पहले चुनाव में कांग्रेस के मोतीलाल सिंह को जीत मिली। मोतीलाल सिंह ने इसके अगले चुनाव में जीत हासिल की। परिसीमन के बाद 1989 में यह सीट फिर से सामान्य हो गई और बीजेपी को पहली बार यहां पर जीत मिली। बीजेपी के जगन्नाथ सिंह यहां पर जीत हासिल करने में कामयाब रहे।
1991 से 2004 तक यह सीट अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए फिर से आरक्षित हुई। वहीं इसके बाद 2007 में यहां पर उपचुनाव हुआ और यह सीट एक बार फिर सामान्य हो गई। उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार माणिक सिंह की जीत हुई। उन्होंने बीजेपी के कुंवर सिंह को हराया था।
यहां की जनता ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों को बराबर मौका दी है। लेकिन पिछले 2 चुनावों में इस सीट पर बीजेपी को ही जीत मिली है। कांग्रेस ने इस सीट पर जीत 2007 के उपचुनाव में हासिल की थी। लेकिन 2007 के पहले तीन चुनावों में बीजेपी ने यहां पर लगातार जीत हासिल की थी। इस सीट पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों को 6-6 बार जीत मिली है। यहां पर विधानसभा की 8 सीटें आती हैं। ये सीटें चुरहट, चितरंगी, धौहानी, सीधी, सिंगरौली, ब्यौहारी, सिहावल, देवसर हैं। इन 8 सीटों में से 7 पर बीजेपी और 1 पर कांग्रेस का कब्जा है।
*बीते लोकसभा का जनादेश*
2014 के चुनाव में बीजेपी की रीति पाठक ने कांग्रेस के इंद्रजीत कुमार को हराया था। रीति पाठक को 4,75,678 वोट मिले थे तो वहीं इंद्रजीत कुमार को 3,67,632 वोट मिले थे। वहीं बसपा तीसरे स्थान पर रही थी. रीति पाठक ने इस चुनाव में 1,08,046 वोटों से जीत हासिल की थी। इस चुनाव में रीति पाठक को 48.08 फीसदी वोट मिले थे, इंद्रजीत को 37.16 फीसदी वोट और बसपा उम्मीदवार को 3.98 फीसदी वोट मिले थे।
2009 के चुनाव में भी इस सीट पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी। बीजेपी के गोविंद प्रसाद ने कांग्रेस के इंद्रजीत कुमार को हराया था। वहीं निर्दलीय उम्मीदवार वीणा सिंह तीसरे स्थान पर थीं। गोविंद प्रसाद को 2,70,914(40.09फीसदी) वोट मिले थे तो वहीं इंद्रजीत कुमार को 2,25174(33.32फीसदी) वोट मिले थे।तीसरे स्थान पर रहीं वीणा सिंह को 66,985(9.91फीसदी) वोट मिले थे।
*सांसद का रिपोर्ट कार्ड*
45 साल की रिति पाठक 2014 का लोकसभा चुनाव जीतकर पहली बार सांसद बनीं। एलएलबी की पढ़ाई कर चुकीं रीति पाठक की संसद में उपस्थिति 95 फीसदी रही। उन्होंने इस दौरान संसद की 99 बहस में लिया। उन्होंने 338 सवाल भी किए।
रीति पाठक ने निर्भया फंड, ई-वीजा, मध्य प्रदेश में खेल को बढ़ावा, जैसे मुद्दों पर सवाल किया। वे कोयला और इस्पात संबंधी स्थायी समिति, परामर्शदात्री समिति, ग्रामीण विकास, पंचायतीराज व पेयजल, महिलाओं से जुड़ी समिति और पीएसी सहित संसद की छह समितियों की सदस्य हैं।
रीति पाठक को उनके निर्वाचन क्षेत्र के विकास के लिए 22.50 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे। जो कि ब्याज की रकम मिलाकर 22.87 करोड़ हो गई थी। इसमें से उन्होंने 19.91 यानी मूल आवंटित फंड का 88.47 फीसदी खर्च किया। उनका करीब 2.96 करोड़ रुपये का फंड बिना खर्च किए रह गया। उनके सांसद रहते कंपनियों और कोयला खदानों में स्थानीय लोगों को रोजगार के ठोस प्रयास नहीं किए गए। आदिवासी अंचल में बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलीं। हालांकि वोटरों की खामोशी से प्रत्याशियों के दिल की धड़कन बढ़ी हुई है। जिस कारण जहां मुकाबला दिलचस्प दिखाई दे रहा है। अब देखना होगा की वोटर किसे सत्ता की सिहासन सौंपते हैं।