इन्हें बंदिशें और हमले भी नहीं रोक सके, परंपराओं को तोड़ आगे बढ़ीं

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महिला दिवस पर हम आपको कुछ ऐसी महिलाओं से रूबरू करा रहे हैं, जिनके हौसले इस बात से नहीं डिगे कि वे लड़की हैं। समाज की बंदिशें तोड़कर ये महिलाएं अपने क्षेत्र में आज बेहतर कर रही हैं।भूरी बाई,थिनलास कोरोल,नादिया,फरीदा रेहाना,नेहा और सुनीता कृष्णन दूसरी महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं। इनमहिलाओं की जिंदगी पर भास्कर की रिपोर्ट।

  1. 6 रुपए दिहाड़ी पाने वाली महिला नामी चित्रकार बनी

    बचपन में परिवार चलाने के लिए मुझे मजदूरी करनी पड़ती थी। नाटा कद होने की वजह से काम नहीं मिलता था। 6 रु. दिहाड़ी मिलती थी। गांव में शादी-ब्याह होता तो दीवारों पर चित्रकारी करने का मौका मिलता। यही सब करते-करते मेरी शादी हुई और पति के साथ मजदूरी करने झाबुआ से भोपाल आई। भारत भवन में मजदूरी का काम मिला। वहां के डायरेक्टर जगदीश स्वामीनाथन ने पूछा कि क्या तुम अपने यहां के त्योहार, शादी ब्याह दीवार पर उकेर सकती हो? मैं चट से बोल पड़ी कि यह काम मुझे आता है। 10 दिन की पेंटिंग के बदले 1500 रुपए मिले। लेकिन घर वालों को शक हुआ कि इसे इतने पैसे कौन दे सकता है। इसलिए मेरा भारत भवन जाना बंद हो गया। फिर एक दिन स्वामीनाथन के समझाने पर मेरा पति मुझे भारत भवन लेकर पहुंचा। 1500 रुपए से शुरुआत हुई। फिर अमेरिका से भी न्यौता आया। यहां दुनियाभर के कलाकारों के सामने मैंने पिथौरा पेंटिंग को प्रदर्शित किया।

  2. जब किसी ने नौकरी नहीं दी तो ट्रेवल एजेंसी शुरू की

    ‘तुम लड़की हो, यह काम तुम्हारे बस का नहीं है…ऑफिस जॉब कर लो’। दो ट्रेवल एजेंसियाें ने यह ताना देकर मुझे ट्रैकिंग गाइड का जॉब देने से मना कर दिया। यह बात 17 साल पुरानी है। तब मैं यह ठान चुकी थी कि ट्रैकिंग गाइड ही बनना है। इसलिए जॉब नहीं मिला तो ट्रैवल गाइड बन गईं। मैं पांच साल की थी, तभी तकमाचिक में पिता के साथ बकरियां चराने पहाड़ी पर जाती थी। इसी तरह ट्रैकिंग सीखी। मेरा काम लोगों को इतना पसंद आया कि लद्दाख आने वाले पर्यटक मेरे बारे में पूछने लगे। कहते- थिनलास ही गाइड हो ताे अच्छा, उनके साथ परिवार की महिलाएं ज्यादा सहज रहेंगी। 7 साल तक सफर ऐसे ही बढ़ा। फिर 2009 में अपने साथ और लड़कियों को जोड़कर ऑल वुमन ट्रेवल एजेंसी बनाई। इन लड़कियों को ट्रेनिंग भी दी और जॉब भी। आज मेरी 28 महिला कर्मचारियों में 15 ट्रेकिंग गाइड हैं। इन्हें देखकर दूसरी कंपनियां भी लड़कियों को ट्रैकिंग गाइड की जॉब दे रही हैं।

  3. फुटबॉल के लिए मार खाई, अब लड़कों को सिखा रहीं

    मैंने बचपन में लड़कों को फुटबॉल खेलते देखा। तब तो घाटी में यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि यहां कि कोई लड़की इसे खेल सकती है। मैं फुटबॉल मैच देखने जाने लगी। यहां लड़कों से दोस्ती हुई और उनके साथ खेलना शुरू किया। मां को पता चला तो मुझे मारते हुए घर ले गईं, लेकिन डांट-मार के बीच मेरा फुटबॉल खेलना जारी रहा। एक दिन पापा ने मां से कहा कि उसे खेलने दो। फुटबॉल में कोई करियर नहीं है, कब तक खेलेगी। यह बात मुझे लग गई। 45 लड़कों के बीच अकेले ट्रेनिंग करती थीं। फिर मैं बाल छोटे करके लड़कों की टीम में नेशनल खेलने गई। पर दूसरे राउंड में लोगों को पता चल गया कि मैं लड़की हूं और मुझे बाहर होना पड़ा। मेरे कोच ने कहा कि अगर तुम मैच खेलना है तो अपनी टीम बनानी पड़ेगी। इसके बाद कोच बनने के लिए जरूरी योग्यता हासिल की। अब मैं ठाणे में लड़कों की अंडर 13 टीम की कोच हूं। घाटी में लड़कियों के लिए अकेडमी शुरू की है।

  4. ये काम मैं कर सकती हूं, इसी सोच से पैराट्रूपर बनी

    मैं 1962 में भारत-चीन की लड़ाई के वक्त 22 साल की थी। तब कई एेसे दृश्य थे जहां तत्काल मेडिकल सुविधा न मिल पाने के चलते हमारे सैनिक शहीद हो रहे थे। उसी वक्त मैंने तय कर लिया था कि एमबीबीएस पूरा करने के बाद आर्मी ज्वाइन करूंगी। सबने मेरे इस फैसले का विरोध किया था। पर मां ने साथ दिया। मार्च 1964 में मैंने शॉर्ट कमिशन के रूप में आर्मी ज्वाइन की। ट्रेनिंग पूरी होने पर सबको ब्लू कैप मिली। पर एक व्यक्ति को मरुन कैप दी गई। पता चला कि यह मरुन कैप पैराट्रूप के लोगों को मिलती है, जो सीधे मोर्चे पर जाते हैं। मैंने कहा कि मैं भी पैराट्रूपर बनूंगी। सब हंसने लगे। उस वक्त तो जंग में महिलाओं का जाना संभव ही नहीं था। इसे मैंने महिला सम्मान का मुद्दा बना लिया। 2 साल के संघर्ष के बाद आखिर मुझे पैराट्रूपर बनने की मंजूरी मिल गई। बतौर पैराट्रूपर 12 साल के करिअर में 1000 से भी ज्यादा पैरा जंपिंग की है।

  5. बीमार पिता की जगह मर्दों के बाल काटना शुरू किया

    हम छह बहनें है। पापा की गांव में दाढ़ी-बाल काटने की छोटी-सी दुकान थी। इसी दुकान की कमाई से पापा ने चार बेटियों की शादी की। सब ठीक चल रहा था। 2014 में पापा को लकवा मार गया। दुकान बंद हो गई। खाने-पीने तक के लाले पड़ने लगे। फिर पापा की दुकान शुरू करने का फैसला किया। घर पर ही काम सीखने में बहुत मेहनत की। दुकान शुरू की। पर गांव में दाढ़ी बनाने का काम आदमी ही करते आ रहे हैं। ऐसे में ज्योति ने अपना गेटअप लड़कों जैसा किया। नाम बदलकर दीपक कर लिया। धीरे-धीरे लोग दुकान पर आने लगे। समय के साथ-साथ लोगों ने हमारी सच्चाई को स्वीकार कर लिया। अब ज्योति और नेहा दोनों ही यह काम कर रही हैं और परिवार को चला रही है। पापा का इलाज भी करा रही हैं। हम दोनों रोजाना 400 रुपए तक कमा लेेते हैं। आज मां और पापा को अपनी बेटियों पर गर्व है।

  6. गैंगरेप हुआ, 14 हमले हुए, पर तस्करों से हार नहीं मानी

    मैं 7-8 साल की उम्र से ही मानसिक रुप से कमजोर बच्चों को डांस सिखाने लगी थी। फिर 12 की होते-होते हैदराबाद की झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाली बच्चियों को पढ़ाने लगीं। यह काम मानव तस्करी में शामिल लोगों को इतना बुरा लगा कि एक रात इन दरिंदों ने मेरा दुष्कर्म कर दिया। तब मैं 15 साल की थी। पर इससे मेरी चेतना कुंठित नहीं हुई। समाज ने मुझे बहिष्कृत किया। इसीलिए मैंने अपनी जैसी लड़कियों की मदद करने और मानव तस्करों से लड़ने का फैसला लिया। मुझ पर 14 हमले हो चुके हैं। इन्हीं हमलों की वजह से अब मैं दायें कान से सुन नहीं सकती। पर खुशी है कि हम 8000 से ज्यादा बच्चियों को छुड़ा चुके हैं। मेरा मानना है महिलाओं को भोग की वस्तु मानने वाले सौंदर्य प्रतियोगिता कराते हैं। इसलिए 1996 में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता रुकवाने के लिए पूरी ताकत झोंकी थी। तब दो महीने जेल भी जाना पड़ा।

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