वीरता को सलाम: ‘वीर जियाले हम हैं, जान भी देंगे बेशक देश की रक्षा में’

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नई दिल्ली.पुलवामा आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 40 जवानों की शहादत से पूरा देश गुस्से में है। हर तरफ आतंकियों और पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं को सबक सिखाने की मांग उठ रही है। देश की सुरक्षा के लिए सेना, सीआरपीएफ और अन्य सिक्योरिटी फोर्सेस के जवान कभी पीछे नहीं रहे। अनगिनत सैनिकों की वीरता और शहादत हमें प्रेरित करते आई है। इन्हीं में से कुछ चुनिंदा प्रेरक कथाएं…

  1. सिपाही भृगु नंदन चौधरी सीआरपीएफ की कोबरा फोर्स का हिस्सा थे। वे बिहार के गया के पास चकरबंधा जंगलों में माओवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में शहीद हुए थे। 8 सिंतबर 2012 को हुई मुठभेड़ के दौरान भृगु नंदन ने बारूदी सुरंग में अपनी दोनों टांगेंगवां दीं लेकिन फिर भी उन्होंने नक्सलियों से लड़ना नहीं छोड़ा। माओवादियों के हमले से उनका पूरा दल बिखर गया था और उनके साथी सिपाही का भी दाहिना बाजू बारूदी सुरंग के विस्फोट में उड़ गया था। लेकिन फिर भी वे रेंगते हुए आगे बढ़ते रहे और उन्होंने न केवल माओवादियों के एक बड़े दल को रोके रखा, बल्कि खुद भी अपनी आखिरी सांस तक अपने साथी सिपाही की मदद करते रहे। चार घंटे चली मुठभेड़ में उन्होंने 6 नक्सलियों को मार गिराया और कई को घायल किया। वे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के पहले ऐसे सदस्य थे जिन्हें अद्वितीय वीरता के लिए कीर्ति चक्र सम्मान मरणोपरांत प्राप्त हुआ था।

    कीर्ति चक्र: सिपाही चौधरी को 2 मई 2014 को यह सम्मान दिया गया। इसे पाने वाले सीआरपीएफ के वे पहले सिपाही थे।

  2. 18 सितंबर 2012 को झारखंड के चतरा जिले के राबदा गांव में सीआरपीएफ और माओवादियों के बीच भीषण मुठभेड़ हुई। इसमें उप-कमांडेंट प्रकाश रंजन मिश्रा भी शामिल थे। मुठभेड़ के दौरान उन्हें 6 गोलियां लगीं। एक गोली बायीं जांघ में लगी, एक गोली कान के पास सिर की खाल को छीलती हुई निकल गई। वहीं चार गोलियां उनके दाहिने कंधे और छाती के बीच लगी। इस कदर घायल होने के बावजूद उप कमांडेंट मिश्रा बहादुरी के साथ अपनी पार्टी की कमान संभाले रहे और नक्सलियों को उन्हीं के ठिकाने में घुसकर शिकस्त दी। इस अदम्य साहस और नेतृत्व कौशल के लिए उन्हें शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया। उन्हें मिला वीरता का यह लगातार छठा सर्वोच्च पदक था। इसके बाद भी उन्हें खूंटी, झारखंड का एडिशनल एसपी रहते हुए सातवीं बार वीरता के पुलिस पदक से सम्मानित किया गया। यह देश के सुरक्षा बलों के इतिहास में किसी एक अधिकारी को मिलने वाले वीरता के सर्वाधिक पुलिस पदक हैं।

    शौर्य चक्र: सीआरपीएफ के उप कमांडेंट प्रकाश रंजन मिश्रा को 26 जनवरी 2013 में इस सम्मान से नवाजा गया।

  3. 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए आतंकी हमले के दौरान सीआरपीएफ की 88 (एम) बटालियन की महिला कांस्टेबल कमलेश कुमारी तलाशी की ड्‌यूटी निभा रही थीं। जब गोलियों की आवाज आई तो चलती गोलियों के बीच ही वे अन्य गेटों पर तैनात अपने साथियों को आगाह करने के लिए दौड़ पड़ीं। आतंकवादियों की पोजिशन साथियों को बताने के लिए वे वॉकी-टॉकी उठाने के लिए दौड़ीं तो आतंकियों ने उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया, जिसमें कमलेश बुरी तरह घायल हो गईं। उस जख्मी हालत में भी कमलेश कुमारी ने वॉकी-टॉकी सेट तक पहुंचकर आतंकवादियों की पोजिशंस की सटीक जानकारी सभी सिपाहियों को दी और इस तरह आतंकियों को संसद में घुसने से रोकने में मदद कर पाईं। वे बुरी तरह से घायल हो चुकी थीं, इसलिए उन्होंने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया। अपने इस अदम्य साहस के लिए वीरांगना श्रीमती कमलेश कुमारी को मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।

    अशोक चक्र: शहीद कमलेश कुमारी को 26 जनवरी 2002 को यह सम्मान मरणोपरांत प्रदान किया गया।

  4. सीआरपीएफ को झारखण्ड के हुरमुर और गणेशपुर में नक्सलियों के होने की सूचना मिली। 3 मई 2011 को सहायक कमांडेंट रविंद्र कुमार के नेतृत्व में सुबह साढ़े चार बजे अभियान शुरू हुआ। इलाका दो पहाड़ियों के बीच था। दल अभी हुरमुर के जंगलों में एक किलोमीटर अंदर ही घुसा ही था कि 800 मीटर के दायरे में करीब 192 धमाके हो गए। इससे दल के ज्यादातर जवान घायल हो गए। रविंद्र कुमार का ही बायां पैर बुरी तरह जख्मी हो गया। घायल होने के बावजूद वे लगातार अपने अधिकारियों के संपर्क में बने रहे। उन्होंने अपना घाव एक पट्‌टी से बांध लिया ताकि खून न बहे। इसी हालत में वे खुद भी गोलियां दागते रहे और अपने दल को भी प्रेरित करते रहे। रविंद्र कुमार के बहादुरी भरे नेतृत्व की बदौलत नक्सली संख्या में ज्यादा होने और आधुनिक हथियारों से लैस होने के बावजूद सीआरपीएफ के दल से हथियार छीनने के अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो सके। इलाज के दौरान उन्हें अपना बायां पैर खोना पड़ा।

    शौर्य चक्र: असिस्टेंट कमांडेंट रविंद्र कुमार सिंह को 26 जनवरी 2012 को यह सम्मान प्रदान किया गया।

  5. मनोज पाण्डेय 1/11 गोरखा राइफल्स में कैप्टन थे। महज 24 साल के कैप्टन मनोज को ऑपरेशन विजय के दौरान टालिक सेक्टर में जुबर टॉप पर कब्जा करने की जिम्मेदारी दी गई। हाड़ कंपाने वाली ठंड और थका देने वाले युद्ध के बावजूद मनोज कुमार डटे रहे। उन्होंने अपनी गोरखा पलटन लेकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में लड़ते हुए मनोज पाण्डेय ने दुश्मनों के कई बंकर नष्ट कर दिए। गम्भीर रूप से घायल होने के बावजूद मनोज अंतिम क्षण तक लड़ते रहे। भारतीय सेना की परम्परा का मरते दम तक पालन करने वाले मनोज को उनके शौर्य और बलिदान के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। मनोज पाण्डेय मूलत: उत्तरप्रदेश के सीतापुर के रहने वाले थे। सेना में इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा गया था – आप सेना में भर्ती क्यों होना चाहते हैं? तो उनका जवाब था- देश की सेवा और परमवीर चक्र जीतने के लिए।

    परमवीर चक्र: शहीद कैप्टन मनोज पाण्डेय को 15 अगस्त 1999 को सेना का यह सर्वोच्च सम्मान दिया गया।

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