लाइफस्टाइल डेस्क. प्यार की हर कहानी इसके एक अलग ही अंदाज को बयां करती है। बेशकीमती यादों में लिपटे वो खास लम्हे जब शब्दों के रूप में सामने आते हैं तो खूबसूरत तस्वीर उभरती है। वैलेनटाइन डे के मौके पर जानिए कुछ ऐसी लव स्टोरीज के बारे में।
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डॉ. बशीर और डॉ. राहत बद्र
पहली पत्नी को खोने के बाद बशीर बद्र साहब डिप्रेशन में जा रहे थे। उम्र 50 पार की हो चली थी, ऐसे में उनकी जि़ंदगी में आईं राहत- एक फैन गर्ल जो उनसे अनजान थीं, लेकिन दीवानी थी उनके शेर- उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए… की। इस अनजाने शायर की तलाश ने राहत को बशीर की ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया।
शेर और शायर से इश्क की कहानी, राहत बद्र की ज़ुबानी-
मैं 11वीं में थी। एक बार टीचर ने शायरी लिखकर दी- उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए…। मैंने पूछा- किस शायर ने लिखी है? उन्होंने कहा- नहीं मालूम। इतने सादगी भरे अल्फाज़ों में इतनी संजीदा बातें कहने वाला कौन था? इसकी तलाश मैंने शुरू की। इत्तेफाक ही था कि 1987 में मेरी बहन डॉ. रजिया मुझे दिल्ली लेकर गईं। वहां मुलाकात बशीर बद्र से हुई और पता चला कि वो अनजाना शायर कौन था। कुछ समय बाद रजिया को अंदाजा हुआ कि पहली पत्नी की मौत के बाद बशीर साहब डिप्रेशन में जा रहे थे। उसने ही उन्हें सुझाया- दूसरी शादी कर लीजिए। एक लड़की है, आपकी फैन- राहत। 1988 में हमारी शादी हो गई। शादी के बाद जब भी बशीर साहब शायरी लिखते, तो मुझे भी सुनाते। मेरा भी इंट्रेस्ट बढ़ने लगा। रोज सुबह उठती और उनकी डायरी देखती कि आज उन्होंने क्या लिखा। तबीयत खराब होने के बावजूद आज भी मैं उन्हें एक निवाला खिलाती हूं तो दूसरे निवाले के लिए उनके हाथ उठते हैं मुझे खिलाने के लिए।
शादी के बाद उन्होंने मेरे लिए एक शायरी लिखी- वो धूप के छप्पर हो या छांव की दीवारें अब जो भी उठाएंगे मिलजुलकर उठाएंगे…। बस यहीं से मेरी और उनके बीच प्रेम की डोर मजबूत होती चली गई और गुजरते वक्त के साथ मैं उनके शब्दों में शामिल हो गई और वो मेरे दिल में।
रिपोर्ट: प्रवीण पाण्डेय -
श्रेया और नीरज जैन
आंत्रप्रेन्योर बनने से पहले नीरज बैंकर थे, सो उनका इन्वेस्टमेंट पार्ट मजबूत है, वहीं टीम बिल्डिंग में मददगार हैं।
- श्रेया बताती हैं, 2007 में आईआईटी बॉम्बे में हम पहली बार मिले। एक ही साथ पढ़ते थे, तो कॉलेज के प्रोजेक्ट्स हों या दूसरे असाइनमेंट्स मुलाकात होती रहती थी, एक-दूसरे की खासी मदद भी करते थे। कैंपस होस्टल में ही रहते थे, तो अक्सर बिना काम के भी मिलना हो जाता था। इन्हीं मुलाकातों में एहसास हुआ कि शायद हम एक-दूसरे काे अच्छी तरह कॉम्प्लीमेंट करते हैं और इस बारे में कुछ आगे सोच सकते हैं। हमने साथ में इंटर्नशिप की और फिर कैंपस प्लेसमेंट भी साथ में।
- प्यार कब हुआ? इस सवाल पर नीरज और श्रेया के अलग-अलग जवाब हैं। श्रेया कहती हैं- 2010 से हम साथ आए, जबकि नीरज कहते हैं- नहीं 2007 में। श्रेया ने टोका- नहीं 2007 में तो हम साथ पढ़ने आए थे ना, प्यार वाली बात तो 2010 में आई। नीरज- मुझे 2007 में ही हो गया था। (दोनों हंसते हैं..)
- श्रेया- इस दौरान ही हमने घरवालों से बात की, उनको मनाना थोड़ा मुश्किल था, क्योंकि मैं मिश्रा फैमिली से हूं और नीरज, जैन कम्युनिटी से हैं। पर हम जानते थे कि एक बार हमारे पेरेंट्स मिल लेंगे तो हमें मना नहीं कर पाएंगे। वही हुआ। तीन साल जॉब करने के बाद हमने सोचा, अब कुछ अपने लिए करना चाहिए। 2014 में पहले नीरज ने जॉब छोड़ी और अपना बिजनेस शुरू किया। इस एक साल मैं नीरज का बैकअप बनी रही और जब नीरज इस्टैब्लिश हुए, तो मैंने 2015 में अपनी ई-कॉमर्स कंपनी खोली।
- हमारे बेसिक नेचर में अंतर है, जिससे हम एक-दूसरे को बैलेंस करते हैं।
- मैनिट में प्रोफेसर यह दंपती वॉटर ट्रीटमेंट पर काम कर रहा है।
श्रेया एक अच्छी टीम लीडर हैं। उनकी इस खूबी का फायदा मुझे कंपनी को रन करने में मिलता है और अपने वर्कर्स से मैं बेहतर ढंग से काम करा सकता हूं।
दोनों ही एक ही सब्जेक्ट के एक्सपर्ट हैं तो हम कभी भी एक-दूसरे के सुझावों को इग्नोर नहीं करते, जब तक कि न मानने का हमारे पास लॉजिक न हो।
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वीनस और उमेश तरकसवार [म्यूजिक कम्पोजर्स]
- उमेश कहते हैं- 1999 में दूरदर्शन में कम्पोजर बना था। जब वीनस को ऑडिशन के लिए बुलाया तब मेरे पास बहुत काम हुआ करता था। 8-10 साल हम साथ काम करते रहे, पता ही नहीं चला कि हमारे बीच कोई बॉन्डिंग पनप रही है। इसका एहसास हमें कम्पोजिशंस ने दिलाया- जब हम अलग बैठकर लाइनें लिखते… वे बिलकुल ऐसी होतीं जैसे हम एक-दूसरे से कम्पोजिशंस में बातें कर रहे हों। जैसे मैंने लिखा- मुझे जाना है उड़ जाना है तुम भी चलो साथ-साथ… तो वीनस ने लिखा- कुछ बातें ऐसी हैं दिल में जुबां पे न आएं, कहना मैं चाहूं बहुत कुछ मगर कह न पाऊं।
- वीनस और उमेश तरकसवार म्यूजिक कम्पोजर और सिंगर हैं। कई सीरियल के टाइटल सॉन्ग, एड जिंगल्स तैयार किए हैं। दोनों साथ काम करते थे। लिरिक्स लिखते वक्त एहसास हुए कि इसके जरिये एक-दूसरे से संवाद कर रहे हैं।
- वीनस कहती हैं- संगीत ने ही हमें एहसास दिलाया कि हम शायद एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। घरवालों को मनाना आसान नहीं था। लाजमी भी है, क्योंकि परिवार के अपने बच्चों के लिए कुछ अलग ही सपने होते हैं। लेकिन, हमने कभी घरवालों से लड़ाई नहीं की। सिर्फ एक बार उनके सामने यह बात रखी कि हम क्या चाहते हैं और सिर्फ उनके मान जाने का इंतजार किया, ज्यादा नहीं बस 8 साल तक। उन 8 सालों के बारे में वीनस कहती हैं- हम जिस वक्त घरवालों की हां का इंतजार कर रहे थे, वो वक्त काफी मुश्किल था। मैं 10 सालों से उमेश के साथ काम कर रही थी और उनके बिना मैं म्यूजिक को सोच भी नहीं पा रही थी। हम इतने साल मिले भी नहीं, लेकिन एक-दूसरे पर हमारा विश्वास बना रहा। जब दोनों के घरवाले पूरी तरह मान गए, तब हमने शादी की।
- हमारा बेटा कबीर हमारी खुशियों का पिटारा है, जब यह आने वाला था तो हमने एक लोरी- धीमे धीमे से आजा निंदिया… बनाई थी। हमने कबीर को ऑपरेशन टेबल पर ही यह लोरी सुनाई।
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डॉक्टर ज्योति और डॉक्टर आलोक मित्तल
क्लेरिवेट एनालिटिक्स की 4000 मोस्ट साइटेड साइंटिस्ट्स की लिस्ट में देश सेसिर्फ 10 साइंटिस्ट हैं, जिनमें ये कपल भी
- डॉ. आलोक कहते हैं- 1990 की बात है, मैं आईआईटी रुड़की से पीएचडी कर रहा था। ज्योति वहीं एमएससी करने आईं। हम एक ही सब्जेक्ट के थे, मुलाकात हुई और प्यार भी। हम दोनों शुरुआत से ही क्लीयर थे… हमें शादी करनी है।
- 1992 में ज्योति की एमएससी पूरी हुई। इस दौरान मैं भी वहीं पीएचडी पूरी करने के बाद पोस्ट डॉक्टोरल फेलो बना रहा। हमने घर पर बात की, एक ही कास्ट से होने के बावजूद घरवालों को इस बात को लेकर प्रॉब्लम थी कि लड़की तो हमारी पसंद की होनी चाहिए। ज्योति ने बताया- अब आलोक के घर वाले राजी नहीं थे, तो मेरे पैरेंट्स कैसे मान जाते।
- हमने करीब सालभर मनाया, जब नहीं माने, तो हमारे दोस्तों ने मिलकर 1 फरवरी 1993 को आर्य समाज रीति-रिवाज से एक दोस्त के घर पर हमारी शादी करवा दी। उसी दिन, हम रजिस्ट्रार ऑफिस गए और दोबारा कानूनी तौर पर शादी की। दो दोस्तों को रजिस्ट्रार ऑफिस का सर्टिफिकेट लेकर हम दोनों के घर भिजवा दिया। हम दोनों के पेरेंट्स हमारे पास पहुंच गए। कुछ दिन सीरियस टॉक्स चलीं और फिर मान गए। ठीक एक महीने बाद 1 मार्च को हमारी तीसरी बार शादी हुई, इस बार आलोक को घोड़ी चढ़ने का मौका मिला।
- करीब डेढ़ साल का समय रहा, जब हमने काफी फाइनेंशियल क्रंच भी देखे। आलोक को स्कॉलरशिप के तहत 1800 रुपए मिलते थे। जुलाई 1994 में मैनिट में आलोक की जॉब लग गई और हम यहां आ गए।
रिपोर्ट: रश्मि प्रजापति खरे